मेरे लिए 'कृपा' शब्द का अर्थ है -- कुछ करो और पाओ। बिना करे तो कुछ मिलेगा नहीं। ऐसा क्या करें जिस से इस जीवात्मा का कल्याण हो, और यह परमशिव को उपलब्ध हो?
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गुरु महाराज ने मार्ग दिखा दिया, सारे संदेह दूर कर दिये, परमशिव की अनुभूति भी करा दी, लेकिन बापस वहीं लाकर छोड़ दिया जहाँ से यात्रा आरंभ की थी। अब यह सारी यात्रा स्वयं को ही करनी होगी। भगवान ने कृपा कर के इस अकिंचन को एक निमित्त मात्र बना दिया है और कर्ता वे स्वयं बन गए हैं। यह भी गुरुकृपा से ही संभव हुआ है। देने के लिए मेरे पास प्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। सब कुछ तो उन्हीं का है। इस प्रेम पर भी उन्हीं का अधिकार है।
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सारे उपदेश, सारे सिद्धान्त और सारे नियम भूल चुका हूँ। मुझ अकिंचन को कुछ भी आता-जाता नहीं है। सामने कूटस्थ सूर्य मण्डल में साक्षात भगवान बैठे हुये हैं। पूर्ण एकाग्रता के साथ दृष्टि उन्हीं पर टिकी है। उन्हीं को देख रहा हूँ और उन्हीं को सुन रहा हूँ। यही मेरा कर्मयोग है, यही मेरा भक्तियोग है, यही मेरा ज्ञानयोग है, यही मेरा वेदपाठ है, और यही मेरा वेदान्त है। उन्हीं को देखते देखते और सुनते इस शरीर की आयु बीत जाए, और कुछ भी नहीं चाहिए।
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आगे से और कुछ लिखने की भी इच्छा अब नहीं रही है। जो लिखा गया सो लिखा गया। बस यही पर्याप्त है। हे गुरु महाराज, आपको नमन करता हूँ --
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||"
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२४ अप्रेल २०२२
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