ह्रदय की घनीभूत पीड़ा ....
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यह विक्षेप और आवरण क्यों ? ....
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तुम हो, यहीं हो, बिलकुल यहीं हो, निरंतर मेरे साथ हो, समीपतम हो.....
फिर भी यह विक्षेप और आवरण क्यों है ?.....
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(१) मैं और मेरा सोचने वाला यह मन भी तुम हो.
(२) यह सारी समृद्धि भी तुम हो.
(३) ये साँसें भी तुम हो और जो इन्हें ले रहा है वह भी तुम हो.
(४) यह ह्रदय भी तुम हो और जो इसमें धड़क रहा है वह भी तुम हो.
(५) साधना के मार्ग पर साधक, साध्य और साधन भी तुम हो.
(६) कुछ भी करने की प्रेरणा, संकल्प और शक्ति भी तुम हो.
(७) यह भौतिक देह जिन अणुओं से बनी है वे भी तुम हो.
(८) जो इन आँखों से देख रहा है, जो इन कानों से सुन रहा है, और जो इन पैरों से चल रहा है वह भी तुम हो.
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यह विक्षेप और आवरण क्यों ? ....
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तुम हो, यहीं हो, बिलकुल यहीं हो, निरंतर मेरे साथ हो, समीपतम हो.....
फिर भी यह विक्षेप और आवरण क्यों है ?.....
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(१) मैं और मेरा सोचने वाला यह मन भी तुम हो.
(२) यह सारी समृद्धि भी तुम हो.
(३) ये साँसें भी तुम हो और जो इन्हें ले रहा है वह भी तुम हो.
(४) यह ह्रदय भी तुम हो और जो इसमें धड़क रहा है वह भी तुम हो.
(५) साधना के मार्ग पर साधक, साध्य और साधन भी तुम हो.
(६) कुछ भी करने की प्रेरणा, संकल्प और शक्ति भी तुम हो.
(७) यह भौतिक देह जिन अणुओं से बनी है वे भी तुम हो.
(८) जो इन आँखों से देख रहा है, जो इन कानों से सुन रहा है, और जो इन पैरों से चल रहा है वह भी तुम हो.
तुम्हें समझने के लिए कुछ तो दूरी चाहिए, वह तो हो ही नहीं सकती .....
विवेक अत्यंत सीमित है ... कुछ समझ में नहीं आ रहा है .....आस्था कहती है श्रुतियाँ प्रमाण हैं .... पर उन्हें समझने की क्षमता ही नहीं है ....... ह्रदय में एक प्रचण्ड अग्नि जल रही है ....... अभीप्सा शांत होने का नाम ही नहीं लेती .......
इस अतृप्त अभीप्सा को सिर्फ तुम्हारे प्रेम की शीतलता ही शांत कर सकती है ...........
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हो सकता है तुम परब्रह्म परमात्मा हो..... सकल जगत् के कारण हो ...... स्थिति और संहार करने वाले हो ..... पर मेरे लिए तो तुम मेरे प्रियतम और अभिन्न ही नहीं मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व हो .......
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तुम ही साक्षीस्वरुप हो ..... तुम ही ब्रह्म हो..... मैं अन्य किसी को नहीं जानता ..... और जानने की इच्छा भी नहीं है.....
अब तुम और नहीं छिप सकते ..... इस शांत आकाश में भी नहीं ....... उत्तुंग पर्वतों के शिखरों और उनकी निविड़ गुहाओं में भी नहीं ..... विशाल महासागरों की गहराइयों में भी नहीं .....
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तुम मुझमें ही छिपे हो .......
जहाँ से तुम्हें प्रकट होना ही होगा .......
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हे त्रिपुरहर ..... स्थूल सूक्ष्म और कारण तुम्ही हो ..... जिसको हरणा हो हर लो ..... जो हरणा हो हर लो..... मुझे इनसे कोई मतलब ही नहीं है ..... मतलब सिर्फ तुम्हीं से है .....
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प्रतीक्षा रहेगी..... कब तक छिपोगे? ..... एक न एक दिन तो स्वयं को मुझमें व्यक्त करोगे ही ..... अनंत काल तक प्रतीक्षा करेंगे ......
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ॐ ॐ ॐ शिवोहं शिवोहं अयमात्मा ब्रह्म | ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||
November 23, 2015 at 7:07am
विवेक अत्यंत सीमित है ... कुछ समझ में नहीं आ रहा है .....आस्था कहती है श्रुतियाँ प्रमाण हैं .... पर उन्हें समझने की क्षमता ही नहीं है ....... ह्रदय में एक प्रचण्ड अग्नि जल रही है ....... अभीप्सा शांत होने का नाम ही नहीं लेती .......
इस अतृप्त अभीप्सा को सिर्फ तुम्हारे प्रेम की शीतलता ही शांत कर सकती है ...........
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हो सकता है तुम परब्रह्म परमात्मा हो..... सकल जगत् के कारण हो ...... स्थिति और संहार करने वाले हो ..... पर मेरे लिए तो तुम मेरे प्रियतम और अभिन्न ही नहीं मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व हो .......
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तुम ही साक्षीस्वरुप हो ..... तुम ही ब्रह्म हो..... मैं अन्य किसी को नहीं जानता ..... और जानने की इच्छा भी नहीं है.....
अब तुम और नहीं छिप सकते ..... इस शांत आकाश में भी नहीं ....... उत्तुंग पर्वतों के शिखरों और उनकी निविड़ गुहाओं में भी नहीं ..... विशाल महासागरों की गहराइयों में भी नहीं .....
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तुम मुझमें ही छिपे हो .......
जहाँ से तुम्हें प्रकट होना ही होगा .......
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हे त्रिपुरहर ..... स्थूल सूक्ष्म और कारण तुम्ही हो ..... जिसको हरणा हो हर लो ..... जो हरणा हो हर लो..... मुझे इनसे कोई मतलब ही नहीं है ..... मतलब सिर्फ तुम्हीं से है .....
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प्रतीक्षा रहेगी..... कब तक छिपोगे? ..... एक न एक दिन तो स्वयं को मुझमें व्यक्त करोगे ही ..... अनंत काल तक प्रतीक्षा करेंगे ......
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ॐ ॐ ॐ शिवोहं शिवोहं अयमात्मा ब्रह्म | ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||
November 23, 2015 at 7:07am
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