Saturday, 29 May 2021

'सिद्धि' शब्द का अर्थ .....

 'सिद्धि' शब्द का अर्थ .....

मैंने एक स्थान पर 'सिद्धि' शब्द का प्रयोग जिस अर्थ में किया, अनेक लोगों ने उस का प्रतिवाद किया| उन सब को बताना चाहता हूँ कि ..... 'सिद्धि' का शाब्दिक अर्थ है - 'पूर्णता', 'प्राप्ति', 'सफलता' आदि। यह शब्द महाभारत में मिलता है। पंचतंत्र में कोई असामान्य कौशल या क्षमता अर्जित करने को 'सिद्धि' कहा गया है। मनुस्मृति में इसका प्रयोग 'ऋण चुकता करने' के अर्थ में हुआ है। योगदर्शन में महर्षि पातंजलि ने आठ सिद्धियाँ बताई हैं .... अणिमा. महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व| भगवत पुराण में भगवान श्रीकृष्ण ने दस सिद्धियाँ बताई हैं..... अनूर्मिमत्वम्, दूरश्रवण, दूरदर्शनम्, मनोजवः, कामरूपम्, परकायाप्रवेशनम्, स्वछन्द मृत्युः, देवानां सह क्रीडा अनुदर्शनम्, यथासंकल्पसंसिद्धिः और आज्ञा अप्रतिहता गतिः| !! इति !!

चीन ने क्या कभी अन्य किसी देश से कोई युद्ध जीता है?

 चीन ने क्या कभी अन्य किसी देश से कोई युद्ध जीता है?

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हमें चीन से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है| आमने सामने की लड़ाई में चीनी सेना भारत की सेना के सामने नहीं टिक सकती| वर्तमान चीन के पास आणविक अस्त्र हैं, यही उसकी शक्ति है| बाकी तो सब उस की दादागिरी है| वह दूसरे देशों पर अपनी संख्या के बल पर धौंस जमाता है| निष्पक्ष दृष्टि से आप चीन का पूरा इतिहास देख लें, चीन ने कभी भी किसी भी देश के विरुद्ध आज तक कोई भी युद्ध नहीं जीता है| चीनी कोई लड़ाकू जाति नहीं है| उनमें क्रूरता ही क्रूरता और धूर्तता भरी हुई है पर उन में साहस नहीं है|
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चीन में जो शक्तिशाली महान शासक हुए वे सब मंगोल थे चीनी नहीँ| अपनी अत्यधिक गतिशील और अनुशासित अश्वारोही सेना के बल पर मंगोलों ने चीन पर लंबे समय तक राज्य किया| चीन का सबसे अधिक शक्तिशाली और महान शासक कुबलई (कैवल्य) खान (कान्ह) था जो चंगेज़ (गंगेश) खान (कान्ह) का पोता था| वह बौद्ध मतानुयायी था जिसका पृथ्वी के २०% भाग पर अधिकार था| चीन की दीवार चीनियों ने मंगोल आक्रमणकारियों से रक्षा के लिए बनवाई थी| पर उस से कोई फर्क नहीं पड़ा| चीन पर अधिकांश समय तक राज्य तो मंगोलों ने ही किया| प्राचीन संस्कृत साहित्य में जिस शिवभक्त किरात जाति का उल्लेख है वह मंगोल जाति ही है|
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चीन पर अंग्रेजों ने बड़ी आसानी से अपनी धूर्तता से अधिकार कर अपना राज्य स्थापित किया| बाद में जापान ने चीन पर क्रूरता से अधिकार किया|
१९६२ में हम चीन से सैनिक दृष्टि से नहीं हारे थे, भारत के राजनीतिक नेतृत्व की अपरिपक्वता और भूलों से हारे थे| भारत ने अपनी हार के कारणों की जांच Lieutenant general Henderson Brooks और Brigadier P S Bhagat (later lieutenant general) से करवाई थी| वह रिपोर्ट इतनी अधिक गोपनीय है कि उसकी सिर्फ एक ही प्रति छपी जिसको पढ़ने का अधिकार सिर्फ प्रधानमंत्री को है| कुछ वर्ष पूर्व एक ऑस्ट्रेलियन पत्रकार Neville Maxwell ने उसके अनेक अंश पता नहीं कैसे लीक कर दिए थे जिन पर ब्रिटेन में एक पुस्तक भी छपी| उस रिपोर्ट में सारा दोष भारत के तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व (प्रधान मंत्री) पर डाला गया था|
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१९६७ में चीन ने एक बार फिर दुःसाहस किया, तब भारतीय सेना ने चीन की सेना को हराकर भगा दिया था| चीनी सैनिक एक तो इस लिए डरते हैं कि वे अपने परिवार के इकलौते पुरुष सदस्य हैं, जिनके मरने पर उनका वंशनाश हो जाएगा| दूसरा उनका भोजन इतना अधिक आसुरी/राक्षसी है कि उनकी कामुकता अत्यधिक प्रबल है जिसके कारण उन में यौन-विकृतियाँ बहुत अधिक हैं| अतः उनमें कोई नैतिक बल और साहस नहीं है| उनकी शक्ति उनके अणुबम ही हैं|
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चीन ने १७ फरवरी १९७९ को वियतनाम पर आक्रमण किया था जो १६ मार्च १९७९ तक चला| चीन की इस यूद्ध मे बुरी तरह से हार हुई और उसके २०,००० सैनिक मारे गए| जब वियतनाम जैसा देश चीन को हरा सकता है तो भारत के सामने चीन की सेना कैसे टिक सकती है?
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चीन की सीमा से १४ देश जुड़े हैं पर २३ देशों से उसके सीमा विवाद चल रहे हैं| उसकी सीमा .... तजाकिस्तान, किर्गिज़स्तान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल, भूटान, म्यांमार, लाओस, वियतनाम, उत्तरी कोरिया, मंगोलिया, रूस, व कजाकिस्तान से लगती है| चीन की सीमायें भले ही सिर्फ १४ देशों के साथ मिलती हैं, लेकिन इसका सीमा विवाद २३ देशों के साथ है| चीन का इन्डोनेशिया, मलेशिया, ब्रुनेई आदि देशों के साथ भी विवाद चल रहा है| चीन मध्ययुग के देश की तरह वर्ताव कर रहा है|
कोरोना वायरस को फैलाना चीन का पूरे विश्व पर एक जैविक आक्रमण है| विश्व के अधिकांश देश मिलकर चीन से बदला तो अवश्य लेंगे|
कृपा शंकर
२९ मई २०२०

हमारी कोई समस्या नहीं है, समस्या हम स्वयं हैं ---

 हमारी कोई समस्या नहीं है, समस्या हम स्वयं हैं ---

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हमारी एकमात्र समस्या --परमात्मा से पृथकता है। यह बिना शरणागति और समर्पण के दूर नहीं होगी। परमात्मा का ध्यान और चिंतन ही सत्संग है। यह सत्संग मिल जाए तो सारी समस्याएँ सृष्टिकर्ता परमात्मा की हो जायें।
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हम साधना करते हैं, मंत्रजाप करते हैं, पर हमें सिद्धि नहीं मिलती। इसका मुख्य कारण है -- असत्यवादन। झूठ बोलने से वाणी दग्ध हो जाती है, और किसी भी स्तर पर मन्त्रजाप का फल नहीं मिलता। इस कारण कोई साधना सफल नहीं होती। सत्य और असत्य के अंतर को शास्त्रों में, और विभिन्न मनीषियों ने स्पष्टता से परिभाषित किया है। सत्य बोलो पर अप्रिय सत्य से मौन अच्छा है। प्राणरक्षा और धर्मरक्षा के लिए बोला गया असत्य भी सत्य है, और जिस से किसी की प्राणहानि और धर्म की ग्लानि हो वह सत्य भी असत्य है। जिस की हम निंदा करते हैं उसके अवगुण हमारे में भी आ जाते हैं| जो लोग झूठे होते हैं, चोरी करते हैं, और दुराचारी होते हैं, वे चाहे जितना मंत्रजाप करें, और चाहे जितनी साधना करें उन्हें कभी कोई सिद्धि नहीं मिलेगी।
ॐ तत्सत्
२९ मई २०१६

"गीता के अनुसार तप" का अर्थ क्या है? ---

 "गीता के अनुसार तप" का अर्थ क्या है? ---

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भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं --
"देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्। ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥१७:१४॥"
अर्थात् -- "देव, द्विज (ब्राह्मण), गुरु और ज्ञानी जनों का पूजन, शौच, आर्जव (सरलता), ब्रह्मचर्य और अहिंसा, यह शरीर संबंधी तप कहा जाता है॥
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भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर ने इसकी व्याख्या यों की है --
"देवाश्च द्विजाश्च गुरवश्च प्राज्ञाश्च देवद्विजगुरुप्राज्ञाः तेषां पूजनं देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनम्? शौचम्? आर्जवम् ऋजुत्वम्? ब्रह्मचर्यम् अहिंसा च शरीरनिर्वर्त्यं शारीरं शरीरप्रधानैः सर्वैरेव कार्यकरणैः कर्त्रादिभिः साध्यं शारीरं तपः उच्यते॥"
अर्थात् -- देव, ब्राह्मण, गुरु, और बुद्धिमान ज्ञानी -- इन सबका पूजन;
शौच (पवित्रता), आर्जव (सरलता), ब्रह्मचर्य और अहिंसा --
ये सब शरीर सम्बन्धी (शरीरद्वारा किये जानेवाले) तप कहे जाते हैं, अर्थात् शरीर जिनमें प्रधान है; ऐसे समस्त कार्य कर्ता द्वारा किये जायें, वे शरीर सम्बन्धी तप कहलाते हैं।

भगवान की भक्ति कभी न मिटने वाले छूत के रोग से भी अधिक संक्रामक है ---

 भगवान की भक्ति कभी न मिटने वाले छूत के रोग से भी अधिक संक्रामक है ---

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उर्दू भाषा का एक शेर है -- "इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया, वर्ना हम भी आदमी थे काम के।" इश्क़ का एक अर्थ भक्ति भी होता है। जो भगवान की भक्ति में पड़ जाता है वह दुनियाँ के किसी काम का नहीं रहता। उसको भगवान के अलावा और कुछ भी दिखाई नहीं देता। भगवान की भक्ति सबसे अधिक संक्रामक छूत का रोग है, जो एक बार लगने के बाद ठीक नहीं होता। कोई इसका उपचार करना चाहे तो चाहकर भी उपचार नहीं कर सकता, क्योंकि उपचार करने वाला स्वयं इसका शिकार हो जाता है। यह भगवान का रास्ता बड़ा खतरनाक है। इसमें थोड़ी दूर चलते ही फिर पीछे दिखना बंद हो जाता है। पीछे लौटना चाहो तो भी नहीं लौट सकते। आस-पास काँटों से भरी हुई खाइयाँ हैं, उनमें भले ही गिर जाओ लेकिन पीछे नहीं लौट सकते। पीछे लौटने के सारे मार्ग बंद होते रहते हैं, जिन पुलों को आप पार करते हो, पार करते ही वे पुल टूट जाते हैं। इस मार्ग का पथिक अन्य किसी भी काम का नहीं रहता।
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जैसे किसी भी शिवालय में नंदी की दृष्टि भगवान शिव की ओर ही निरंतर रहती है, इधर-उधर कहीं भी नहीं घूमती, वैसे ही एक भक्त की दृष्टि सिर्फ भगवान की ओर ही होती है। इधर-उधर कहीं भी नहीं जाती। गुरु-चरणों का ध्यान करते करते भगवान स्वयं सामने आ जाते हैं, और अपना स्वयं का ध्यान करने लगते हैं। सारी साधना वे स्वयं ही करते हैं। भक्त को तो बगल में बैठाकर कह देते हैं --
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥९:३४॥"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥१८:६५॥"
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
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आप जंगल में जा रहे और अचानक सामने से एक शेर आ जाये तो आप क्या कर सकेंगे? जो करना है वह तो शेर ही करेगा। ऐसे ही भगवान जब दृष्टि, दृश्य और दृष्टा बन जाएँ तब जो कुछ भी करना है, वह तो वे ही करेंगे। हम तो निमित्त मात्र है। हमारा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ मई २०२१

तीन अत्यंत महत्वपूर्ण बाते हैं जिनका ध्यान प्रत्येक साधक को रखना चाहिए, अन्यथा शत-प्रतिशत भटकाव निश्चित है ---

तीन अत्यंत महत्वपूर्ण बाते हैं जिनका ध्यान प्रत्येक साधक को रखना चाहिए, अन्यथा शत-प्रतिशत भटकाव निश्चित है ---
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(१) आध्यात्मिक साधना का प्रथम, अंतिम और एकमात्र उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति यानि आत्म-साक्षात्कार है, और कुछ भी नहीं। इस मार्ग में शत-प्रतिशत समर्पण की आवश्यकता है -- परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कोई भी भावना/कामना हृदय या मन में नहीं होनी चाहिए। यश, मान-सम्मान, कीर्ति, प्रसिद्धि, और सिद्धियों को प्राप्त करने की भावना/कामना छोड़नी पड़ेंगी। यदि उपरोक्त में से किसी को भी प्राप्त करने की कामना आप में है तो अन्य बहुत सारे मार्ग आपके लिए हैं, आध्यात्म नहीं। यहाँ भगवान आपका १००% मांगते हैं, ९९.९९% भी नहीं चलेगा। आपका एकमात्र संबंध परमात्मा से है, बाकी अन्य सब रंगमंच के कलाकारों की तरह परमात्मा की अभिव्यक्तियाँ हैं, परमात्मा नहीं।
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(२) अपनी-अपनी गुरु-परंपरा का पूर्ण सम्मान करो। अपनी जो भी आध्यात्मिक समस्या है, उसका समाधान अपनी गुरु-परंपरा में ही करो, उससे बाहर नहीं। जहाँ से आपने आध्यात्मिक दीक्षा ली है, वहीं पर अपनी आध्यात्मिक जिज्ञासा का समाधान करें। इधर-उधर कहीं पर भी न भटकें। अच्छे संत-महात्माओं का सत्संग करें अवश्य, लेकिन सत्संग के लिए ही। मेरा संपर्क भारत की प्रायः सभी आध्यात्मिक परम्पराओं से है, सभी का मैं पूर्ण सम्मान करता हूँ, और प्रायः सभी के महात्माओं का मैंने, खूब सत्संग लाभ लिया है। उन सभी महात्माओं से मुझे बहुत प्रेम भी मिला है। लेकिन ईश्वर-लाभ मुझे मेरे सद्गुरु से ही मिला है।
अब एक अत्यधिक महत्वपूर्ण बात है --
यदि आप पायें कि गुरु का आचरण व उसके विचार गलत हैं, और वह आपको परमात्मा की उपलब्धि नहीं करा सकता तो ससम्मान गुरु का भी त्याग कर दें। सद्गुरु की प्राप्ति साधक को उसके अच्छे कर्मों से ही होती है, अन्यथा नहीं। जैसी आपकी भावना होती है, वैसे ही गुरु मिलेंगे। पर किसी का भी आपको निरादर करने का अधिकार नहीं है।
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(३) मुझे भारत से प्रेम है क्योंकि भारत मेरी पुण्यभूमि है। भगवान की और धर्म की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति भारत में ही हुई है। यह राम और कृष्ण की लीलाभूमि रही है। भगवान के सभी अवतार यहाँ हुए हैं, और सृष्टि के आदिकाल से ही सभी महापुरुषों के चरण कमल इस भूमि पर पड़े हैं।
भारत में और धर्म में कभी अंतर्विरोध नहीं हो सकता क्योंकि सनातन धर्म ही भारत है, और भारत ही सनातन धर्म है।
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब निजात्मगण को सादर नमन!!
(मेरे से वे ही जुड़ें जिनके हृदय में परमात्मा और भारतभूमि से प्रेम है। अन्य सब मुझे unfriend कर के विष (जहर) मिले शहद की तरह त्याग दें। मेरा भी अनमोल समय नष्ट न करें, और अपना भी)
ॐ तत्सत् ||
कृपा शंकर
२९ मई २०२१
पुनश्च :--- उपरोक्त लेख में "गुरु-परंपरा" के स्थान पर "साधना-परंपरा" पढ़ें। इनमें अति अल्प भेद है। "साधना-परंपरा" अधिक उचित शब्द है।