Saturday, 23 April 2022

उपासना और समर्पण में क्या अंतर है? ---

 उपासना और समर्पण में क्या अंतर है? ---

.
उपासना और समर्पण -- शब्दों में अंतर सिर्फ शाब्दिक है। तात्विक दृष्टि से कोई अंतर नहीं है। 'उपासना' का शब्दार्थ है - 'अपने इष्टदेवता की समीप (उप) स्थिति या बैठना (आसन)'। परमात्मा की प्राप्ति का एक साधन विशेष है "उपासना"। गीता के १२वें अध्याय "भक्ति योग" में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं --
"ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥१२:३॥"
अर्थात् - "जो अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके अचिन्त्य, सब जगह परिपूर्ण, अनिर्देश्य, कूटस्थ, अचल, ध्रुव, अक्षर और अव्यक्तकी उपासना करते हैं, वे प्राणिमात्रके हितमें रत और सब जगह समबुद्धिवाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त होते हैं।"
.
यहाँ भगवान श्री कृष्ण ने "उपासते" यानि उपासना शब्द का प्रयोग किया है। स्वनामधान्य भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर की व्याख्या के अनुसार -- "उपास्य वस्तु को शास्त्रोक्त विधि से बुद्धि का विषय बनाकर, उसके समीप पहुँचकर, तैलधारा के सदृश समानवृत्तियों के प्रवाह से दीर्घकाल तक उसमें स्थिर रहने को उपासना कहते हैं" (गीता १२:३ पर शंकर भाष्य)।
.
एक बर्तन से दूसरे बर्तन में जब तेल डालते हैं तब आपने देखा होगा कि तेल की धार टूटती नहीं है। अपने प्रेमास्पद का ध्यान निरंतर तेलधारा के समान अखंड होना चाहिए, यानि बीच-बीच में खंडित न हो। साथ-साथ यदि भक्ति यानि परमप्रेम भी हो तो आगे का सारा ज्ञान स्वतः ही प्राप्त हो जाता है, और आगे के सारे द्वार भी स्वतः ही खुल जाते हैं। यही उपासना है।
.
सार की बात यह है कि ---द्वैत भाव की समाप्ति -- समर्पण है।
और आत्मतत्व में स्थिति -- ध्यान, उपासना, व उपवास है।
.
अब और लिखने का समय नहीं है। आपके सामने मिठाई पड़ी है तो मिठाई को चखिए, खाइये और उसका आनंद लें। उसके बखान में कोई आनंद नहीं है। भगवान सामने बैठे हैं, उनमें स्वयं को समर्पित कर दीजिये। बातों में कोई सार नहीं है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
११ अप्रेल २०२२

No comments:

Post a Comment