भगवान की भक्ति कभी न मिटने वाले छूत के रोग से भी अधिक संक्रामक है ---
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उर्दू भाषा का एक शेर है -- "इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया, वर्ना हम भी आदमी थे काम के।" इश्क़ का एक अर्थ भक्ति भी होता है। जो भगवान की भक्ति में पड़ जाता है वह दुनियाँ के किसी काम का नहीं रहता। उसको भगवान के अलावा और कुछ भी दिखाई नहीं देता। भगवान की भक्ति सबसे अधिक संक्रामक छूत का रोग है, जो एक बार लगने के बाद ठीक नहीं होता। कोई इसका उपचार करना चाहे तो चाहकर भी उपचार नहीं कर सकता, क्योंकि उपचार करने वाला स्वयं इसका शिकार हो जाता है। यह भगवान का रास्ता बड़ा खतरनाक है। इसमें थोड़ी दूर चलते ही फिर पीछे दिखना बंद हो जाता है। पीछे लौटना चाहो तो भी नहीं लौट सकते। आस-पास काँटों से भरी हुई खाइयाँ हैं, उनमें भले ही गिर जाओ लेकिन पीछे नहीं लौट सकते। पीछे लौटने के सारे मार्ग बंद होते रहते हैं, जिन पुलों को आप पार करते हो, पार करते ही वे पुल टूट जाते हैं। इस मार्ग का पथिक अन्य किसी भी काम का नहीं रहता।
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जैसे किसी भी शिवालय में नंदी की दृष्टि भगवान शिव की ओर ही निरंतर रहती है, इधर-उधर कहीं भी नहीं घूमती, वैसे ही एक भक्त की दृष्टि सिर्फ भगवान की ओर ही होती है। इधर-उधर कहीं भी नहीं जाती। गुरु-चरणों का ध्यान करते करते भगवान स्वयं सामने आ जाते हैं, और अपना स्वयं का ध्यान करने लगते हैं। सारी साधना वे स्वयं ही करते हैं। भक्त को तो बगल में बैठाकर कह देते हैं --
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥९:३४॥"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥१८:६५॥"
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
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आप जंगल में जा रहे और अचानक सामने से एक शेर आ जाये तो आप क्या कर सकेंगे? जो करना है वह तो शेर ही करेगा। ऐसे ही भगवान जब दृष्टि, दृश्य और दृष्टा बन जाएँ तब जो कुछ भी करना है, वह तो वे ही करेंगे। हम तो निमित्त मात्र है। हमारा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ मई २०२१