यथा व्रजगोपिकानाम् .....
यथा व्रजगोपिकानाम् (जैसे व्रज की गोपिकाएं) ..... यह नारद भक्ति सूत्रों के प्रथम अध्याय का इक्कीसवां सूत्र है|
"गोपी" किसी महिला का नाम नहीं अपितु जो भी श्रीकृष्ण प्रेम अर्थात परमात्मा के प्रेम में स्वयं प्रेममय हो जाए वही "गोपी" है| हर समय निरंतर श्रीकृष्ण अर्थात् परमात्मा का चिंतन ध्यान करने वाले ही गोपी कहलाते हैं| उनका प्रेम गोपनीय यानि किसी भी प्रकार के दिखावे से रहित स्वाभाविक होता है| ऐसी भक्ति के प्राप्त होने पर मनुष्य न किसी वस्तु की इच्छा करता है, न द्वेष करता है, न आसक्त होता है, और न उसे विषय-भोगों में उत्साह होता है|
व्रज .... भक्ति की भावभूमि है|
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जैसी भक्ति व्रज की गोपिकाओं को प्राप्त हुई,वैसी ही भक्ति हम सब को प्राप्त हो| ॐ ॐ ॐ ||
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