Wednesday 23 November 2016

जो परमात्मा को उपलब्ध हो गए हैं वे इस पृथ्वी पर देवता है .....

जो परमात्मा को उपलब्ध हो गए हैं वे इस पृथ्वी पर देवता है .....
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जो परमात्मा को उपलब्ध हो गए हैं वे इस पृथ्वी पर देवता है, वे ही ब्राह्मण हैं| यह पृथ्वी उन्हें पाकर धन्य हो जाती है| जहाँ भी उनके चरण पड़ते हैं वह भूमि पवित्र हो जाती है| देवता उन्हें देखकर आनंदित होते हैं, पितृगण उन्हें देखकर नृत्य करते हैं| उनकी सात पीढियाँ तर जाती हैं| उनके चरणों की रज मस्तक पर धारण व स्नान करने योग्य है| वह कुल और वह भूमि धन्य है जहाँ ऐसी आत्माएँ जन्म लेती हैं|
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आप भी परमात्मा को प्राप्त हों| जिस पर भी आपकी दृष्टि पड़े वह तत्क्षण परम प्रेममय हो निहाल हो जाए| जो आपको देखे वह भी तत्क्षण धन्य हो जाए|
आप अपने सर्वव्यापी शिवरूप में स्थित हो सम्पूर्ण समष्टि का कल्याण करने अवतरित हुए हो| आप सामान्य मनुष्य नहीं, परमात्मा की अमृतमय अभिव्यक्ति हो, साक्षात शिव परमब्रह्म हो|

भगवान कहीं आसमान से नहीं उतरने वाले, अपने स्वयं के अन्तर में उन्हें जागृत करना होगा| आप में कूटस्थ ज्योतिर्मय ब्रह्म का आलोक ही बाहर के तिमिर का नाश कर सकता है|
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ॐ तत्सत् | अयमात्माब्रह्म | ॐ ॐ ॐ ||

हे जगन्माता, हमारे जीवन में कहीं भी असत्य, अन्धकार, और अधर्म ना रहे .....

हे जगन्माता, हमारे जीवन में कहीं भी असत्य, अन्धकार, और अधर्म ना रहे .....
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हमें इतनी शक्ति, मार्गदर्शन, प्रेरणा, और सामर्थ्य दो कि हम अपने स्वयं के भीतर के, और हमारे राष्ट्र के भीतर और बाहर के सभी शत्रुओं का नाश कर सकें| हमारे जीवन में कहीं भी असत्य, अन्धकार और अधर्म न रहे| हमारी सभी बुराइयाँ और कमियाँ दूर हों|
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हम तुम्हारे अमृतपुत्र हैं| हम चट्टान की तरह अडिग हों, परशु की तरह तीक्ष्ण हों और स्वर्ण की तरह पवित्र हों| हमारे चरित्र में कोई कमी न हो| अपने आवरण को हटाकर हमारा परमशिव से एकाकार करो| माँ. तुम ही हमारी गति हो| हम तुम्हारी शरणागत हैं हमारा पूर्ण समर्पण स्वीकार करो|
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I am one with Thee. I am a perfect child of Thee. Reveal Thyself unto me. मैं तुम्हारे साथ एक हूँ, तुम्हारा पूर्ण पुत्र हूँ, स्वयं को मुझ में व्यक्त करें|
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ॐ सहना भवतु, सहनो भुनक्तु सहवीर्यं करवावहै ।
तेजस्वीनावधीतमस्तु माविद्विषावहै ॥
ॐ शांति:! शांति: !! शांति !!!
ईश्वर हमारा रक्षण करे - हम सब मिलकर सुख का लाभ ले - एक दुसरे के लाभ हेतु प्रयास करें -हम सबका जीवन तेज से परिपूर्ण हो - परस्पर कोई द्वेष या ईर्षा न हो ॥

ॐ शांति शांति शांति|
ॐ तत्सत् | शिवोहं शिवोहं अयमात्माब्रह्म | ॐ ॐ ॐ ||

जिनके जीवनसाथी भारत में प्रसन्न नहीं हैं वे भारत छोड़कर किसी अन्य देश में चले जाएँ तो राष्ट्र का बड़ा हित होगा .....

जिनके जीवनसाथी भारत में प्रसन्न नहीं हैं वे भारत छोड़कर किसी अन्य देश में चले जाएँ तो राष्ट्र का बड़ा हित होगा .....
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मैं राष्ट्रहित में ही यह लिख रहा हूँ ......
>>>> जिनकी पत्नियाँ या पति भारत में प्रसन्न नहीं हैं वे भारत छोड़कर किसी दूसरे देश में चले जाएँ तो बहुत अच्छा होगा| जो भारत में प्रसन्न नहीं हैं वे चले ही जाएँ| यहाँ बचे सब लोगों का बहुत ही भला होगा| जहाँ प्रसन्नता है वहीँ रहना चाहिए|<<<<
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आज से तीस वर्ष पूर्व की बात है| सन 1985 में जापान के कोबे नगर में एक भारतीय इंजिनियर जो मूल रूप से कोलकाता के थे, से मेरा घनिष्ठ परिचय हुआ| जीवन से वे बड़े असंतुष्ट थे| उनकी असंतुष्टि उनकी जापानी पत्नी से जन्मे दो बड़े बड़े बालकों को वे कैसे संस्कार दें, इस दुविधा के कारण थी| जापान में पैसा तो उन्होंने खूब कमाया और टोक्यो में अपना एक बहुत मंहगा निजी मकान भी खरीद रखा था|
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वे कोलकाता में अपने माता-पिता की सेवा करना चाहते थे और उनके साथ ही रहना चाहते थे| बालकों को भी हिन्दू संस्कार देना चाहते थे| पर उनकी पत्नी न तो भारत में रहने को तैयार थी और न उनके माता-पिता को साथ रखना चाहती थी| बच्चों को भी वह जापानी ही बनाना चाहती थी| अंततः उन्होंने आपस में यह निर्णय लेकर कि बच्चे बड़े होकर स्वयं यह तय करें कि वे कहाँ रहेंगे, बच्चों को पढने अमेरिका में लॉस-एंजिलिस भेज दिया| वे स्वयं वहीँ जापान में प्रसन्न थे अतः अंततः वहीँ के हो गए|
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जिनकी पत्नियाँ या पति भारत में असुरक्षित या भयभीत हैं वे अमेरिका या ब्रिटेन चले जाएँ| अंग्रेजों के साथ वे बड़े सुखी रहेंगे| उन सब को मेरी शुभ कामनाएँ| धन्यवाद|
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पुनश्चः :----- अमेरिका के राष्ट्रपति और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री आपके स्वागत के लिए वहां के हवाईअड्डे पर तैयार खड़े हैं अतः जाने में विलम्ब न करें| धन्यवाद !


24 November 2015

ह्रदय की घनीभूत पीड़ा .... . यह विक्षेप और आवरण क्यों ? ....

ह्रदय की घनीभूत पीड़ा ....
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यह विक्षेप और आवरण क्यों ? ....
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तुम हो, यहीं हो, बिलकुल यहीं हो, निरंतर मेरे साथ हो, समीपतम हो.....
फिर भी यह विक्षेप और आवरण क्यों है ?.....
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(१) मैं और मेरा सोचने वाला यह मन भी तुम हो.
(२) यह सारी समृद्धि भी तुम हो.
(३) ये साँसें भी तुम हो और जो इन्हें ले रहा है वह भी तुम हो.
(४) यह ह्रदय भी तुम हो और जो इसमें धड़क रहा है वह भी तुम हो.
(५) साधना के मार्ग पर साधक, साध्य और साधन भी तुम हो.
(६) कुछ भी करने की प्रेरणा, संकल्प और शक्ति भी तुम हो.
(७) यह भौतिक देह जिन अणुओं से बनी है वे भी तुम हो.
(८) जो इन आँखों से देख रहा है, जो इन कानों से सुन रहा है, और जो इन पैरों से चल रहा है वह भी तुम हो.

तुम्हें समझने के लिए कुछ तो दूरी चाहिए, वह तो हो ही नहीं सकती .....
विवेक अत्यंत सीमित है ... कुछ समझ में नहीं आ रहा है .....आस्था कहती है श्रुतियाँ प्रमाण हैं .... पर उन्हें समझने की क्षमता ही नहीं है ....... ह्रदय में एक प्रचण्ड अग्नि जल रही है ....... अभीप्सा शांत होने का नाम ही नहीं लेती .......
इस अतृप्त अभीप्सा को सिर्फ तुम्हारे प्रेम की शीतलता ही शांत कर सकती है ...........
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हो सकता है तुम परब्रह्म परमात्मा हो..... सकल जगत् के कारण हो ...... स्थिति और संहार करने वाले हो ..... पर मेरे लिए तो तुम मेरे प्रियतम और अभिन्न ही नहीं मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व हो .......
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तुम ही साक्षीस्वरुप हो ..... तुम ही ब्रह्म हो..... मैं अन्य किसी को नहीं जानता ..... और जानने की इच्छा भी नहीं है.....
अब तुम और नहीं छिप सकते ..... इस शांत आकाश में भी नहीं ....... उत्तुंग पर्वतों के शिखरों और उनकी निविड़ गुहाओं में भी नहीं ..... विशाल महासागरों की गहराइयों में भी नहीं .....
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तुम मुझमें ही छिपे हो .......
जहाँ से तुम्हें प्रकट होना ही होगा .......
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हे त्रिपुरहर ..... स्थूल सूक्ष्म और कारण तुम्ही हो ..... जिसको हरणा हो हर लो ..... जो हरणा हो हर लो..... मुझे इनसे कोई मतलब ही नहीं है ..... मतलब सिर्फ तुम्हीं से है .....
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प्रतीक्षा रहेगी..... कब तक छिपोगे? ..... एक न एक दिन तो स्वयं को मुझमें व्यक्त करोगे ही ..... अनंत काल तक प्रतीक्षा करेंगे ......
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ॐ ॐ ॐ शिवोहं शिवोहं अयमात्मा ब्रह्म | ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||

November 23, 2015 at 7:07am

बलि किसकी दें ? .... बलि रहस्य .....

बलि किसकी दें ? .... बलि रहस्य .....
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हम क़ुरबानी या बलि किस की दें ? इस विषय पर विचार करते हैं|
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(1) सर्वप्रथम तो यह स्पष्ट होना चाहिए कि हमारे उपास्य सिर्फ परमात्मा हैं, कोई देवी-देवता नहीं| देवी-देवता इसी सृष्टि के ही भाग हैं और उनका एक निर्धारित कार्य है| यज्ञ में हवि देकर हम उन्हें शक्ति प्रदान कर उनकी सहायता ले सकते हैं, पर उनकी उपासना नहीं| उपासना सिर्फ परमात्मा की ही होती है|
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(2) अपनी वृत्ति को परमात्मा के साथ निरंतर एकाकार करना, यानि अभेदानुसंधान ही उपासना है| इसका शाब्दिक अर्थ है ... पास में बैठना| अकामता ही तृप्ति है| कामना चित्त का धर्म है और उसका आश्रय अंतःकरण है| चित्त की वृत्तियाँ ही वे अज्ञान रूपी पाश हैं जो हमें बाँधकर पशु बनाती हैं| जहाँ इनको आश्रय मिलता है उस अंतःकरण के चार पैर हैं .... मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार|
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(3) ज्ञान रूपी खड़ग से इस अज्ञान रूपी पशु का वध ही वास्तविक बलि देना यानि कुर्बानी है, किसी निरीह प्राणी की ह्त्या नहीं| परमात्मा को पूर्ण समर्पण ही वास्तविक प्रसाद है| इसके लिए किसी श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य से मार्गदर्शन प्राप्त कर उपासना करनी पडती है|
यह है बलि का रहस्य|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

समृद्धि क्या है ? हम समृद्ध कैसे बनें ? ............

समृद्धि क्या है ? हम समृद्ध कैसे बनें ? ............
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भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं की निरंतर आपूर्ति ही समृद्धि है| अभी प्रश्न उठता है की हम समृद्ध कैसे बनें ?
समृद्धि आती है अपनी मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक क्षमताओं को विकसित करने से, अतः इन क्षमताओं को विकसित कर के ही हम समृद्ध बन सकते हैं|
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हमें क्या चाहिए और हम क्या चाहते हैं, इसमें बहुत अधिक अंतर है|
हमें जिस भी वस्तु की या परिस्थिति की आवश्यकता हो वह हमें तुरंत प्राप्त हो जाए यह पर्याप्त है और यही समृद्धि है| अपने अहंकार की तृप्ति के लिए वस्तुओं को और धन को एकत्र करना कोई समृद्धि नहीं है|
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ईमानदारी से रुपये कमाना कोई अपराध नहीं है| अपराध तो बेईमानी से अर्जित करना है| रूपयों का सदुपयोग होना चाहिए| दुरुपयोग से हमें भविष्य में दरिद्रता का दुःख भोगना पड़ता है|
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रुपयों की आवश्यकता तो सब को पडती है चाहे वह साधू, संत, वैरागी हो या गृहस्थ| भूख सब को लगती है, ठण्ड और गर्मी भी सब को लगती है, व बिमार भी सभी पड़ते हैं| भोजन, वस्त्र, निवास और रुग्ण होने पर उपचार के लिए धन आवश्यक है|
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अपनी सारी ऊर्जा धन कमाने में लगा देने वाला कभी सुखी नहीं हो सकता| तरह तरह की बीमारियाँ उसे घेर लेती हैं|
जितना आवश्यक है उतना तो धन सबको कमाना ही चाहिए| पर उसके पश्चात अधिक से अधिक समय परमात्मा के ध्यान में लगाना चाहिए|
आज के युग में समाज अभावग्रस्त है| अतः किसी को समाज पर भार नहीं बनना चाहिए|
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एक आध्यात्मिक पूँजी भी है| उस आध्यात्मिक पूँजी से सम्पन्न होने पर परिस्थितियाँ ऐसी बनती हैं कि भौतिक पूँजी की भी कमी नहीं रहती|
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प्रकृति , उपलब्ध जीवों की आवश्यकतानुसार ही उत्पन्न करती है| हमें जितने की आवश्यकता है , उससे अधिक पर यदि हम अपना अधिकार समझते हैं तो यह एक हिंसा ही है| आवश्यकता से अधिक का संग्रह "परिग्रह" कहलाता है| पाँच यमों (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) में अपरिग्रह भी है, जिनके बिना हम कोई आध्यात्मिक प्रगति नहीं कर सकते|
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सभी को शुभ कामनाएँ | ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

November 22, 2015.

भारत में कभी भी "सती-प्रथा" नहीं थी .....

भारत में कभी भी "सती-प्रथा" नहीं थी ......
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भारत में तथाकथित "सती प्रथा" पर एक बहुत बड़े ऐतिहासिक शोध की आवश्यकता है| हम जो पढ़ रहे हैं वह अंग्रेजों और उनके मानस-पुत्रों का लिखा हुआ इतिहास है जो सत्य नहीं है| इस इतने बड़े असत्य का कारण क्या था इस पर यहाँ कुछ प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है|
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अंग्रेज जब भारत छोड़कर गए तब उन्होंने अपने समय के यथासंभव सारे दस्तावेज, वे सारे सबूत जला कर नष्ट कर दिए जो उनके द्वारा किये हुए जनसंहार, अत्याचार और भारतीयों को बदनाम करने के लिए किये गए कार्यों को सिद्ध कर सकते थे| उन्होंने करोड़ों लोगों की हत्याएँ कीं, दुर्भिक्ष की स्थिति उत्पन्न कर करोड़ों को भूख से मरने को विवश किया और हिंदुत्व को बदनाम करने व भारतीय संस्कृति को नष्ट करने के लिए अनेक दुष्कृत्य किये जैसे भारत की शिक्षा व्यवस्था व कृषि प्रणाली को नष्ट करना, हिन्दू धर्मग्रंथों को प्रक्षिप्त करवाना, झूठा इतिहास लिखवाना, आदि आदि| भारत को बहुत धूर्तता, निर्दयता और क्रूरता से बुरी तरह उन्होंने लूटा| पश्चिम की सारी समृद्धि भारत से लूटे हुए धन के कारण ही है| मूल रूप से वे समुद्री लुटेरे थे और भारत में लुटेरों के रूप में लूटने के उद्देश्य से ही आये थे|
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भारत में अंग्रेज़ी शासन स्थापित करने के पश्चात अँगरेज़ शासकों के समक्ष सबसे बड़ी समस्या थी अँगरेज़ सिपाहियों, कर्मचारियों और अधिकारियों को छुट्टी पर इंग्लैंड बापस जाने से रोकना| वे किसी भी कीमत पर उन्हें यहीं रोकना चाहते थे| इसके लिए उन्होंने भारत में अँगरेज़ कर्मचारियों, अधिकारियों और सिपाहियों के लिए वैश्यालय स्थापित किये| भारत के इतिहास में कभी भी व्यवस्थित रूप से वैश्यावृति नहीं थी, वेश्यालयों की तो भारत में कभी कल्पना भी नहीं की गयी थी|
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अंग्रेजों ने सबसे पहिले अपना शासन वर्त्तमान कोलकाता से आरम्भ किया था अतः अपना शासन स्थापित होते ही उन्होंने कोलकाता के सोनागाछी में एशिया का सबसे बड़ा वैश्यालय स्थापित किया| उनकी सबसे बड़ी छावनी भी बंगाल में ही हुआ करती थी| अब उन्हें वैश्या महिलाओं की आवश्यकता थी, अतः उन्होंने अपने शासन के आरम्भ में बंगाल में किसी भी विधवा हुई महिला को बलात बन्दूक की नोक पर अपहृत कर के वैश्या बनने को बाध्य करना आरम्भ कर दिया| बाद में वे विधिवत रूप से गुपचुप छद्म रूप से भारतीय युवतियों का अपहरण करने लगे और उन्हें वैश्या बनने को बाध्य करने लगे| यह कार्य उन्होंने अति निर्दयता और क्रूरता से किया|
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एक बात पर गौर कीजिये कि तथाकथित सती प्रथा वहीं थी जहां अंग्रेजों की छावनियाँ थीं, अन्य कहीं भी नहीं| इसकी प्रतिक्रया यह हुई कि अपनी रक्षा के लिए हिन्दू समाज ने बाल विवाह आरम्भ कर दिए और विधवाओं की अँगरेज़ सिपाहियों से रक्षा के लिए विधवा दहन आरम्भ कर दिये| पर्दा प्रथा भी यहीं से चली|
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इससे पूर्व भारत में अरब, फारस और मध्य एशिया से आये लुटेरों ने भी यही कार्य किया था पर उन्होंने कभी वैश्यालय स्थापित नहीं किये| वे अपने साथ महिलाओं को तो लाये नहीं थे अतः उन्होंने हिन्दुओं की ह्त्या कर के उनकी महिलाओं का अपहरण कर के उनके साथ अपने घर बसाए| जिन हिन्दुओं की वे ह्त्या करते थे उनकी भूमि और महिलाओं पर अपना अधिकार कर लेते थे|
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अंग्रेजों ने फिर मुम्बई में फारस रोड़ पर और जहाँ जहाँ भी वे गए, वहाँ वहाँ अपने सिपाहियों और कर्मचारियों के लिए वैश्यालय स्थापित किये|
हिन्दू महिलाएँ इन विदेशी आक्रमणकारियों से अपनी रक्षा के लिए ही आत्मदहन को बाध्य होने लगीं|
यह था भारत में तथाकथित सती प्रथा यानि महिला दहन का कारण|
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भारत में राजा राममोहन रॉय को बहुत बड़ा समाज सुधारक बताया जाता है, जो वास्तव में एक झूठ है| निःसंदेह वे बहुत बड़े विद्वान् थे पर अंग्रेजी शासन के सबसे बड़े समर्थक भी थे| अंग्रेजी शासन, अंग्रेजी भाषा एवं अंग्रेजी सभ्यता की प्रशंसा जितनी उन्होंने की उतनी शायद ही किसी अन्य भारतीय ने की होगी| उन्होने स्वतंत्रता आन्दोलन में कोई प्रत्यक्ष भाग नहीं लिया, और उनकी अन्तिम सांस भी ब्रिटेन में ही निकली|
अंग्रेजों ने पुरष्कार में उन्हें बहुत बड़ी जमींदारी दी थी, अतः अपनी जमींदारी को चमकाते हुए भारतीय समाज में हीन भावना भरने का ही कार्य उन्होंने किया| वे अंग्रेजों के अदृष्य सिपाही थे| भारत में अंग्रेजी राज्य और गुलामी को स्थापित करने में उनका बहुत बड़ा योगदान था| वे कभी अंग्रेजों की कूटनीति को समझ नहीं सके और भारत का सही मार्गदर्शन नहीं कर पाए|
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भारत का वर्त्तमान इतिहास भारत के शत्रुओं ने ही लिखा है, जिस पर एक बहुत बड़े शोध और पुनर्लेखन की आवश्यकता है| भारत में सतीप्रथा नाम की कोई प्रथा थी ही नहीं| यह अंग्रेजों और उनके मानसपुत्रों द्वारा फैलाया गया झूठ है कि भारत में कोई सतीप्रथा नाम की कुप्रथा थी| भारत में मध्यकाल में जिन लाखों क्षत्राणियों ने जौहर किया था वह उन्होंने विदेशी अधर्मी आक्रान्ताओं से अपनी रक्षा के लिए किया| आज़ादी के बाद भारत में दो चार घटनाएँ हुईं उनके पीछे का कारण अज्ञान और अशिक्षा ही हो सकता है, अन्य कुछ नहीं|
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भारत का भविष्य बहुत उज्जवल है| एक पुनर्जागरण आरम्भ हो रहा है| आगे आने वाला समय अच्छा ही अच्छा होगा| एक आध्यात्मिक क्रांति का भी आरम्भ हो चुका है और भविष्य में भारत एक आध्यात्मिक राष्ट्र होगा|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

यथा व्रजगोपिकानाम् .....

यथा व्रजगोपिकानाम् .....
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यथा व्रजगोपिकानाम् (जैसे व्रज की गोपिकाएं) ..... यह नारद भक्ति सूत्रों के प्रथम अध्याय का इक्कीसवां सूत्र है|
"गोपी" किसी महिला का नाम नहीं अपितु जो भी श्रीकृष्ण प्रेम अर्थात परमात्मा के प्रेम में स्वयं प्रेममय हो जाए वही "गोपी" है| हर समय निरंतर श्रीकृष्ण अर्थात् परमात्मा का चिंतन ध्यान करने वाले ही गोपी कहलाते हैं| उनका प्रेम गोपनीय यानि किसी भी प्रकार के दिखावे से रहित स्वाभाविक होता है| ऐसी भक्ति के प्राप्त होने पर मनुष्य न किसी वस्तु की इच्छा करता है, न द्वेष करता है, न आसक्त होता है, और न उसे विषय-भोगों में उत्साह होता है|
व्रज .... भक्ति की भावभूमि है|
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जैसी भक्ति व्रज की गोपिकाओं को प्राप्त हुई,वैसी ही भक्ति हम सब को प्राप्त हो| ॐ ॐ ॐ ||

परमात्मा की उपासना मनुष्य का स्वाभाविक धर्म है .....

परमात्मा की उपासना मनुष्य का स्वाभाविक धर्म है .....
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ईश्वर उपासना मनुष्य का स्वभाविक धर्म है, वैसे ही जैसे नदियों का धर्म महासागर में मिल जाना है| कोई भी नदी जब तक महासागर में नहीं मिलती तब तक चंचल और बेचैन रहती है| समुद्र में मिलते ही नदी समुद्र के साथ एक हो जाती है| उपासना विकास की प्रक्रिया है, जो शरणागति और समर्पण द्वारा मनुष्य को परमात्मा से एकाकार कर देती है|

एक बार परमात्मा से परम प्रेम हो जाए फिर आगे का मार्ग स्वतः ही प्रशस्त हो जाता है| ॐ ॐ ॐ ||

यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति .....

यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति .....
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यह नारद भक्ति सूत्र के प्रथम अध्याय का छठा सूत्र है जो एक भक्त की तीन अवस्थाओं के बारे में बताता है| उस परम प्रेम रूपी परमात्मा को जानकर यानि पाकर भक्त प्रेमी पहिले तो मत्त हो जाता है, फिर स्तब्ध हो जाता है और अंत में आत्माराम हो जाता है, यानि आत्मा में रमण करने लगता है|

शाण्डिल्य सूत्रों के अनुसार आत्म-तत्व की ओर ले जाने वाले विषयों में अनुराग ही भक्ति है| भक्त का आत्माराम हो जाना निश्चित है|
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जो भी अपनी आत्मा में रमण करता है उसके लिये "मैं" शब्द का कोई अस्तित्व नहीं होता|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

साधू, सावधान ! ,,,,,

साधू, सावधान !
मैं जब परमात्मा के अतिरिक्त अन्य बातों पर अधिक ध्यान देता हूँ तो यह माया की महिमा ही है जो मुझे भटका रही है|

वास्तव में मेरे अन्तःकरण में सिवाय परमात्मा के अन्य कुछ भी नहीं रहना चाहिए|
मैं जब अन्य बातें करता हूँ तब यह मेरा भटकाव ही है| अब निरंतर सावधान रहना होगा| साधू, सावधान !
यह "मैं" भी एक भटकाव है क्योंकि जो आत्मा में रमण करता है उसके लिए "मैं" का कोई महत्व नहीं है|

(मेरी अच्छी बातों पर ही ध्यान दीजिये, बुरी बातों पर नहीं | परमात्मा के विस्मरण से बुरी बात अन्य कोई नहीं है|)

संधिक्षणों में सर्वश्रेष्ठ क्षण ......

पुनर्प्रेषित (Re posted)
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संधिक्षणों में सर्वश्रेष्ठ क्षण ......
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"संध्या" हमारी साधना का सर्वश्रेष्ठ शुभ मुहूर्त होता है|
संधिक्षणों में की गयी साधना को "संध्या" कहते हैं|
संधिक्षणों में मन्त्रचेतना अति प्रबल रहती है और साधना में सिद्धि भी आसानी से मिल जाती है|
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प्रातःकाल , मध्याह्न, सायंकाल, और मध्यरात्रि ये चार सन्धिक्षण संध्याकाल कहलाते हैं|
इन चारों में मध्यरात्रि की संध्या सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिक फलदायी है| इसे तुरीय संध्या भी कहते हैं| रात्रि को घर के सब सदस्य जब सो जाएँ तब घर में किसी भी प्रकार का शोरगुल या व्यवधान नहीं होता| अर्धरात्रि वैसे भी निःस्तब्ध और शांत होती है| उस समय चुपके से उठकर एकांत में बैठकर पूर्ण भक्ति से परमात्मा का ध्यान करना चाहिए| जो मंत्रसाधना करते हैं उन्हें इस काल में खूब मंत्र जपना चाहिए|
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जब परमात्मा के प्रति अहैतुकी परमप्रेम जागृत हो जाए तब कर्मकांड का कोई महत्व नहीं है| शरणागत होकर पूर्ण प्रेम (भक्ति) से समर्पित होने का निरंतर प्रयास ही साधना है| परमात्मा को उपलब्ध होने के अतिरिक्त हमें और कुछ भी नहीं चाहिए| हमारा समर्पण सिर्फ परमात्मा के प्रति है| किसी भी तरह की अन्य कोई कामना आये तो उसे विष के सामान त्याग देना चाहिए| परमात्मा की इच्छा ही हमारी इच्छा है और उसकी कामना ही हमारी कामना है|
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साधना में कोई भी कठिनाई आये तो उसके निराकरण के लिए भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए| प्रभु का चिंतन और ध्यान इतना गहन हो कि प्रभु ही हमारी चिंता करें| हमारी चिंता सिर्फ प्रभु की ही हो|
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परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी ना देखें, अन्य कहीं भी दृष्टी ना डालें, हमारा ज्वलन्त लक्ष्य सदा हमारे सामने रहे| साधना इतनी गहन हो कि साध्य, साधन और साधक एक हो जाएँ| कहीं भी कोई भेद ना रहे| शुभ कामनाएँ|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||


पुनश्चः :---- आते-जाते और जाते-आते साँस के मध्य का क्षण भी योगियों के लिए सन्धिक्षण होता है| इसलिए हर साँस पर परमात्मा का ध्यान होना चाहिए|

19 नवम्बर 2015

सामूहिक प्रार्थना ......

सामूहिक प्रार्थना ......
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प्रार्थना की एक विधि है जो बहुत प्रभावी है| सामान्यतः प्रार्थना जन कल्याण के लिए ही होती है| हम समष्टि का यानि सभी का भला चाहते हैं इसीलिए प्रार्थना करते हैं| समष्टि के कल्याण में ही हमारा कल्याण है|
उपास्य देव को या किसी को नमन और प्रार्थना करने के लिए परम्परागत रूप से हम हाथों को जोड़कर गले के सामने लाते हैं और सिर झुकाते हैं|
 

ध्यान दीजिये जब हम हाथ जोड़ते हैं तब दोनों हाथ विशुद्धि चक्र के सामने होते हैं, और सिर झुकाते ही अंगूठे स्वतः ही भ्रूमध्य को स्पर्श कर जाते हैं|
उस समय अनायास ही हमारी अँगुलियों से सूक्ष्म स्पस्न्दन सामने उपास्य तक निश्चित पहुँच जाते हैं|

जब हम बहुत भाव विह्वल होकर प्रार्थना करते हैं तब हमारे दोनों हाथ अपने आप ही ऊपर उठ जाते हैं, जैसे "जय जय श्री राधे" या "हर हर महादेव" बोलते समय हो जाते हैं| उस समय हमारी अँगुलियों से दिव्य स्पंदन निकल कर ब्रह्मांड में फ़ैल जाते हैं और सभी का भला करते हैं| इस विधि का प्रयोग प्रायः मैं नित्य करता हूँ और बड़ी अच्छी अनुभूतियाँ होती हैं|

उपरोक्त प्रक्रिया की वैज्ञानिकता पर विचार कर के मैं इस निर्णय पर पहुँचा हूँ......
अनाहत चक्र और आज्ञाचक्र के मध्य का क्षेत्र एक गहन चुम्बकीय क्षेत्र है| इसके मध्य में हम यदि हथेलियों का घर्षण करेंगे या एक दुसरे के चारों ओर चक्राकार तीब्र गति से घुमाएँगे तो हमारी अँगुलियों में एक विद्युत ऊर्जा उत्पन्न होती है, यानि एक सूक्ष्म electromotive force का induction होता है|
इस अवधि में हमारी दृष्टी भ्रूमध्य पर होनी चाहिए| जब हमें लगे कि हमारी अंगुलियाँ ऊर्जा से भर गयी हैं, तब हम अपने दोनों हाथों को ऊपर उठायें और ओम् की ध्वनी के साथ उस ऊर्जा को किसी संकल्प के साथ छोड़ दें| उसी समय से वह संकल्प पूरा होना आरम्भ हो जाएगा| यह संकल्प हम जन-कल्याण के लिए भी कर सकते हैं और किसी को रोग मुक्त करने के लिए भी| यह प्रयोग समष्टि के कल्याण हेतु नित्य कीजिये| समष्टि के कल्याण में ही हमारा कल्याण है|

यदि हम एक समूह में खड़े होकर नित्य एक निश्चित समय पर उपरोक्त विधि से समष्टि के कल्याण के लिए परमात्मा से प्रार्थना करेंगे तो हमारी प्रार्थनाएँ भी प्रभावी होंगी और हम परमात्मा के उपकरण भी होंगे| सच्चे ह्रदय से की गयी सामूहिक प्रार्थनाएँ बहुत अधिक प्रभावी होती हैं| जितना हम देंगे उससे अधिक प्राप्त करेंगे|

ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

विश्व के विनाश और तृतीय विश्वयुद्ध या भविष्य में होने वाले किसी भी युद्ध का कारण मनुष्य का द्वेष (घृणा) और लोभ होगा .....

विश्व के विनाश और तृतीय विश्वयुद्ध या भविष्य में होने वाले किसी भी युद्ध का कारण मनुष्य का द्वेष (घृणा) और लोभ होगा .....
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यह लेख लिखते समय मेरे मन में किसी के प्रति भी कोई दुराग्रह, लोभ, घृणा या कोई द्वेष नहीं है| पूर्ण जिम्मेदारी और अपने निज अनुभवों से लिख रहा हूँ| मुझे योरोप के अनेक देशों, अमेरिका, कनाडा, और मुस्लिम देशों में सऊदी अरब, मिश्र, तुर्की, मोरक्को और दक्षिणी यमन जाने का अवसर मिला है| एशिया के मुस्लिम देशों में बांग्लादेश, मलेशिया और इंडोनेशिया भी जाने का अवसर मिला है| पूर्व सोवियत संघ में मध्य एशिया के अनेक मुसलमानों से मेरा परिचय था| मैंने रूसी भाषा जिस अध्यापिका से सीखी वह एक तातार मुसलमान थी| युक्रेन के ओडेसा नगर में एक अति विदुषी वयोवृद्ध तातार मुस्लिम महिला ने मुझे एक बार भोजन पर अपने घर निमंत्रित किया था| ये महिला दस वर्ष तक चीन में एक राजनीतिक बंदी रह चुकी थी| उनसे काफी कुछ जानने का अवसर मिला| अतः मैं योरोप के देशों और मुस्लिम विश्व की मानसिकता को बहुत अच्छी तरह समझता हूँ और अपने अध्ययन से प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व की स्थिति से भी अवगत हूँ| आज लगभग वैसी ही स्थिति बन रही है जो प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व थी| विश्व के भूगोल का भी मुझे बहुत अच्छा ज्ञान है और विश्व के इतिहास का भी अल्प अध्ययन है|
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इस समय पृथ्वी पर दो तरह की शक्तियां काम कर रही हैं ..... एक तो वह जो विश्व को युद्ध में धकेलना चाहती है, और दूसरी वह जो युद्ध को टालना चाहती है| वर्तमान में मनुष्य की मानसिकता, चिंतन और विचार इतने दूषित हो गए हैं कि युद्ध अपरिहार्य सा ही लगता है| अपने विचारों और सोच को सात्विक बना कर ही हम विनाश को टाल सकते हैं| अन्य कोई उपाय नहीं है|
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कोई मेरी बात को माने या न माने पर यह सत्य है कि विश्व की दुर्गति का एकमात्र कारण मनुष्य जाति के हिंसा, लोभ, अहंकार और वासना के भाव ही हैं| मनुष्य इतना हिंसक और भोगी हो गया है कि वह स्वयं ही स्वयं के विनाश को आमंत्रित कर रहा है| मनुष्य का स्वार्थी होना भी प्रबल हिंसा ही है|
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कोई भी विचार और संकल्प जिस पर आप दृढ़ रहते हैं वह विश्व के घटनाक्रम पर निश्चित रूप से प्रभाव डालता है|
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वर्तमान में विश्व में हो रहा घटनाक्रम तृतीय विश्वयुद्ध का कारण बन सकता है| अमेरिका के स्वार्थ इतने अधिक हैं कि वह भविष्य में युद्ध को नहीं टाल पायेगा| जर्मनी की आतंरिक परिस्थितियाँ उसे तटस्थ रखेंगी| जर्मनी में इस समय इतनी क्षमता नहीं है कि वह कोई युद्ध लड़ सके|
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इस समय मध्य पूर्व में तनाव का कारण .....
शिया और सुन्नी मुसलमानों के बीच की घृणा,
जेहादी मानसिकता,
ईसाइयों व मुसलमानों में द्वेष,
और पश्चिमी देशों व अमेरिका की तेल के स्त्रोतों पर अधिकार बनाए रखने की लालसा है|
इसी तरह दक्षिण चीन सागर में उस क्षेत्र के देशों के आर्थिक हित आपस में टकरा रहे हैं जो कभी भी युद्ध का कारण बन सकते हैं| भारत के भी आर्थिक हित उस क्षेत्र में हैं|
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अमेरिका व कुछ पश्चिमी देशों ने तेल उत्पादक देशों पर अपना वर्चस्व बनाकर रखा है| ये चाहते हैं कि जब तक यहाँ पर तेल है तब तक इनका वर्चस्व बना रहे| वे अरब देशों को बहुत बुरी तरह निचोड़ कर ही छोड़ेंगे|
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इराक में शिया वहाँ की कुल आबादी का लगभग पैंसठ प्रतिशत हैं, पर विगत में वहाँ का शासन सुन्नियों के हाथों में रहा था जिन्होंने शियाओं को दबाकर रखा| जब ईरान में इस्लामी क्रांति हुई तब वहाँ के नए शासकों ने वहाँ के राजा शाह पहलवी को तो भगा ही दिया, साथ साथ अमेरिका को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया| अमेरिका ने अपमानित महसूस कर ईरान से बदला लेने के लिए इराक को भारी मात्रा में हथियार दिए और शतअलअरब पर अधिकार के लिए इराक व ईरान को आपस में लड़ाया जिसमें दोनों देशों के अनगिनत लाखों लोग मारे गए| इस युद्ध से किसी को भी लाभ नहीं हुआ था| इराक को अमेरिका ने ही शक्तिशाली बनाया था| जब इराक ने अमेरिकी वर्चस्व को मानने से मना कर दिया तो अमेरिका ने बिलकुल झूठे बहाने बनाकर ईराक पर आक्रमण कर दिया और उस देश को बर्बाद कर दिया| इससे पूर्व के घटनाक्रम में इराक को कुवैत पर अधिकार करने के लिए भी अमेरिका ने ही उकसाया था| अमेरिका के झाँसे में आकर इराक ने कुवैत पर अधिकार कर लिया जिससे अमेरिका को इराक पर आक्रमण करने का बहाना मिल गया| उस युद्ध में अमेरिका ने एक पाई भी खर्च नहीं की, सारा खर्च सऊदी अरब से वसूल किया| अपने देश के जनमत के दबाब के कारण अमेरिका जब इराक से हटा तो वहाँ चुनाव करवाए जिससे बहुमत के कारण शिया लोगों का शासन स्थापित हो गया और सुन्नियों में असंतोष फ़ैल गया|
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सीरिया में स्थिति इसके विपरीत है| वहाँ सुन्नी बहुमत है पर शासन एक शिया तानाशाह असद के हाथ में है जो सुन्नियों को क्रूरता से दबा कर रखता है| सुन्नियों ने असद के विरुद्ध विद्रोह किया| अमेरिका भी असद को हटाना चाहता है इसलिए उसने सुन्नियों की सहायता की| पर असद ने अपने समर्थन में अमेरिका के प्रतिद्वंद्वी रूस को अपने देश में बुला लिया| रूस ने सीरिया में अपने सैन्य अड्डे स्थापित कर लिए और खुल कर असद के समर्थन में आ गया| अप्रत्यक्ष रूप से इस कार्य में ईरान ने पूरा सहयोग किया|
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असद के विरोध में अमेरिका ने सीरिया के सुन्नी मुसलमानों को उकसाया जिन्होनें इराक के सुन्नी मुसलमानों के साथ मिलकर ISIS (इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक एंड सीरिया) की स्थापना कर ली| इस दुर्दांत आतंकी संगठन को आरम्भ में शस्त्रास्त्र अमेरिका ने ही दिए| ISIS अमेरिका की सहायता से खूब शक्तिशाली बन गया| उसने सीरिया और इराक के बहुत बड़े भूभाग और तेल के कुओं पर अधिकार कर लिया और बहुत समृद्ध और प्रभावशाली बन गया|
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ISIS ने इराक की सेना को भगा दिया और उसके हज़ारों शिया सैनिकों की ह्त्या कर दी| फिर शक्तिशाली होकर ISIS अपनी मनमानी पर उतर आया और उसने शिया व अन्य गैर सुन्नियों की ह्त्या का अभियान चला दिया| उसने लाखों शियाओं, यज़ीदियों और कुर्दों की निर्ममता से ह्त्या कर दी व उनकी महिलाओं और बच्चों को गुलाम बनाकर बेच दिया| इससे शिया और सुन्नियों में एक स्थायी विभाजन और घृणा हो गयी है|
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ISIS यहीं पर नहीं रुका| उसने अपने नक्शों में पूरा योरोप, भारत, श्रीलंका, म्यांमार और थाईलैंड तक को दिखा दिया और पूरे विश्व पर वहाबी सुन्नियों के राज्य का संकल्प कर डाला| ISIS का लक्ष्य है कि या तो सभी उसके अनुयायी बन जाएँ या उसके गुलाम बनने या मरने के लिए तैयार हो जाएँ| उसका लक्ष्य सम्पूर्ण विश्व पर अपनी सत्ता स्थापित करने का है|
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जब उसने ईसाइयों की ह्त्या करनी आरम्भ कर दी तब अमेरिका ने उसके विरुद्ध आधे मन से कारवाई आरम्भ कर दी| अमेरिका कभी भी ISIS को समाप्त नहीं करना चाहता था, वह सिर्फ उसका उपयोग करना चाहता था| यहाँ यह बताना चाहूंगा कि जब लेबनान के गृहयुद्ध में अधिकांश ईसाईयों की वहाँ के मुस्लिम चरम पंथियों ने ह्त्या कर दी थी तब से योरोप में ईसाईयों और मुसलमानों के मध्य में भी घृणा की एक दीवार खिंच गयी है|
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एक बार दो बिल्लियाँ एक रोटी के लिए लड़ पड़ीं| उन्होंने एक बन्दर को आधी आधी रोटी बराबर बाँटने के लिए न्यायाधीश बनाया| बन्दर ने वह रोटी आधी आधी कर के एक तराजू के दोनों पलड़ों पर रख दी| जिधर पलड़ा भारी होता उधर से बन्दर रोटी तोड़ कर खा जाता| इस तरह बन्दर सारी रोटी खा गया और बिल्लियों को कुछ भी नहीं मिला| इस कहानी से आप सब कुछ समझ सकते हैं| अमेरिका वह पुलिस और न्यायाधीश है जो दुनिया को लड़ाकर उनसे कमाई कर रहा है|
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इस लेख में मैंने कम से कम शब्दों में मध्यपूर्व की स्थिति को स्पष्ट कर दिया है जो एक विश्व युद्ध में बदल सकती है| एक बात याद रखें कि जो दूसरों को तलवार से काटता है वह स्वयं भी तलवार से ही काटा जाता है|
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जो सर्वश्रेष्ठ योगदान आप कर सकते हो वह यह है कि .....
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(१) भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से आप स्वयं शक्तिशाली बनो| भगवान सिर्फ मार्गदर्शन कर सकते हैं, शक्ति दे सकते हैं पर आपको स्वयं की रक्षा तो स्वयं को ही करनी होगी| अलग से आपकी रक्षा के लिए भगवान नहीं आयेंगे| भगवान उसी की रक्षा करेंगे जो स्वयं की रक्षा करेगा|
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(२) स्वयं के जीवन में परमात्मा को केंद्रबिंदु बनाओ| राग, द्वेष और अहंकार से ऊपर उठकर निरंतर परमात्मा की चेतना में रहने का अभ्यास करो|
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(३) नित्य समष्टि यानि सब के कल्याण के लिए भगवान से प्रार्थना करो|
जब अनेक लोग मिलकर एक साथ अपने हाथ उठाकर सब के कल्याण की प्रार्थना करते हैं तब निश्चित रूप से उसका प्रभाव पड़ता है|
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सबका कल्याण हो, सब सुखी रहें, कोई भूखा, बीमार या दरिद्र न रहे | सब में पारस्परिक सद्भाव और प्रेम हो | सब में प्रभु के प्रति अहैतुकी परम प्रेम जागृत हो |
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ॐ विश्वानि देव सवितः दुरितानि परासुव यद् भद्रं तन्न्वासुव | ॐ शांति शांति शांतिः ||
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कृपा शंकर
१८ नवम्बर २०१५

मात्र आध्यात्मिक/धार्मिक पुस्तकें/लेख पढने से या मात्र प्रवचन सुनने से कुछ नहीं होगा .....

मात्र आध्यात्मिक/धार्मिक पुस्तकें/लेख पढने से या मात्र प्रवचन सुनने से कुछ नहीं होगा|
सत्य का बोध स्वयं करना होगा, दूसरा कोई यह नहीं करा सकता|
माया के वशीभूत होकर हम निरंतर भ्रमित हो रहे हैं|
सच्चिदानंद के प्रति पूर्ण परम प्रेम जागृत कर उनको पूर्ण समर्पित होने का निरंतर प्रयास ही साधना है और पूर्ण समर्पण ही लक्ष्य है|
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नित्य नियमित ध्यान साधना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है| अन्यथा परमात्मा को पाने की इच्छा ही समाप्त हो जाती है| मन पर निरंतर मैल चढ़ता रहता है जिस की नित्य सफाई आवश्यक है|
सप्ताह में एक दिन (हो सके तो गुरुवार को) अन्य दिनों से कुछ अधिक ही समय परमात्मा को देना चाहिए| जो भी समय हम परमात्मा के साथ बिताते हैं, वह सबसे अधिक मुल्यवान है| अतः कुछ अधिक समय अपनी व्यक्तिगत साधना में बिताएँ|
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हे सच्चिदानंद गुरु रूप परम ब्रह्म आपको नमन !
मेरे कूटस्थ चैतन्य में आप निरंतर हैं| मेरी हर साँस, मेरी हर सोच, मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व आप ही हैं| आपको बारंबार नमन !

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||