अक्षर ब्रह्म की उपासना :---
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"ॐ गुरुभ्यो नमः॥" "ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥" "ॐ शांति शांति शांति॥" "हरिः ॐ॥"
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जिन्हें इसी जीवन में भगवान चाहिए, जो और प्रतीक्षा करने को तैयार नहीं हैं, वे ही इस लेख को पढ़ें। दो दिन पहिले मैंने कूटस्थ चैतन्य, उपास्य और उपासना पर एक अति दुर्लभ लेख लिखा था। आज मैं अक्षरब्रह्म पर लिख रहा हूँ। इस अक्षरब्रह्म की उपासना करने वाले को या तो वह सब कुछ मिल जाएगा जो कुछ भी इस सृष्टि में है; या थोड़ा-बहुत वह सब जो कुछ उसके पास है, वह भी उससे छीन लिया जाएगा। इसके साधकों ने या तो भगवान को प्राप्त किया है, या विक्षिप्त होकर मरे हैं। अतः सोच-विचार कर ही इस मार्ग पर चलें। श्रुति भगवती कहती है -- "उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति॥"
''उठो, जागो, वरिष्ठ पुरुषों को पाकर उनसे बोध प्राप्त करो। छुरी की तीक्ष्णा धार पर चलकर उसे पार करने के समान दुर्गम है यह पथ-ऐसा ऋषिगण कहते हैं।
(कठोपनिषद् १/३/१४)
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भगवान हम से १००% प्रेम मांगते हैं, ९९.९९ भी नहीं चलेगा। अतः यदि आप अपना पूर्ण प्रेम भगवान को नहीं दे सकते तो यह मार्ग आपके लिए नहीं है। यह मार्ग सामान्य नहीं, बहुत अधिक तीक्ष्ण है। आधे-अधूरे मन से इस मार्ग पर चलने वाला न घर का रहेगा, न घाट का; विक्षिप्त हो जायेगा। इसलिए ठंडे दिमाग से सोच लो कि भगवान चाहिए या संसार। यदि संसार चाहिए तो ठंडे दिमाग से घर बैठो, और उपासना की बात भूल जाओ। यदि सिर्फ भगवान चाहिए तभी उपासना करो। भगवान बड़े ईर्ष्यालु प्रेमी है। उन्हें वही भक्त प्रिय है जो उनसे उनके सिवाय और कुछ भी नहीं माँगता।
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गीता में भगवान कहते हैं --
"अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥८:३॥"
"अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥८:४॥"
"अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥८:५॥"
"यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥८:६॥
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
"अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्॥८:८॥"
अर्थात् -- श्रीभगवान् ने कहा -- परम अक्षर (अविनाशी) तत्त्व ब्रह्म है; स्वभाव (अपना स्वरूप) अध्यात्म कहा जाता है; भूतों के भावों को उत्पन्न करने वाला विसर्ग (यज्ञ, प्रेरक बल) कर्म नाम से जाना जाता है॥
हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! नश्वर वस्तु (पंचमहाभूत) अधिभूत और पुरुष अधिदैव है; इस शरीर में मैं ही अधियज्ञ हूँ॥
और जो कोई पुरुष अन्तकाल में मुझे ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं॥
हे कौन्तेय ! (यह जीव) अन्तकाल में जिस किसी भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर को त्यागता है, वह सदैव उस भाव के चिन्तन के फलस्वरूप उसी भाव को ही प्राप्त होता है॥
इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
हे पार्थ ! अभ्यासयोग से युक्त अन्यत्र न जाने वाले चित्त से निरन्तर चिन्तन करता हुआ (साधक) परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है॥
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यहाँ नौवें श्लोक में भगवान अप्रत्यक्ष रूप से सूर्यमंडल और बिना नाम लिए कूटस्थ की बात करते हैं --
"कविं पुराणमनुशासितार मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्॥८:९॥"
अर्थात् - जो पुरुष सर्वज्ञ, प्राचीन (पुराण), सबके नियन्ता, सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर, सब के धाता, अचिन्त्यरूप, सूर्य के समान प्रकाश रूप और (अविद्या) अन्धकार से परे तत्त्व का अनुस्मरण करता है॥
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"प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥८:१०॥"
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥८:१२॥"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥८:१३॥"
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८:१४॥"
वह (साधक) अन्तकाल में योगबल से प्राण को भ्रकुटि के मध्य सम्यक् प्रकार स्थापन करके निश्चल मन से भक्ति युक्त होकर उस परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है॥
सब (इन्द्रियों के) द्वारों को संयमित कर मन को हृदय में स्थिर करके और प्राण को मस्तक में स्थापित करके योगधारणा में स्थित हुआ॥
जो पुरुष ओऽम् (ॐ) इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है॥
हे पार्थ ! जो अनन्यचित्त वाला पुरुष मेरा स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगी के लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ॥
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भगवान श्रीकृष्ण ने इतना बड़ा आश्वासन हमें दिया है तो और क्या चाहिए? यदि उनका उपदेश नहीं चाहिए तो आराम से घर बैठिए, और कुछ मत करो। भगवान नहीं चाहिए तो संसार में रमे रहिए। तीन चार जन्मों के बाद पुनश्च: सुअवसर मिलेगा।
तत्त्व की बातें किसी को गौर कर के, उसे जांच परख कर ही बताई जाती हैं। उन पर सार्वजनिक चर्चा नहीं हो सकती। कुछ गुप्त रहस्य गुप्त रहस्य ही होते हैं। अभी तो इतना ही बहुत है।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ फरवरी २०२३