कूटस्थ, उपास्य और उपासना :---
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"ॐ गुरुभ्यो नमः॥" "ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥" "ॐ शांति शांति शांति॥" "हरिः ॐ॥"
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यह "कूटस्थ" शब्द मुझे इसलिए बहुत अधिक प्रिय लगता है क्योंकि इस शब्द का प्रयोग भगवान श्रीकृष्ण ने अनेक बार किया है। यह भगवान श्रीकृष्ण का ही शब्द है। भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कूटस्थ हैं, क्योंकि वे सर्वत्र होते हुए भी कहीं दिखाई नहीं देते।
जो साधक योग-साधना करते हैं, उनके लिए भी यह शब्द बहुत अधिक प्रिय है, क्योंकि वे कूटस्थ सूर्य-मण्डल में ही विस्तार-क्रम से परमात्मा का ध्यान करते हैं, और उन्हें जो भी आध्यात्मिक अनुभूतियाँ होती हैं, वे कूटस्थ में ही होती हैं। सारे ज्ञान की प्राप्ति भी कूटस्थ में ही होती है। कूटस्थ ही भगवान हैं, और भगवान ही कूटस्थ हैं, क्योंकि वे कूट रूप से सर्वत्र हैं, लेकिन कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होते।
जो सर्वत्र हैं लेकिन कहीं भी दिखाई नहीं देते, वे कूटस्थ हैं।
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उन्हें जानने की विद्या गुरुमुखी है जो गुरु की कृपा से ही प्राप्त होती है। श्रौत्रिय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध गुरु से उपदेश व आदेश लेकर बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीप लाकर, भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, खेचरी या अर्धखेचरी मुद्रा में प्रणव की ध्वनि को सुनते हुए उसी में सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करने की साधना नित्य नियमित यथासंभव अधिकाधिक करनी चाहिए। समय आने पर गुरुकृपा से विद्युत् की चमक के समान एक देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होगी। उस ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में निरंतर रहने की साधना करें। यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता। लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है, पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता। यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है; जिसमें स्थिति योगमार्ग की एक अति उच्च उपलब्धी है। गीता में भगवान कहते हैं --
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१५:१६॥"
इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं, समस्त भूत क्षर हैं और 'कूटस्थ' अक्षर कहलाता है॥
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साहित्यिक दृष्टि से इस शब्द के अनेक अर्थ हो सकते हैं, लेकिन भक्त/साधकों के लिए इसका एक ही अर्थ है --
भगवान के ज्योतिर्मय रूप के दर्शन और अनाहत नाद का श्रवण।
धन्य हैं वे सब साधक जिन्हें भगवान की कूटस्थ ज्योति के दर्शन होते हैं। भगवान के दर्शन कूटस्थ ज्योतिर्मयब्रह्म रूप में ही होते हैं। उस के साथ जो अक्षरब्रह्म सुनाई देता है, उस में दीर्घकाल तक स्थित होकर तैलधारा के समान उसका श्रवण निरंतर अधिकाधिक करना चाहिये। वह अक्षर अव्यक्त होने के कारण किसी प्रकार भी बतलाया नहीं जा सकता, और किसी भी प्रमाण से प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता। वह आकाश के समान सर्वव्यापक है और अव्यक्त होने से अचिन्त्य और कूटस्थ है।
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उपास्य :--
प्रकृति तो माया है, और भगवान मायापति हैं। भगवान की माया अति दुस्तर है। उसी का नाम "कूट" है। उस "कूट" नामक माया में जो अधिष्ठाता के रूप में कुछ भी क्रिया न करते हुये स्थित हैं, उनका नाम कूटस्थ है। इस प्रकार कूटस्थ होने के कारण वे अचल, ध्रुव अर्थात् नित्य है। वे हमारे उपास्य हैं।
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उपासना :--
उपास्य वस्तु को शास्त्रोक्त विधि से बुद्धि का विषय बना कर उसके समीप पहुँच कर तैलधारा के तुल्य समान वृत्तियों के प्रवाह से दीर्घकाल तक उसमें स्थित रहने को "उपासना" कहते हैं।
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जिन भक्तों को कूटस्थ ज्योतिर्मयब्रह्म के दर्शन होते हैं, वे भगवान की कृपा से उनकी माया के आवरण और विक्षेप से परे चले जाते हैं। उनकी स्थाई स्थिति कूटस्थ चैतन्य में हो जाती है। कूटस्थ में दिखाई देने वाला पञ्चकोणीय श्वेत नक्षत्र पञ्चमुखी महादेव का प्रतीक है। यह एक नीले और स्वर्णिम आवरण से घिरा हुआ दिखाई देता है, जिसके चैतन्य में स्थित होकर साधक की देह शिवदेह हो जाती है, और वह जीव से शिव भी हो सकता है। इस श्वेत नक्षत्र की विराटता - क्षीरसागर है, जिसका भेदन और जिसके परे की स्थिति योग मार्ग की उच्चतम साधना और उच्चतम उपलब्धि है। इसका ज्ञान भगवान की परम कृपा से किसी सिद्ध सद्गुरु के माध्यम से ही होता है।
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आज्ञाचक्र ही योगी का ह्रदय है, भौतिक देह वाला ह्रदय नहीं। आरम्भ में ज्योति के दर्शन आज्ञाचक्र से थोड़ा सा ऊपर जहाँ होता है, वह स्थान कूटस्थ बिंदु है। आज्ञाचक्र का स्थान Medulla Oblongata यानि मेरुशीर्ष है जो खोपड़ी के ऊपर मध्य में पीछे की ओर है। यह जीवात्मा का निवास है।
गुरुकृपा से धीरे धीरे सहस्त्रार में स्थिति हो जाती है। सामान्यतः एक उन्नत साधक की चेतना आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य उत्तरा-सुषुम्ना में रहती है।
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चेतावनी :-- कुसंग का त्याग और यम-नियमों का पालन अनिवार्य है, अन्यथा तुरंत पतन हो जाता है। जब इस ज्योति पर साधक ध्यान करता है तब कई बार वह ज्योति लुप्त हो जाती है, यह 'आवरण' की मायावी शक्ति है जो एक बहुत बड़ी बाधा है। इस ज्योति पर ध्यान करते समय 'विक्षेप' की मायावी शक्ति ध्यान को छितरा देती है। इन दोनों मायावी शक्तियों पर विजय पाना साधक के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है। ब्रह्मचर्य, सात्विक भोजन, सतत साधना और गुरुकृपा से एक आतंरिक शक्ति उत्पन्न होती है जो आवरण और विक्षेप की शक्तियों को कमजोर बना कर साधक को इस भ्रामरी गुफा से पार करा देती है।
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आवरण और विक्षेप का प्रभाव समाप्त होते ही साधक को धर्मतत्व का ज्ञान होता है| यहाँ आकर कर्ताभाव समाप्त हो जाता है और साधक धीरे धीरे परमात्मा की ओर अग्रसर होने लगता है। हम सब को परमात्मा की अनन्य पराभक्ति प्राप्त हो, और हम सब उन के प्रेम में निरंतर मग्न रहें इसी शुभ कामना के साथ इस लेख को विराम देता हूँ।
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इस लेख को लिखने से पहिले मैंने संबंधित विषय का गीता के शंकर भाष्य से स्वाध्याय किया, और गुरु महाराज, व भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना की। उनकी कृपा से ही यह लेख लिख पाया, अन्यथा मुझ अकिंचन में कोई योग्यता नहीं है।
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ॐ नमः शिवाय !! ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
३१ जनवरी २०२३