Thursday, 1 June 2017

साधना में जप यज्ञ .....

साधना में जप यज्ञ .....
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने "यज्ञानां जपयज्ञोsस्मि" कहा है|
अग्नि पुराण के अनुसार ..... जकारो जन्म विच्छेदः पकारः पाप नाशकः। तस्याज्जप इति प्रोक्तो जन्म पाप विनाशकः || इसका अर्थ है .... ‘ज’ अर्थात् जन्म मरण से छुटकारा, ‘प’ अर्थात् पापों का नाश ..... इन दोनों प्रयोजनों को पूरा कराने वाली साधना को ‘जप’ कहते हैं|
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मेरी सोच है कि कोई भी साधना जितने सूक्ष्म स्तर पर होती है वह उतनी ही फलदायी होती है| जितना हम सूक्ष्म में जाते हैं उतना ही समष्टि का कल्याण कर सकते हैं|

पश्यन्ति और परा देवताओं की बोली है| परा में प्रवेश कर के ही हम समष्टि का वास्तविक कल्याण कर सकते हैं| जप के लिये प्रयुक्त की जाने वाली वाणी का स्तर कैसा हो, इसे हर व्यक्ति अपने अपने स्तर पर ही समझ सकता है|
वाणी के चार क्रम हैं ----- परा, पश्यन्ति, मध्यमा और बैखरी|
जिह्वा से होने वाले शब्दोच्चारण को बैखरी वाणी कहते हैं।
उससे पूर्व जो मन में जो भाव आते हैं वह मध्यमा वाणी है|
मन में भाव उत्पन्न हों, उससे पूर्व वे मानस पटल पर दिखाई भी दें वह पश्यन्ति वाणी है|
और उससे भी परे जहाँ से विचार जन्म लेते हैं वह परा वाणी है|
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विचारों का जन्म क्यों व कैसे होता है? क्या विचार हमारे अपने भावों की ही स्थूल अवस्था है? हमारे भाव कैसे व क्यों बनते हैं, इसे समझने का प्रयास कर रहा हूँ| यह बुद्धि से परे का विषय है|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
०१ जून २०१५

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