Wednesday, 14 July 2021

भगवान हैं, इसी समय हैं, सर्वदा हैं, यहीं पर हैं, सर्वत्र हैं ---

 भगवान हैं, इसी समय हैं, सर्वदा हैं, यहीं पर हैं, सर्वत्र हैं ---

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ज्ञान अनंत है, विद्याएँ अनंत हैं, शास्त्र अनंत हैं, साधनायें अनंत हैं, लेकिन बुद्धि अत्यल्प है, कुछ भी समझ में नहीं आता| अपने बस की बात नहीं है कुछ भी समझना| सब कुछ एक विशाल अरण्य की तरह है जिसमें मेरे जैसा अकिंचन जिज्ञासु खो जाता है| फिर बाहर निकालने का मार्ग ही नहीं मिलता| अतः समझने का प्रयास करना ही छोड़ दिया है| जो आवश्यक होगा वह भगवान स्वयं ही समझा देंगे|
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सिर्फ एक बात ही समझ में आती है कि भगवान हैं, इसी समय हैं, सर्वदा हैं, यहीं पर हैं, सर्वत्र हैं| मैं उनके हृदय में हूँ, और वे मेरे हृदय में हैं| इसके अलावा मुझ भी कुछ नहीं भी पता| अन्य कुछ जानने या पता करने की इच्छा भी नहीं है| भगवान को मैने अपने हृदय में क़ैद यानि गिरफ्तार कर लिया है| वे कितना भी ज़ोर लगा लें पर बाहर नहीं आ सकते| अब तो उन्हें नित्य मेरे साथ सत्संग करना ही पड़ेगा| वे मेरे ही बंदी और सतसंगी हैं| वे मेरे साथ बहुत अधिक प्रसन्न हैं, अतः मैं भी बहुत प्रसन्न हूँ| और कुछ नहीं चाहिए| हे भगवान, अब सब कुछ तुम संभालो| मैं तुम्हारा हूँ, तुम मेरे हो, और सदा मेरे ही रहोगे| ॐ तत्सत् ||
कृपा शंकर
१४ जुलाई २०२०

अनन्य-अव्यभिचारिणी-भक्ति ---

 अनन्य-अव्यभिचारिणी-भक्ति ....

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भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत में दो बार, दो अलग-अलग स्थानों पर, दो सगे भाइयों को, "अव्यभिचारिणी भक्ति" का उपदेश दिया है| जिस के जीवन में यह "अव्यभिचारिणी भक्ति" फलीभूत हो जाये, उसे इसी जीवन में भगवान की प्राप्ति हो सकती है| ईश्वर प्राप्ति के लिए उसे और जन्म लेने की प्रतीक्षा, हो सकता है, नहीं करनी पड़े|
महाभारत के अनुशासन पर्व में भगवान श्रीकृष्ण, महाराज युधिष्ठिर को तंडि ऋषि कृत "शिवसहस्त्रनाम" का उपदेश देते हैं, जो भगवान श्रीकृष्ण को उपमन्यु ऋषि से प्राप्त हुआ था| उसका १६६वां श्लोक है...
"एतद् देवेषु दुष्प्रापं मनुष्येषु न लभ्यते| निर्विघ्ना निश्चला रुद्रे भक्तिर्व्यभिचारिणी||"
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महाभारत के भीष्म पर्व में भी कुरुक्षेत्र की रण-भूमि में भगवान श्रीकृष्ण, अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को जो भगवद्गीता का उपदेश देते हैं, उसके १३वें अध्याय का ११वां श्लोक है ...
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी| विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि||"
इसे भगवान ने अनन्ययोग कहा है, जिसके लिए अव्यभिचारिणी भक्ति, एकान्तवास के स्वभाव, और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि का होना बताया है|
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सत्यनिष्ठा पूर्वक भगवान के सिवा अन्य कुछ भी प्रिय न लगे, वह अव्यभिचारिणी भक्ति है| ऐसे नहीं कि जब सिनेमा अच्छा लगे तब सिनेमा देख लिया, नाच-गाना अच्छा लगे तब नाच-गाना कर लिया, गप-शप अच्छी लगे तब गप-शप कर ली; और भगवान अच्छे लगे तब भगवान की भक्ति कर ली| ऐसी भक्ति व्यभिचारिणी होती है| सिर्फ भगवान ही अच्छे लगें, भगवान के सिवा अन्य कुछ भी अच्छा न लगे, निरंतर भगवान का ही स्मरण रहे वह "अव्यभिचारिणी भक्ति" है| स्वयं में भगवान की धारणा कर के कि मेरे सिवा अन्य कोई नहीं है, मैं ही सर्वत्र और सर्वस्व हूँ, अनन्य भक्ति है| अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति, एकांतवास और कुसंग-त्याग को भगवान ने "अनन्य-योग" बताया है|
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मुझ भगवान वासुदेव (जो सर्वत्र समान रूप से व्याप्त हैं) से परे अन्य कोई नहीं है| वे ही सर्वस्व हैं, इस प्रकार की निश्चित अविचल बुद्धि से भगवान का ध्यान और भजन करना चाहिए| साथ-साथ संस्कारों से शुद्ध किया हुआ एकान्त पवित्र स्थान भी हो जहां हिंसक जीव-जंतुओं का भय न हो| यह हमारा स्वभाव बन जाये| कुसंग का सर्वदा त्याग हो|
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यह अनन्य-योग भगवान श्रीकृष्ण को सर्वाधिक प्रिय है| जो उन को प्रिय है, वह ही हमें भी प्रिय होना चाहिए| विश्वगुरु भगवान श्रीकृष्ण ही हमारे परमेष्ठी परात्पर परमगुरु हैं| हम सब उनको पूर्ण सत्यनिष्ठा से शरणागति द्वारा समर्पित हों| इस समर्पण में कोई कमी न हो|
हरिः ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१४ जुलाई २०२०
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पुनश्च: ----
उपरोक्त लेख पर प्रख्यात वैदिक विद्वान श्री अरुण उपाध्याय जी की टिप्पणी :--
"Arun Upadhyay यहां चारिणी का अर्थ चलने वाली है, उसमें ३ उपसर्ग लगा दिये हैं-अ, वि, अभि। अर्थात् किसी प्रकार छोड़ कर जाने वाली नहीं। तुलसीदास जी ने अनपायिनी शब्द का प्रयोग किया है। इसका अर्थ प्रवचनों में सुनता था-बिना पैर वाली भक्ति, जो राम को छोड़ कर कहीं नहीं जाय। श्रीसूक्त में अनपगामिनी का प्रयोग है, जो लक्ष्मी किसी अन्य स्थान नहीं जाये।
तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्। यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम्॥२॥
पाठभेद-(१) लक्ष्मीमलप-काशीकर, संस्कार भास्कर, (२) गामश्वान्-काशीकर, (३) लक्ष्मी तन्त्र में अनपगामिनीम् है, पर बाद में अनपायिनीयम् पाठ का प्रचलन लगता है। तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है- नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी॥ (सुन्दर काण्ड, ३३/१)
अर्थ-हे सर्वज्ञ अग्नि देव! स्थिर और अविनाशी लक्ष्मी को मेरे पास बुलाइये, जिसके आने के बाद मैं सोना, चान्दी, गायें, घोड़े आदि पशु समूह और अनुकूल पुत्र, हितैषी मित्र, निष्ठावान् दास आदि को प्राप्त करूँ।"
ॐ तत्सत्॥
१४ जुलाई २०२०

शिव सहस्त्रनाम की महिमा ---

 यदि संभव हो तो श्रावण के इस पवित्र माह में भी, और सदा नित्य, भगवान शिव की उपासना, महर्षि तंडी द्वारा अवतरित परम सिद्ध स्तवराज "शिवसहस्त्रनाम" से भी करें| किसी भी पवित्र शिवालय में श्रद्धा-भक्ति से इसका मानसिक रूप से पाठ कर भगवान शिव को बिल्व-पत्र और जल अर्पित कर आराधना करें|

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यह कथा महाभारत के अनुशासन-पर्व के १५वें अध्याय में आती है...
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सत्ययुग में तंडी नामक ऋषि ने बहुत कठोर तपस्या और उपासना द्वारा भगवान शिव को प्रसन्न किया| आशुतोष भगवान शिव की कृपा से तंडी ऋषि की ज्योतिष्मती और मधुमती प्रज्ञा जागृत हो गयी, व उन में शिव-तत्व का ज्ञानोदय हुआ| महर्षि तंडी को महादेव के दर्शन प्राप्त हुए और उन के हृदय में देवाधिदेव भगवान महादेव के एक हज़ार सिद्ध नाम स्वयं जागृत हो गए| महर्षि ने उन नामों को ब्रह्मा को बताया| ब्रह्मा ने स्वर्गलोक में उन नामों का प्रचार किया| महर्षि तंडी ने पृथ्वी पर उन नामों को सिर्फ महर्षि उपमन्यु को बताया| महर्षि उपमन्यु ने उस समय विद्यार्थी के रूप में आये अपने शिष्य भगवान श्रीकृष्ण को वे नाम बताये| भगवान श्रीकृष्ण ने वे नाम महाराजा युधिष्ठिर को बताये| इसका विषद बर्णन महाभारत के अनुशासन पर्व में भगवान वेदव्यास ने किया है|
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एक बार भगवान श्रीकृष्ण तपस्या करने हिमालय गए जहाँ उन्हें ब्रह्मर्षि उपमन्यु के दर्शन हुए| ब्रह्मर्षि उपमन्यु ने श्रीकृष्ण को लगातार आठ दिनों तक शिव रहस्य का वर्णन सुनाया| इसके बाद श्रीकृष्ण ने उन से गुरुमंत्र और दीक्षा ली| स्वयं भगवान श्रीकृष्ण का कहना है ...
"दिनेSष्टमे तु विप्रेण दीक्षितोSहं यथाविधि|
दंडी मुंडी कुशी चीरी घृताक्तो मेखलीकृतः||"
अर्थात, हे युधिष्ठिर, अष्टम तिथि पर ब्राह्मण उपमन्यु ने मुझे यथाविधि दीक्षा प्रदान की| उन्होंने मुझे दंड धारण करवाया, मेरा मुंडन करवाया, कुशासन पर बैठाया, घृत से स्नान कराया, कोपीन धारण कराया तथा मेखलाबंधन भी करवाया|
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तत्पश्चात मैंने एक महीने भोजन में केवल फल लिये, दुसरे महीने केवल जल लिया, तीसरे महीने केवल वायु ग्रहण की, चतुर्थ एवम् पंचम माह एक पाँव पर ऊर्ध्ववाहू हो कर व्यतीत किये| फिर मुझे आकाश में सहस्त्र सूर्यों की ब्रह्म ज्योति दिखाई दी जिसमें मैंने शिव और पार्वती को बिराजमान देखा|
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शिव सहस्त्रनाम की महिमा ---
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ब्रह्मर्षि उपमन्यु की कृपा से मुझे शिवजी के जो एक सहस्त्र नाम मिले हैं, आज युधिष्ठिर मैं उन्हें तुम्हे सुनाता हूँ| ध्यान से सुनो| महादेव के ये सहस्त्र नाम समस्त पापों का नाश करते हैं और ये चारों वेदों के समान पवित्र हैं तथा उन्हीं के समान दैवीय शक्ति रखते हैं|
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विशेष :--- पूरा स्तोत्र १८२ श्लोकों में है| इन श्लोकों का नित्य किसी जागृत शिवालय में भक्तिपूर्वक मानसिक रूप से पाठ कर भगवान शिव की आराधना की जाये तो भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है|
जिज्ञासु साधक इसे सीधे महाभारत से उतार सकते हैं या गीताप्रेस गोरखपुर से मंगा सकते हैं| गीताप्रेस गोरखपुर की पुस्तक कोड संख्या १५९९, मूल्य मात्र ६ रूपये| नेट पर भी उपलब्ध है जिसे प्रिंट कर सकते हैं| नेट पर इस का हिन्दी अनुवाद भी मिल जाएगा| गीता प्रेस गोरखपुर की पुस्तक "शिव स्तोत्र रत्नाकर" में भी सब से अंत मे दिया हुआ है|
ॐ तत्सत्॥ ॐ नमःशिवाय॥
१४ जुलाई २०२०