Thursday 1 June 2017

मेरा अपना स्वराज्य .....

मेरा अपना स्वराज्य .....
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परमात्मा का दिया हुआ एक मेरा अपना स्वराज्य है जिसमें किसी का भी हस्तक्षेप नहीं है| मैं अपने राज्य में बहुत सुखी हूँ| उस साम्राज्य में सारी सृष्टि .... सारी आकाश गंगाएँ, सारे चाँद, तारे, नक्षत्र और परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं| जो भी सृष्ट हुआ है, वह सब उस साम्राज्य के भीतर है| उस से बाहर कुछ भी नहीं है|

वह साम्राज्य भाव-जगत से भी परे कूटस्थ चैतन्य का है| जगन्माता के रूप में परमात्मा स्वयं उसका संचालन और रक्षा कर रहे हैं|
 

उस साम्राज्य में सिर्फ प्रेम ही प्रेम और आनंद ही आनंद है| परमात्मा सदा मुझे उसी चेतना में रखे जहाँ समस्त सृष्टि मेरा परिवार है, और समस्त ब्रह्मांड मेरा घर| वही मेरा संसार है| मेरा केंद्र सर्वत्र है, पर परिधि कहीं भी नहीं|
वहाँ कोई अन्धकार नहीं है, सर्वत्र प्रकाश ही प्रकाश है|


ॐ तत्सत् | ॐ श्री गुरवे नमः | ॐ ॐ ॐ ||

हमारे समाज की गति क्यों क्षीण हो रही है ?

हमारे समाज की गति क्यों क्षीण हो रही है ?
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सन उन्नीस सौ पचास, साठ, और सत्तर के दशकों में व सन १९८० के दशक तक भारत की राजनीति में अच्छे विचारक और वक्ता हुआ करते थे| बड़ी अच्छी अच्छी साहित्यिक और ज्ञानवर्धक पत्रिकाएँ निकलती थीं| समाचारपत्रों का आकार आज से डेढ़ गुणा और पृष्ठों की संख्या आज से दुगुणी होती थी| बड़े अच्छे लेख आते थे| वाचनालयों में समाचार पत्र और पत्रिकाएँ पढ़ने के लिए खूब भीड़ रहती थी| युवा विद्यार्थीगण पुस्तकालयों से अच्छी अच्छी साहित्यिक और ज्ञानवर्धक पुस्तकें निकलवा कर पढ़ते थे| प्रातःकाल में घूमने, दौड़ने और खूब व्यायाम करने का भी युवाओं में शौक था| शाम के समय भी खेलने और मित्रों से मिलने जुलने का समय होता था| समाज में एक गति थी| अब वह गति नहीं रही है| अब इतनी गलाकाट प्रतियोगिता हो गयी है कि विद्यार्थियों को ट्यूशन और कोचिंग से ही अवकाश नहीं मिलता| महिलाओं में भी तब बहुत मेलजोल, सामाजिक एकता और पारस्परिक प्रेमभाव था| अब तो मुश्किल से ही आपस में मिलना जुलना होता है|
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अब आज के युवा वर्ग की न तो अच्छे साहित्य में रूचि है और न ही धर्म, समाज और राष्ट्र की चेतना में| कोई अच्छे मार्गदर्शक भी नहीं दिखाई दे रहे हैं| बहुत अधिक अपराध बढ़ रहे हैं| लोग स्वार्थी होते जा रहे हैं| कैसे हम अपनी संतानों को चरित्रवान बनाएँगे? कैसे हम राष्ट्रीय चरित्र का विकास करेंगे? इस की चिंता करने वाले भी बहुत कम लोग हैं|
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राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति के मन में यह भावना होना चाहिये कि मैं इस राष्ट्र का एक बहुत महत्वपूर्ण घटक हूँ| हम में आत्मविश्वास होना चाहिए| समाज की परिस्थितियों को देखकर निराशा होती है| आज का नेतृत्व भी व्यवसायिक हो गया है| ऐसे नेताओं की हमें आवश्यकता है जो देश को आध्यात्मिक, सामाजिक और राजनीतिक नेतृत्व दे सके|
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पर मैं निराश नहीं हूँ| भारत में बहुत अच्छे अच्छे लोग हैं जो हर क्षेत्र में बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं| हमारा समाज फिर से गति पकड़ेगा और उन्नति के शिखर पर होगा| इस और से मैं पूर्णतः आश्वस्त हूँ|
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कमियाँ तो मुझे जो दिखाई दे रही हैं वे सब आध्यात्मिक स्तर पर मेरी ही कमियाँ हैं| मेरा निजी पतन ही बाहरी जगत का पतन है| मैं स्वयं की कमियों को आध्यात्मिक स्तर पर दूर करूँगा तभी बाहरी जगत की कमियाँ दूर होंगी| मेरी स्वयं की आध्यात्मिक गति तीब्र होगी तभी समाज और राष्ट्र की भी होगी| दोष मेरा ही है जिसे मुझे ही दूर करना होगा|
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ॐ ॐ ॐ ||

लोकतंत्र में नेतृत्व को निर्णय लेने की कितनी स्वतन्त्रता प्राप्त है ? .......

लोकतंत्र में नेतृत्व को निर्णय लेने की कितनी स्वतन्त्रता प्राप्त है ? .......
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लोकतंत्र में एक नेता के लिए स्वतंत्र निर्णय लेना वास्तव में सर्वाधिक कठिन कार्य है| उसे हर समय चिंता रहती ही होगी कि मेरे मतदाता कहीं मेरे विरुद्ध न हो जाएँ और मैं कहीं अगला चुनाव हार न जाऊँ| चाहे वह कितना भी अच्छा काम करे, बुराई तो उसकी होगी ही| अगला चुनाव जीतने के लिए और पिछले चुनाव में हुए खर्चे की पूर्ति के लिए रुपयों की व्यवस्था करने की चिंता भी तो रहती ही होगी| यही सब घोटालों और भ्रष्टाचार की जड़ है|
इसका समाधान क्या हो सकता है ?

साधना में जप यज्ञ .....

साधना में जप यज्ञ .....
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने "यज्ञानां जपयज्ञोsस्मि" कहा है|
अग्नि पुराण के अनुसार ..... जकारो जन्म विच्छेदः पकारः पाप नाशकः। तस्याज्जप इति प्रोक्तो जन्म पाप विनाशकः || इसका अर्थ है .... ‘ज’ अर्थात् जन्म मरण से छुटकारा, ‘प’ अर्थात् पापों का नाश ..... इन दोनों प्रयोजनों को पूरा कराने वाली साधना को ‘जप’ कहते हैं|
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मेरी सोच है कि कोई भी साधना जितने सूक्ष्म स्तर पर होती है वह उतनी ही फलदायी होती है| जितना हम सूक्ष्म में जाते हैं उतना ही समष्टि का कल्याण कर सकते हैं|

पश्यन्ति और परा देवताओं की बोली है| परा में प्रवेश कर के ही हम समष्टि का वास्तविक कल्याण कर सकते हैं| जप के लिये प्रयुक्त की जाने वाली वाणी का स्तर कैसा हो, इसे हर व्यक्ति अपने अपने स्तर पर ही समझ सकता है|
वाणी के चार क्रम हैं ----- परा, पश्यन्ति, मध्यमा और बैखरी|
जिह्वा से होने वाले शब्दोच्चारण को बैखरी वाणी कहते हैं।
उससे पूर्व जो मन में जो भाव आते हैं वह मध्यमा वाणी है|
मन में भाव उत्पन्न हों, उससे पूर्व वे मानस पटल पर दिखाई भी दें वह पश्यन्ति वाणी है|
और उससे भी परे जहाँ से विचार जन्म लेते हैं वह परा वाणी है|
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विचारों का जन्म क्यों व कैसे होता है? क्या विचार हमारे अपने भावों की ही स्थूल अवस्था है? हमारे भाव कैसे व क्यों बनते हैं, इसे समझने का प्रयास कर रहा हूँ| यह बुद्धि से परे का विषय है|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
०१ जून २०१५

मोदी को देश ने प्रधान मंत्री चुना है कोई जादूगर नहीं ---

मोदी को देश ने प्रधान मंत्री चुना है कोई जादूगर नहीं ---

भारत के लोग बिकी हुई भांड मिडिया के दुष्प्रचार में आकर और ईर्ष्यालु राजनीतिकों के प्रभाव में हर बात पर मोदी को दोष दे रहे हैं| मोदी कोई सर्वव्यापक भगवान या कोई जादूगर नहीं है| पहली बार कोई राष्ट्रवादी प्रधानमन्त्री बना है जो हर दिन १५ घंटों से अधिक राष्ट्रहित में कार्य कर रहा है| उसका कार्य किसी भी अन्य प्रधानमंत्री से श्रेष्ठ रहा है|

मोदी को प्रधानमंत्री बने 1 वर्ष भी नहीं हुआ कि अच्छे दिन का ताना मारने लगे हैं कुछ लोग
अन्य प्रधानमंत्रियों का कार्यकाल देखो ---
1. जवाहरलाल नेहरु 16 वर्ष 286 दिन
2. इंदिरा गाँधी 15 वर्ष 91 दिन
3. राजीव गाँधी 5 वर्ष 32 दिन
4. मनमोहन सिंह 10 वर्ष 4 दिन

कुल मिला कर 47 वर्ष 48 दिन में अच्छे दिनको ढूंढ नहीं सकते और 1 वर्ष में हीं अच्छे दिन चाहिएँ,
ये कैसा न्याय है??? ये कैसी राष्ट्रभक्ति है????

फल खाना है तो पेड़ बड़ा होने दो|
राम मंदिर न बन पाने के लिए क्या मोदी दोषी है?
यदि हाँ तो सोनिया, राहुल, मायावती, मुलायम, लालू, मायावती या नितीश में से किसी को प्रधानमंत्री बना दो| ये सब पूजा का थाल सजाकर राम जी की पूजा को आतुर बैठे हैं| शासन में आते ही एक दिन में राम मंदिर बना देंगे|
भारतवासियों से विनम्र विनतीहै ---- अगर अच्छे दिन चाहिए तो धैर्य रखें, आपने प्रधानमंत्री चुना है कोई जादूगर नहीं|

अच्छे दिन आ जाये हैं, इसी लिए श्री नरेन्द्र मोदी प्रधान मंत्री बने हैं|
जय भारत ||
June 01, 2015.

पूर्णता कहाँ नहीं है ? .....


पूर्णता कहाँ नहीं है ? ......

सारे पूर्णता ही पूर्णता है| सिर्फ हमारी चेतना और समझ में ही अपूर्णता है| परमात्मा की सृष्टि में कहीं भी अपूर्णता तो हो ही नहीं सकती| भगवान ने हमें अपने निज जीवन को सृजन करने की पूरी छूट दे रखी है, जो हमारी ही सृष्टि है| अपूर्णता है तो वह हमारी स्वयं की सृष्टि में ही है| पूरे जीवन भर हम अपने से बाहर पूर्णता ढूँढते रहते हैं, पर पूर्णता का कहीं आभास तक भी नहीं मिलता| पूर्णता कहीं मिलेगी तो अंतर में ही मिलेगी, ऐसा मुझे लगता है|
इस सृष्टि में कुछ भी निःशुल्क नहीं है, हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है| पूर्णता को प्राप्त करने की कीमत भी चुकानी ही पड़ेगी| मुझे लगता है कि पूर्णता की कीमत है .... भगवान की भक्ति और सम्पूर्ण समर्पण| भगवान की भक्ति और समर्पण में ही पूर्णता है|
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ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते पूर्णश्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ ॐ ॐ ॐ ||