समृद्धि क्या है ? हम समृद्ध कैसे बनें ? ............
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भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं की निरंतर आपूर्ति ही समृद्धि है| अभी प्रश्न उठता है की हम समृद्ध कैसे बनें ?
समृद्धि आती है अपनी मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक क्षमताओं को विकसित करने से, अतः इन क्षमताओं को विकसित कर के ही हम समृद्ध बन सकते हैं|
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हमें क्या चाहिए और हम क्या चाहते हैं, इसमें बहुत अधिक अंतर है|
हमें जिस भी वस्तु की या परिस्थिति की आवश्यकता हो वह हमें तुरंत प्राप्त हो जाए यह पर्याप्त है और यही समृद्धि है| अपने अहंकार की तृप्ति के लिए वस्तुओं को और धन को एकत्र करना कोई समृद्धि नहीं है|
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ईमानदारी से रुपये कमाना कोई अपराध नहीं है| अपराध तो बेईमानी से अर्जित करना है| रूपयों का सदुपयोग होना चाहिए| दुरुपयोग से हमें भविष्य में दरिद्रता का दुःख भोगना पड़ता है|
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रुपयों की आवश्यकता तो सब को पडती है चाहे वह साधू, संत, वैरागी हो या गृहस्थ| भूख सब को लगती है, ठण्ड और गर्मी भी सब को लगती है, व बिमार भी सभी पड़ते हैं| भोजन, वस्त्र, निवास और रुग्ण होने पर उपचार के लिए धन आवश्यक है|
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अपनी सारी ऊर्जा धन कमाने में लगा देने वाला कभी सुखी नहीं हो सकता| तरह तरह की बीमारियाँ उसे घेर लेती हैं|
जितना आवश्यक है उतना तो धन सबको कमाना ही चाहिए| पर उसके पश्चात अधिक से अधिक समय परमात्मा के ध्यान में लगाना चाहिए|
आज के युग में समाज अभावग्रस्त है| अतः किसी को समाज पर भार नहीं बनना चाहिए|
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एक आध्यात्मिक पूँजी भी है| उस आध्यात्मिक पूँजी से सम्पन्न होने पर परिस्थितियाँ ऐसी बनती हैं कि भौतिक पूँजी की भी कमी नहीं रहती|
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प्रकृति , उपलब्ध जीवों की आवश्यकतानुसार ही उत्पन्न करती है| हमें जितने की आवश्यकता है , उससे अधिक पर यदि हम अपना अधिकार समझते हैं तो यह एक हिंसा ही है| आवश्यकता से अधिक का संग्रह "परिग्रह" कहलाता है| पाँच यमों (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) में अपरिग्रह भी है, जिनके बिना हम कोई आध्यात्मिक प्रगति नहीं कर सकते|
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सभी को शुभ कामनाएँ | ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
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भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं की निरंतर आपूर्ति ही समृद्धि है| अभी प्रश्न उठता है की हम समृद्ध कैसे बनें ?
समृद्धि आती है अपनी मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक क्षमताओं को विकसित करने से, अतः इन क्षमताओं को विकसित कर के ही हम समृद्ध बन सकते हैं|
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हमें क्या चाहिए और हम क्या चाहते हैं, इसमें बहुत अधिक अंतर है|
हमें जिस भी वस्तु की या परिस्थिति की आवश्यकता हो वह हमें तुरंत प्राप्त हो जाए यह पर्याप्त है और यही समृद्धि है| अपने अहंकार की तृप्ति के लिए वस्तुओं को और धन को एकत्र करना कोई समृद्धि नहीं है|
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ईमानदारी से रुपये कमाना कोई अपराध नहीं है| अपराध तो बेईमानी से अर्जित करना है| रूपयों का सदुपयोग होना चाहिए| दुरुपयोग से हमें भविष्य में दरिद्रता का दुःख भोगना पड़ता है|
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रुपयों की आवश्यकता तो सब को पडती है चाहे वह साधू, संत, वैरागी हो या गृहस्थ| भूख सब को लगती है, ठण्ड और गर्मी भी सब को लगती है, व बिमार भी सभी पड़ते हैं| भोजन, वस्त्र, निवास और रुग्ण होने पर उपचार के लिए धन आवश्यक है|
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अपनी सारी ऊर्जा धन कमाने में लगा देने वाला कभी सुखी नहीं हो सकता| तरह तरह की बीमारियाँ उसे घेर लेती हैं|
जितना आवश्यक है उतना तो धन सबको कमाना ही चाहिए| पर उसके पश्चात अधिक से अधिक समय परमात्मा के ध्यान में लगाना चाहिए|
आज के युग में समाज अभावग्रस्त है| अतः किसी को समाज पर भार नहीं बनना चाहिए|
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एक आध्यात्मिक पूँजी भी है| उस आध्यात्मिक पूँजी से सम्पन्न होने पर परिस्थितियाँ ऐसी बनती हैं कि भौतिक पूँजी की भी कमी नहीं रहती|
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प्रकृति , उपलब्ध जीवों की आवश्यकतानुसार ही उत्पन्न करती है| हमें जितने की आवश्यकता है , उससे अधिक पर यदि हम अपना अधिकार समझते हैं तो यह एक हिंसा ही है| आवश्यकता से अधिक का संग्रह "परिग्रह" कहलाता है| पाँच यमों (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) में अपरिग्रह भी है, जिनके बिना हम कोई आध्यात्मिक प्रगति नहीं कर सकते|
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सभी को शुभ कामनाएँ | ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
November 22, 2015.
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