धर्म एक ही है जो हमारा स्वधर्म है, अन्य सब परधर्म (अधर्म) हैं, जो बड़े भयावह हैं; हमारा स्वधर्म ही हमारी रक्षा करेगा ---
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यहाँ थोड़ा विचार करते हैं कि हमारा स्वधर्म क्या है? "परमात्मा से अहैतुकी परम प्रेम" -- पूरी मनुष्य जाति का स्वभाविक स्वधर्म है (अन्य सब अधर्म है)। यही आत्म-साक्षात्कार यानि भगवत्-प्राप्ति का हेतु है जो जीवन का परम लक्ष्य है। नारद भक्ति सूत्रों, और शांडिल्य सूत्रों में इसी को 'भक्ति' बताया गया है। यही परमधर्म है, और यही सनातन-धर्म का सार है। हम परमात्मा के प्रति समर्पित होकर जीवन का हर कार्य करें, यही धर्म का पालन है। हम धर्म की रक्षा करेंगे तो धर्म भी हमारी रक्षा करेगा। बिना धर्म का पालन किये हम निराश्रय और असहाय हैं।
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बताई हुई ध्यान की विधि से अपने दिन का आरम्भ करें, दिन में हर समय भगवान को अपनी चेतना में रखें, यदि भूल जाएँ तो याद आते ही पुनश्चः उन्हें अपनी चेतना में जीवन का केंद्रबिंदु बनाएँ। उनके उपकरण मात्र बनें, यानि उन्हें अपने माध्यम से हर कार्य करने दें। रात्रि को सोने से पहिले यथासंभव गहनतम ध्यान करके ही सोयें। जैसा हम सोचते हैं वैसा ही हम बन जाते हैं। निरंतर भगवान का ध्यान करेंगे तो स्वतः ही भगवान के सारे गुण हमारे में भी खिंचे चले आयेंगे, और हमारी सारी विकृतियाँ स्वतः ही दूर हो जायेंगी। "ध्यान" क्या है? इसे भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के छठे अध्याय में बहुत अच्छी तरह समझाया है। भगवान कहते हैं --
"शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥६:२५॥"
अर्थात् - " शनै: शनै: धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा (योगी) उपरामता (शांति) को प्राप्त होवे; मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करे॥"
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आचार्य शंकर के अनुसार -- धैर्य से धारण की हुई धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा शनैः शनैः अर्थात् सहसा नहीं, क्रम-क्रम से उपरति को प्राप्त करे। तथा मन को आत्मा में स्थित करके अर्थात् यह सब कुछ आत्मा ही है, उससे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है, इस प्रकार मन को आत्मा में अचल करके अन्य किसी भी वस्तु का चिन्तन न करे। यह योग की परम श्रेष्ठ विधि है। (उपरोक्त श्लोक का शंकर भाष्य)
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आगे भगवान कहते हैं --
"यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥६:२६॥"
अर्थात् - यह चंचल और अस्थिर मन जिन कारणों से (विषयों में) विचरण करता है, उनसे संयमित करके उसे आत्मा के ही वश में लावे अर्थात् आत्मा में स्थिर करे॥"
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यह अस्थिर और चञ्चल मन जहाँ-जहाँ विचरण करता है, वहाँ-वहाँ से हटाकर इस को एक परमात्मा में ही लगाये। भगवान कहते हैं ---
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् -- "जो सबमें मुझे देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।" He who sees Me everywhere and sees everything in Me, he never becomes separated from Me, nor do I become separated from him.
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण का वचन है --
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२:४०॥"
अर्थात् - "इसमें क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है। इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षण करता है॥"
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जब भगवान श्रीकृष्ण का आदेश है तो उसकी पालना हमें करनी ही होगी। अन्य सारे उपाय अति जटिल और कठिन हैं, अतः सबसे सरल मार्ग के रूप में स्वभाविक रूप से धर्म का पालन हमें करना ही चाहिए, तभी धर्म हमारी रक्षा करेगा। धर्म का पालन ही धर्म की रक्षा है, और धर्म की रक्षा ही हमारी स्वयं की रक्षा है॥ ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१२ अप्रेल २०२२
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