Friday, 5 August 2016

नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे .....

नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे .....         
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मुट्ठी भर संकल्पवान लोग जिनकी अपने लक्ष्य में दृढ़ आस्था है , इतिहास की धारा को बदल सकते हैं|
मोक्ष की हमें व्यक्तिगत रूप से कोई आवश्यकता नहीं है| आत्मा तो नित्य मुक्त है, बंधन केवल भ्रम मात्र हैं|
जब धर्म और राष्ट्र की अस्मिता पर मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं तब व्यक्तिगत मोक्ष और कल्याण की कामना धर्म नहीं हो सकती|
एक दृढ़ संकल्पवान व्यक्ति का संकल्प पूरे विश्व को बदल सकता है|
आप का दृढ़ संकल्प भी भारत के अतीत के गौरव और सम्पूर्ण विश्व में सनातन हिन्दू धर्म को पुनर्प्रतिष्ठित कर सकता है|
भारत माँ अपने पूर्ण वैभव के साथ पुनश्चः अखण्डता के सिंहासन पर निश्चित रूप से बिराजमान होगी| भारत के घर घर में वेदमंत्रों की ध्वनियाँ गूंजेगीं| पूरा भारत पुनः अखंड हिन्दू राष्ट्र होगा|
एक प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति भारतवर्ष का अभ्युदय करेगी|
कहीं भी कोई असत्य और अन्धकार नहीं होगा| राम राज्य फिर से स्थापित होगा|
वह दिन देखने को हम जीवित रहें या ना रहें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता| अनेक बार जन्म लेना पड़े तो भी यह कार्य संपादित होते हुए ही हम देखेंगे| इसमें मुझे कोई भी संदेह नहीं है|
अब आवश्यकता है सिर्फ अपन सब के विचारपूर्वक किये हुए सतत संकल्प और प्रभु के प्रति पूर्ण समर्पण की|
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यह कार्य हम स्वयं के लिए नहीं अपितु भगवान के लिए कर रहे हैं| मोक्ष की हमें व्यक्तिगत रूप से कोई आवश्यकता नहीं है| आत्मा तो नित्य मुक्त है, बंधन केवल भ्रम मात्र हैं| ज्ञान की गति के साथ साथ हमें भारत की आत्मा का भी विस्तार करना होगा| यह परिवर्तन बाहर से नहीं भीतर से करना होगा|
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भारत की सभी समस्याओं का निदान हमारे भीतर है|
हमें स्वयं परमात्मा की उपलब्धि कर के, उस उपलब्धि के द्वारा बाहर के विश्व को एक नए साँचे में ढाल सकते हैं| सर्वप्रथम हमें स्वयं को परमात्मा के प्रति पूर्णतः समर्पित होना होगा|
फिर हमारा किया हुआ हर संकल्प पूरा होगा| तब प्रकृति की हरेक शक्ति हमारा सहयोग करने को बाध्य होगी|
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जिस प्रकार एक इंजन अपने ड्राइवर के हाथों में सब कुछ सौंप देता है, एक विमान अपने पायलट के हाथों में सब कुछ सौंप देता है वैसे ही हमें अपनी सम्पूर्ण सत्ता परमात्मा के हाथों में सौंप देनी चाहिए|
अपने लिए कुछ भी बचाकर नहीं रखना चाहिये, जिससे परमात्मा हमारे माध्यम से कार्य कर सकें| उन्हें अपने भीतर प्रवाहित होने दें| सारे अवरोध नष्ट कर दें|
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जो लोग भगवन से कुछ माँगते हैं, भगवान उन्हें वो ही चीज देते हैं जिसे वे माँगते हैं| परन्तु जो लोग अपने आप को दे देते हैं और कुछ भी नहीं माँगते, उन्हें वे अपना सब कुछ दे देते हैं, उस व्यक्ति का हर संकल्प पूरा होता है|
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सारी सृष्टि का भविष्य इस पृथ्वी पर निर्भर है, इस पृथ्वी का भविष्य भारतवर्ष पर निर्भर है, और भारतवर्ष का भविष्य सनातन हिन्दू धर्म पर निर्भर है, सनातन हिन्दू धर्म का भविष्य आप के संकल्प पर निर्भर है|
और भी स्पष्ट शब्दों में आप पर ही पूरी सृष्टि का भविष्य निर्भर है|
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धर्मविहीन राष्ट्र और समाज से इस सृष्टि का ही विनाश निश्चित है|
परमात्मा की सबसे अधिक अभिव्यक्ति भारतवर्ष में ही है| भारत से सनातन हिन्दू धर्म नष्ट हुआ तो इस विश्व का विनाश भी निश्चित है| वर्त्तमान अन्धकार का युग समाप्त हो चुका है| बाकि बचा खुचा अन्धकार भी शीघ्र दूर हो जाएगा|
अतीत के कालखंडों में अनेक बार इस प्रकार का अन्धकार छाया है पर विजय सदा सत्य की ही रही है|
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परमात्मा के एक संकल्प से यह सृष्टि बनी है| आप भी एक शाश्वत आत्मा हैं| आप भी परमात्मा के एक दिव्य अमृत पुत्र हैं| जो कुछ भी परमात्मा का है वह आपका ही है| आप कोई भिखारी नहीं हैं| परमात्मा को पाना आपका जन्मसिद्ध अधिकार है| आप उसके अमृत पुत्र हैं|
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जब परमात्मा के एक संकल्प से इस विराट सृष्टि का उद्भव और स्थिति है तो आपका संकल्प भी भारतवर्ष का अभ्युदय कर सकता है क्योंकि आप स्वयं परमात्मा के अमृतपुत्र हैं| जो भगवान् का है वह आप का ही है| आपके विशुद्ध अस्तित्व और प्रभु में कोई भेद नहीं है| आप स्वयं ही परमात्मा हैं जिसके संकल्प से धर्म और राष्ट्र का उत्कर्ष हो रहा है| आपका संकल्प ही परमात्मा का संकल्प है|
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वर्तमान में जब धर्म और राष्ट्र के अस्तित्व पर मर्मान्तक प्रहार हो रहे है तब व्यक्तिगत कामना और व्यक्तिगत स्वार्थ हेतु साधना उचित नहीं है|
जो साधना एक व्यक्ति अपने मोक्ष के लिए करता है वो ही साधना यदि वो धर्म और राष्ट्र के अभ्युदय के लिए करे तो निश्चित रूप से उसका भी कल्याण होगा| धर्म उसी की रक्षा करता है जो धर्म की रक्षा करता है| हमारा सर्वोपरि कर्त्तव्य है धर्म और राष्ट्र की रक्षा|
आप धर्म की रक्षा करेंगे तो धर्म भी आप की रक्षा करेगा| धर्म की रक्षा आप का सर्वोपरि कर्तव्य है
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एक छोटा सा संकल्प रूपी योगदान आप कर सकते हैं| जब भी समय मिले शांत होकर बैठिये| दृष्टि भ्रूमध्य में स्थिर कीजिये| अपनी चेतना को सम्पूर्ण भारतवर्ष से जोड़ दीजिये| यह भाव कीजिये कि आप यह देह नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारतवर्ष हैं| एक दिव्य अनंत प्रकाश की कल्पना कीजिये जो आपका अपना ही प्रकाश है|आप स्वयं ही वह प्रकाश हैं| वह प्रकाश ही सम्पूर्ण भारतवर्ष है| उस प्रकाश को और भी गहन से गहनतम बनाइये| अब यह भाव रखिये कि आपकी हर श्वास के साथ वह प्रकाश और भी अधिक तीब्र और गहन हो रहा है और सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्माण्ड और सृष्टि को आलोकित कर रहा है| आप में यानि भारतवर्ष में कहीं भी कोई असत्य और अन्धकार नहीं है| यह भारतवर्ष का ही आलोक है जो सम्पूर्ण सृष्टि को ज्योतिर्मय बना रहा है| इस भावना को दृढ़ से दृढ़ बनाइये| नित्य इसकी साधना कीजिये|
पृष्ठभूमि में ओंकार का जाप भी करते रहिये| आपको धीरे धीरे स्पष्ट रूप से प्रकाश भी दिखने लगेगा और ओंकार की ध्वनी भी सुनने लगेगी|
सदा यह भाव रखें की आप ही सम्पूर्ण भारतवर्ष हैं और आप निरंतर ज्योतिर्मय हो रहे हैं|
कहीं भी कोई असत्य और अन्धकार नहीं है|
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आप की रक्षा होगी| भगवान आपके साथ है|
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ || भारत माता की जय ||

हरियाली तीज .....

आज श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया है जिसे हरियाली तीज कहते हैं| कल सिंधारा दूज थी| सभी मातृशक्ति को मैं इस पावन अवसर पर नमन करता हूँ|
हरियाली तीज मुख्यत: स्त्रियों का त्योहार है|
इस समय जब प्रकृति में चारों ओर हरियाली की चादर सी बिछी हुई है| वन-बिहार करने पर प्रकृति की इस छटा को देखकर मन पुलकित होकर नाचने लगता है| तपती गर्मी से अब जाकर राहत भी मिली है|
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अभी कुछ वर्षों पूर्व तक हमारे यहाँ राजस्थान के हर भाग में खूब झूले लगते थे और स्त्रियों के समूह गीत गा-गाकर झूला झूलते थे| अभी भी कहीं कहीं यह संस्कृति जीवित बची हुई है| झूलों पर पूरा दम लगाकर बालिकाएँ और महिलाऐं खूब ऊँचाई तक जाती हुईं झूला झूलती थीं मानो आसमान को छूने जा रही हों| इसे हमारी मारवाड़ी भाषा में "पील मचकाना" कहते हैं|
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स्त्रियाँ अपने हाथों पर त्योहार विशेष को ध्यान में रखते हुए भिन्न-भिन्न प्रकार की मेहंदी लगाती हैं।|मेहंदी रचे हाथों से जब वह झूले की रस्सी पकड़ कर झूला झूलती हैं तो यह दृश्य बड़ा ही मनोहारी लगता है| जैसे मानसून आने पर मोर नृत्य कर खुशी प्रदर्शित करते हैं, उसी प्रकार महिलाएँ भी बारिश में झूले झूलती हैं, नृत्य करती हैं और खुशियाँ मनाती हैं।
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इस दिन सुहागिन स्त्रियाँ सुहागी पकड़कर सास के पांव छूकर उन्हें देती हैं| यदि सास न हो तो स्वयं से बड़ों को अर्थात जेठानी या किसी वृद्धा को देती हैं|
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हरियाली तीज के दिन अनेक स्थानों पर मेले लगते हैं और माता पार्वती की सवारी बड़े धूमधाम से निकाली जाती है| यह त्योहार महिलाओं के लिए एकत्र होने का एक उत्सव है| नवविवाहित लड़कियों के लिए विवाह के पश्चात पड़ने वाले पहले सावन के त्योहार का विशेष महत्त्व होता है|
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पौराणिक रूप से यह शिव पार्वती के पुनर्मिलन के उपलक्ष्य में मनाया जाता है|
तीज के बारे में लोक कथा है कि पार्वतीजी के 108वें जन्म में शिवजी उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न हुए और पार्वतीजी की अपार भक्ति को जानकर उन्हें अपनी पत्नी की तरह स्वीकार किया|
पार्वतीजी का आशीष पाने के लिए महिलाएँ कई रीति-रिवाजों का पालन करती हैं| नवविवाहित महिलाएँ अपने मायके जाकर ये त्योहार मनाती हैं|

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सिंधारा दूज के दिन जिन लड़कियों की सगाई हो जाती है, उन्हें अपने होने वाले सास-ससुर से सिंजारा मिलता है। इसमें मेहँदी, लाख की चूड़ियाँ, कपड़े (लहरिया), मिठाई विशेषकर घेवर शामिल होता है|
विवाहित महिलाओं को भी अपने पति, रिश्तेदारों एवं सास-ससुर के उपहार मिलते हैं|
कन्याओं का बड़ा लाड-चाव इस दिन किया जाता है|
पुनश्चः सभी मातृशक्ति को नमन और शुभ कामनाएँ| ॐ ॐ ॐ ||

फेसबुक पर किसी को ब्रह्मज्ञान नहीं मिल सकता .....

 फेसबुक पर किसी को ब्रह्मज्ञान नहीं मिल सकता .......
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किसी भी आध्यात्मिक साधना का आधार है .... भक्ति और समर्पण| भक्ति का अर्थ परमप्रेम होता है जहाँ सिर्फ समर्पण होता है, कोई माँग नहीं| जहाँ माँग है वहाँ व्यापार यानि सौदा है|
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सारे प्रश्नों के उत्तर परमात्मा में हैं| इसके लिए साधना करनी होती है और किसी श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य से मार्गदर्शन प्राप्त करना होता है| यह फेसबुक पर नहीं हो सकता| साधना तर्कों से नहीं, ह्रदय के भीतर प्रेम जागृत कर के होती है| अनेक जन्म जिस को प्राप्त करने में लग जाते हैं, वह कोई सांसारिक जोड़-तोड़ से प्राप्त नहीं किया जा सकता|
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भगवान से परम प्रेम करो | परम प्रेम होता है .... भक्ति और समर्पण, कोई सौदेबाजी या व्यापार नहीं | सारे प्रश्नों के उत्तर परमात्मा में हैं | इसके लिए साधना करनी होती है | किसी भी जिज्ञासू को नम्रतापूर्वक किसी ब्रह्मनिष्ठ आचार्य से मार्गदर्शन प्राप्त करना होता है, जीवन में निष्ठापूर्वक खोज करनी होती है जो फेसबुक पर नहीं हो सकती | साधना भी फेसबुक पर तर्कों से नहीं, ह्रदय के भीतर होती है | अनेक जन्म जिस को प्राप्त करने में लग जाते हैं, वह कोई सांसारिक परीक्षा की तरह नहीं है जो किसी तरह जोड़-तोड़ कर उतीर्ण की जा सकती है |
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प्राचीन काल के कुछ आचार्यों को श्रद्धापूर्वक नमन करते हुए स्मरण करते हैं, जिनकी दिव्य सत्ता सूक्ष्म जगत में है, जहाँ से वे निष्ठावान मुमुक्षुओं का मार्गदर्शन और सहायता करते हैं........
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(1) भगवान सनत्कुमार .... ब्रह्मविद्या के प्रथम आचार्य है| उन्होंने अपने शिष्य देवर्षि नारद को ब्रह्मज्ञान दिया था| ॐ नमो भगवते सनत्कुमाराय ||

(2) भगवान देवर्षि नारद .... भक्ति-सूत्रों के आचार्य हैं| भक्ति-सूत्रों की रचना उन्होंने ही की थी| वे भक्ति के आचार्य हैं|
(3) भगवान अगस्त्य .... शाक्तागमों के आचार्य हैं| श्रीविद्या और अन्य शाक्त आगमों के वे आचार्य हैं|
(4) भगवान दुर्वासा .... शैवागमों के आचार्य हैं| शैव दर्शन के आचार्य वे ही हैं|
(5) भगवान श्रीकृष्ण .... जगत्गुरू हैं| साकार परमब्रह्म हैं| गीता का ज्ञान उन्हीं की कृपा से हमें मिला है|
(6) भगवान वेदव्यास .... ब्रह्मसूत्रों, महाभारत (गीता जिसका ही भाग है), और प्रायः सभी पुराणों के रचनाकार| समाज को एक नई व्यवस्था उन्होंने दी और वेदों को चार भागों में बाँटा|
(7) भगवान पातंजलि .... योग-सूत्रों के आचार्य हैं| वे शेषावतार है| घोर कलियुग में जीवों के कल्याण के लिए वे तीन बार अवतृत हुए ..... पातंजलि के रूप में, आचार्य गोबिन्दपाद के रूप में, और आचार्य चरक के रूप में|
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सभी को शुभ कामनाएँ | ॐ ॐ ॐ ||

प्राण तत्व पर एक चर्चा .......

प्राण तत्व पर एक चर्चा .......
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प्राण तत्व को समझना बहुत महत्वपूर्ण है| इसके बिना योगदर्शन और आध्यात्म को समझना अति कठिन है|
हमारे एक मित्र कर्दम जी ने वेदों और उपनिषदों से प्राण तत्व से सम्बन्धित ऋचाओं का संकलन किया है जो एक स्तुत्य प्रयास है| पर जब तक कोई बहुत अच्छी तरह समझाने वाला नहीं हो उसे अपने आप समझना असम्भव है|
मेरे अनुभव से प्राण तत्व को बुद्धि से समझना कठिन है| यह अनुभव का विषय है| इसे थोड़ी बहुत साधना द्वारा ही समझा जा सकता है|
अष्टांग योग में प्रथम चार सोपान हैं --- यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह), नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान), आसन (स्थिर सुख से बैठने की विधि) और प्राणायाम|
सांध्य क्रियाओं में भी प्राणायाम किया जाता है जो वर्तमान में एक श्वास-प्रश्वास का व्यायाम मात्र ही होकर रह गया है| प्राण तत्व को समझे बिना प्राणायाम नहीं हो सकता|
योग का अर्थ है -- जोड़ना| जो आत्मा को परमात्मा से, जीव को शिव से जोड़ता है वह योग है| योग है अपनी सूक्ष्म देह में अवस्थित महाशक्ति कुण्डलिनी शक्ति को जागृत कर उसको परम शिव से एकाकार करना|
योग साधना का उद्देश्य है --- परम शिवभाव को प्राप्त करना|
चित्तवृत्ति निरोध इस लम्बी यात्रा में एक पड़ाव है, गंतव्य नहीं| गंतव्य है -- सम्पूर्ण समर्पण|
चित्त स्वयं को दो रूपों --- वासनाओं व श्वाश-प्रश्वाश के रूप में व्यक्त करता है| वासनाएँ तो अति सूक्ष्म हैं जो पकड़ में नहीं आतीं| अतः आरम्भ में बीज मन्त्रों के साथ श्वाश पर ध्यान किया जाता है जिसे अजपा जाप कहते हैं| इससे मेरुदंड में प्राण शक्ति का आभास होता है जिसके नियंत्रण से वासनाओं पर नियंत्रण होता है| आगे के मार्ग पर साधक गुरुकृपा से अग्रसर होता रहता है|
श्वास-प्रश्वाश भौतिक रूप से तो नाक से ही चलता है पर उसकी अनुभूति मेरुदंड में होती है| श्वाश-प्रश्वाश तो एक प्रतिक्रिया है, क्रिया नहीं| प्राण तत्व जो मेरुदंड में संचारित होता है, उसी की प्रतिक्रया है सांस|
जीवात्मा का निवास मस्तक ग्रंथि (मेरुशीर्ष/Medulla) व सहस्त्रार के मध्य में है| यह जीवात्मा ही है जो अपनी एक अभिव्यक्ति चित्त द्वारा प्राण शक्ति का संचलन करती है जिसकी प्रतिक्रिया स्वरुप सांस चलती है| जब मेरु दंड में उस शक्ति की अनुभूति होने लगती है तब उसी की चेतना में अजपा जाप किया जाता है| उस प्राण शक्ति का ही धनीभूत रूप है कुण्डलिनी महाशक्ति|
योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय के अनुसार चंचल प्राण ही मन है| चंचल प्राण को स्थिर करके ही मन पर नियंत्रण किया जा सकता है| प्राणवायु सहस्त्रार में स्थिर रहता है पर नीचे आने पर चंचल हो जाता है| प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान ये पञ्च प्राण यदि देह में समान रूप से स्थित रहें तो मन में कोई चंचलता नहीं रहती|
ये पञ्च प्राण ही हैं जो ओमकार रूप गणेश जी के गण हैं| इन्हीं गणों के अधिपति होने के कारण इन्हें गणपति या गणेश कहते हैं|
इन पञ्च प्राणों के पाँच सौम्य और पाँच उग्र रूप ही दश महाविद्याएँ हैं|
इसलिए प्राणायाम की साधना सब से बड़ी है|
प्राणायाम द्वारा प्राण एवं अपान वायु स्थिर होते हैं; नाभि क्रिया द्वारा समान वायु, तथा महामुद्रा द्वारा उदान तथा व्यान वायु स्थिर होते हैं| इन साधनाओं के द्वारा पञ्च वायु स्थिर होने पर योनिमुद्रा (ज्योतिमुद्रा) द्वारा आत्मदर्शन होता है| प्राणायाम अनेक प्रकार के होते हैं पर सुषुम्ना स्थित षटचक्र प्राणायाम श्रेष्ठ है|
जिस प्रकार नदियों में गंगा, तीर्थों में काशी, मन्त्रों में गायत्री, और बीजों में प्रणव श्रेष्ठ है, वैसे ही साधनाओं में प्राणायाम श्रेष्ठ है|
धर्म कोई बाहरी अनुष्ठान नहीं है| पूरी सृष्टि धर्म से ही उत्पन्न और धर्म में ही स्थित है| धर्म के अस्तित्व में ही इसका अस्तित्व है|
अतः जो प्राण सब जीवों और भूतों में है वही धर्म है जिसकी साधना सर्वश्रेष्ठ है| प्राण की साधना द्वारा सब देव देवियों की साधना हो जाती है|
चंचलता ही महामाया है| साधना के द्वारा जब जीव महास्थिर हो जाता है तब जीव जीव नहीं रहता, वह स्वयं शिव हो जाता है| भगवान बाहर से प्राप्त नहीं होते, स्वयं को ही भगवान होना पड़ता है| जीव का धर्म अपने उस मूल स्वरुप महास्थिर प्राण को पाना है| स्थिर प्राण ही ब्रह्म है| यही सोsहं अवस्था है|
अष्टांग योग द्वारा प्राण को सुषुम्ना में चालित करते हैं जिसके परिणाम स्वरुप प्राण व मन सुषुम्ना के भीतर से ब्रह्मरंध्र में प्रवेश करता है| ब्रह्मरंध्र में प्रवेश के पश्चात चंचल प्राण व मन रुद्ध हो जाते हैं और योगी का मन परमानंद में डूब जाता है और समाधि की स्थिति प्राप्त होती है| यह जीवनमुक्ति की अवस्था है| यही निष्काम कर्म है|
योग साधना के लिए भक्ति बहुत आवश्यक है| जब ह्रदय में एक तड़प, अभीप्सा और परम प्रेम हो तो सारे द्वार अपने आप खुल जाते है| सारे दीप जल उठते हैं और अंतर का समस्त अन्धकार दूर होने लगता है|
आवश्यकता है सिर्फ एक अभीप्सा और परम प्रेम की| फिर समर्पण में अधिक समय नहीं लगता| जब समर्पण हो जाए तब और करने को कुछ ही अवशेष नहीं रहता| फिर सब कुछ परमात्मा ही करते हैं|
ॐ तत्सत्|
(यह मेरी अल्प बुद्धि द्वारा एक छोटा सा प्रयास है इस विषय पर चर्चा करने का| उन मनीषियों के विचार आमंत्रित हैं जिन का इस विषय पर प्रत्यक्ष अनुभव है)|

सभी मित्रों और शुभ चिंतकों से एक प्रार्थना .....

सभी मित्रों और शुभ चिंतकों से एक प्रार्थना .....
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अपनी व्यक्तिगत साधना में ससंकल्प यानि संकल्प कर के सत्य सनातन हिन्दू धर्म और अपने राष्ट्र भारतवर्ष के अभ्युदय और कल्याण के लिए भी प्रार्थना अवश्य करें| यदि राष्ट्र बचेगा तो ही हम बचेंगे| जब धर्म और राष्ट्र ही नहीं रहेगा तो हमारा अस्तित्व भी नहीं रहेगा|
जब धर्म और राष्ट्र की अस्मिता पर मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं तो अपने निजी स्वार्थ के लिए की गयी प्रार्थना से हमें कोई पुण्य नहीं मिलेगा|
धर्म ही हमारी रक्षा करेगा|
धर्म-विहीनता और धर्म-निरपेक्षता एक ही है|
इसके लिए किसी पर निर्भर ना रहें| हमें स्वयं ही पहल करनी होगी और आध्यात्मिक राष्ट्रवादियों को संगठित होना ही होगा|
भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण हमारे परम आदर्श, सहायक और मार्गदर्शक हैं|
याद रखें कि एक व्यक्ति का विचारपूर्वक किया हुआ दृढ़ संकल्प भी समस्त सृष्टि की चिंतन धारा को बदल सकता है| हमारे शुभ संकल्प और प्रार्थनाएँ हमारे राष्ट्र का और हमारे स्वयं का अवश्य कल्याण करेंगी|
जय सनातन संस्कृति, जय भारत, जय श्री राम || ॐ ॐ ॐ ||
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(पुनश्चः : मैं धर्म-निरपेक्ष नहीं अपितु धर्म-सापेक्ष हूँ| जो स्वयं को धर्म निरपेक्ष कहते हैं वे मुझे अपनी मित्रता सूचि से बाहर करने की कृपा करें)

मेरा शाश्वत मित्र .......

मेरा हर क्षण परमात्मा के साथ मित्रता को समर्पित है| जब से उस मित्र से मित्रता और प्रेम हुआ है व प्रेमवश उसके सामने सिर झुका है तब से उठा ही नहीं है|
वह मेरा शाश्वत मित्र है| जन्म से पूर्व भी वह मेरे साथ था और मृत्यु के बाद भी मेरे साथ ही रहेगा|
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जब सब साथ छोड़ देंगे, यहाँ तक कि यह पृथ्वी भी पीछे छूट जायेगी तब भी वह साथ नहीं छोड़ेगा| ऐसे प्रियतम मित्र को छोड़कर मैं कहाँ जाऊँ ?
बस आनंद है हर पल उसके साथ रहने में जो कभी साथ नहीं छोड़ता| हर पल उसी से मित्रता और प्रगाढ़ होती है| उस से मित्रता होने से सारा संसार ही मेरा मित्र हो गया है|
ॐ ॐ ॐ ||

भगवान शिव अपनी देह में भस्म क्यों लगाते हैं .....

भगवान शिव अपनी देह में भस्म क्यों लगाते हैं .....
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विभिन्न शिव स्तुतियों में भगवान शिव की महिमा उनके भस्म रमाये शुभ्र देह की की गयी है|
भगवान शिव तो समस्त जगत के स्वामी हैं| वे किसी भी तरह की सुगन्धित प्रसाधन सामग्री का प्रयोग कर सकते हैं| पर वे अपनी देह में भस्म ही रमाते हैं|
उन्हें श्मशान की भस्म अधिक पसंद है इसीलिए श्मशान की भस्म वैराग्य की प्रतीक है|
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इस विषय पर एक पुराणोक्त कथा है कि मतिहीन कामदेव ने ध्यानस्थ भगवान शिव को कामोद्दीप्त करने के लिए कामवाण चलाया था जिस से शिव की समाधी भंग हुई और उनकी क्रोधाग्नि से कामदेव जल कर भस्म हो गया| कामदेव की पत्नी रति के करुण विलाप से द्रवित होकर आशुतोष भगवान शिव ने कामदेव के शरीर की भस्म को अपने शरीर पर लेप लिया और कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया|
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मनोभव यानि मन से उत्पन्न होने वाले कंदर्प यानि कामदेव की भस्म को अपनी देह पर रमाकर भगवान शिव ने सस्नेह घोषणा की कि 'आज से भक्त/अभक्त सबके देहावाशेषों की भस्म ही मेरा श्रेष्ठ भूषण होगी|'
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शैव ग्रंथों में लिखा है कि --- भस्म, त्रिपुंड एवं रुद्राक्षमाला धारण किये बगैर शिवपूजा उतनी फलदायिनी नहीं होती|
इसीलिए शिवभक्त भस्म, त्रिपुंड और रुद्राक्ष माला धारण करते हैं|
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भगवती माँ छिन्नमस्ता ने अपने विग्रह में कामदेव और उसकी पत्नी रति को भूमि पर पटक रखा है और उनकी देह पर खड़ी हैं| यह सन्देश है कि शिव तत्व को प्राप्त करने के लिए काम वासना पर विजय आवश्यक है|
उन्होंने अपने ही हाथों से अपनी गर्दन काट रखी हैं| यह अहंकार पर विजय पाने का सन्देश है|
फिर रक्त की तीन धाराएं जो इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना की प्रतीक हैं, में से सुषुम्ना के रक्त का स्वयं पान करती हैं, और इड़ा व पिंगला से निकली रक्त धारा का पान क्रमशः वर्णिनी और डाकिनी महाशक्तियाँ करती हैं| यह साधकों को सुषुम्नापथगामी होने का सन्देश है|
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तपस्वी साधू-संत ठंडी और गर्मी से बचाव के लिए भी भस्म लेपन करते हैं|
भस्म --- त्याग तपस्या और वैराग्य का प्रतीक है|
रुद्रयामल तंत्र के अनुसार यह अग्नि-स्नान है जो भगवन शिव को सर्वप्रिय है|
भस्मलेप को अग्नि-स्नान माना जाता है| यामल तंत्र के अनुसार सात प्रकार के स्नानों में अग्नि-स्नान सर्वश्रेष्ठ है|
भस्म देह की गन्दगी को दूर करता है| भगवान शिव ने अपने लिए आग्नेय स्नान को चुन रखा है|
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शैवागम के तन्त्र ग्रंथों में इस विषय पर एक बड़ा ही विलक्षण बर्णन है जो ज्ञान की पराकाष्ठा है|
"भ" और "स्म" इनका अर्थ अलग अलग है| "स्म" क्रिया स्वरुप भूतकाल को दर्शाता है|
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'भ'कार शब्द की व्याख्या भगवान शिव पार्वती जी को करते हैं -------
"भकारम् श्रुणु चार्वंगी स्वयं परमकुंडली|
महामोक्षप्रदं वर्ण तरुणादित्य संप्रभं ||
त्रिशक्तिसहितं वर्ण विविन्दुं सहितं प्रिये|
आत्मादि तत्त्वसंयुक्तं भकारं प्रणमाम्यह्म्||"

महादेवी को संबोधित करते हुए महादेव कहते हैं कि हे (चारू+अंगी) सुन्दर देह धारिणी, 'भ'कार 'परमकुंडली' है| यह महामोक्षदायी है जो सूर्य की तरह तेजोद्दीप्त है| इसमें तीनों देवों की शक्तियां निहित हैं ...................|
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यहाँ 'परमकुंडली' का अर्थ बताना अति आवश्यक है|
मूलाधार से आज्ञाचक्र तक का मार्ग अपरा सुषुम्ना है|
जब कुण्डलिनी महाशक्ति गुरुकृपा से आज्ञाचक्र को भेद कर सहस्त्रार में प्रवेश करती है तब वह मार्ग उत्तरा सुषुम्ना है|
अपरा सुषुम्ना में कुण्डलिनी जागती है, और उत्तरा सुषुम्ना के मार्ग में यह "परमकुंडली" कहलाती है|
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महादेव 'भ'कार द्वारा उस महामोक्षदायी परमकुण्डली की ओर संकेत करते हुए ज्ञानी साधकों की दृष्टि आकर्षित करते हुए उन्हें कुंडली जागृत कर के उत्तरा सुषुम्ना की ओर बढने की प्रेरणा देते हैं कि वे शिवमय हो जाएँ|
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भस्म का आध्यात्मिक अर्थ बहुत गहन है|
जिसने काम वासना और अहंकार से मुक्त होकर अपनी घनीभूत प्राण चेतना यानि कुण्डलिनी को जागृत कर गुरुकृपा से आज्ञाचक्र का भेदन कर सहस्त्रार में प्रवेश कर लिया है वह भस्मधारी है|
वही शिवमय होने का पात्र है|
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यही है शिव जी के भस्म धारण का रहस्य|
शिवमस्तु| ॐ स्वस्ति| ॐ नमः शिवाय||

भगवान शिव के शीश से निरंतर गंगाजी क्यों बहती है .......

भगवान शिव के शीश से निरंतर गंगाजी क्यों बहती है .......
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गंगा का अर्थ है --- ज्ञान|
हमारे पंचकोषात्मक (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय) देह के मस्तिष्क में ज्ञान गंगा नित्य विराजमान है|
भगवान शिव तो परम चैतन्य के प्रतीक ही नहीं स्वयं परम चैतन्य हैं|
समस्त सृष्टि के उद्भव और संहार यानि सर्जन-विसर्जन की क्रिया ---- उनका नृत्य है|
परमात्मा की ऊंची से ऊंची परिकल्पना जो एक विराट से विराट मनुष्य का मस्तिष्क कर सकता है वह भगवान शिव का स्वरुप है|
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उनके माथे पर चन्द्रमा ----------- कूटस्थ चैतन्य का,
गले में सर्प ------------------------ कुण्डलिनी महाशक्ति का,
उनकी दिगंबरता ------------------ सर्वव्यापकता का,
और देह पर भभूत ----------------- वैराग्य का,
उनके हाथ में त्रिशूल --------------- त्रिगुणात्मक शक्तियों के स्वामी होने का,
गले में विष ------------------------ स्वयं अमृतमय होने का,
ऐसे ही उनके माथे पर गंगा जी ---- समस्त ज्ञान का प्रतीक है जो निरंतर प्रवाहित हो रही है|
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जिस तरह मनुष्य के मस्तिष्क में ज्ञान और बुद्धिमता का भंडार भरा पड़ा है वैसे ही सर्व व्यापक भगवान शिव के माथे पर सम्यक चैतन्य की आधार माँ गंगाजी नित्य विराजमान और निरंतर प्रवाहित हैं जो सबका कल्याण कर रही हैं|
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जिनके मस्तक पर चन्द्रमा शोभायमान है,जो कामदेव के भस्मकर्ता हैं, जो गंगा को अपनी जटाओं में धारण करते हैं, जिनके कंठ एवं कर्णयुगल सर्पों द्वारा आभूषित हैं, जिनके नयनों से अग्निज्योति की छटाएं निकलती हैं, जो मृगचर्मधारी हैं और जो समस्त त्रिलोक के सारभूत हैं, ऐसे सुन्दर भगवान शिव के ऊपर हे नर, अपनी चित्तवृत्ति को अर्पित कर| किसी अन्य कर्म की क्या आवश्यकता है?

हम अपनी मनःस्थितियों व भावावेशों से क्यों दुखी होते हैं ? ......

हम अपनी मनःस्थितियों व भावावेशों से क्यों दुखी होते हैं ? ......
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यह बात पूर्णतः वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुकी है कि हमारी तरह तरह की मनःस्थितियों (Moods) और भावावेशों (अचानक भयंकर क्रोध आना) का कारण भूतकाल यानि पूर्व में हमारा इन्द्रिय सुखों में अत्यधिक लिप्त होना, और अपेक्षाओं की पूर्ति न होने व असहायता की भावना से उत्पन्न कुंठा ही है|
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इन मनःस्थितियों से किसी भी परिस्थिति में बचना चाहिए, अन्यथा ये पुनश्चः भूतकाल की यादें दिलाते हुए भ्रमित कर हमें पतन के मार्ग पर डाल देंगी|
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यह विषय इतना गंभीर है कि मुझे अभिव्यक्ति के लिए सही शब्द नहीं मिल रहे हैं, अतः ठीक से लिख नहीं पा रहा हूँ| फिर भी प्रयास कर रहा हूँ|
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जब भी ऐसी मनःस्थिति उत्पन्न हो हमें उसका मानसिक रूप से प्रतिरोध करना चाहिए| इसके लिए भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गीता में सिखाई गयी निःस्पृहता का अभ्यास करना होगा| यह एक साधना का विषय है अतः गीता का निरंतर गहन अध्ययन और नित्य नियमित ध्यान साधना करनी चाहिए|
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परमात्मा की कृपा सब पर बनी रहे| प्राण तत्व के रूप में परमात्मा सभी जीवों और जड़-चेतन सभी में व्याप्प्त है| प्रभु की आरोग्यकारी उपस्थिति सभी के देह, मन और आत्मा में प्रकट हो| सभी का कल्याण हो|
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ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!

सिर्फ बलशाली की ही पूछ होती है .......

सिर्फ बलशाली की ही पूछ होती है .......
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प्रिय मित्रो, नमस्ते !
भारत पर हुए चीनी आक्रमण के कुछ वर्षों के बाद की बात है| डा.सर्वपल्ली राधाकृष्णन चीन गए थे और चीन के राष्ट्र प्रमुख माओत्सेतुंग से मिले| उन्होंने माओ को भारतीय दर्शन --- वेदांत और गीता आदि की अनेक अच्छी अच्छी बातें बताईं| माओ ने सब बातें बड़े ध्यान से सुनी और डा.राधाकृष्णन से दो प्रश्न किये औए एक बात और कही जिसके बाद डा.राधाकृष्णन चुप हो गए और कुछ भी नहीं बोल सके|
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माओ ने पहला प्रश्न किया कि १९४८ के भारत-पाक युद्ध में भारत ने पाकिस्तान को हरा दिया था फिर भी आधा कश्मीर पकिस्तान के कब्जे में क्यों है?
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माओ का दूसरा प्रश्न था कि आप युद्ध में हम से पराजित क्यों हो गए? आपके आध्यात्म, दर्शन और धर्म की बड़ी बड़ी बातें किस काम आईं?
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अंतिम बात माओ ने यह कही कि बहुत शीघ्र ही हम भारत से अक्साईचिन छीन लेंगे| आपमें हिम्मत है तो रोक कर दिखा देना| चीन ने वह भी कर के दिखा दिया क्योंकि हम बलहीन थे|
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हिंदी की एक बहुत प्रसिद्द कविता की पंक्ति है -
"क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो|"
हमारी विश्व शांति की बड़ी बड़ी बातें, बड़े बड़े उपदेश और झूठा दिखावा सब व्यर्थ हैं यदि हम बलहीन हैं|
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भारत पर यूनानी आकमण हुआ तब पौरुष से पराजित हुई यूनानी फौजें भाग खड़ी हुईं जब उन्हें पता चला कि मगध साम्राज्य की सेनाएं लड़ने आ रही हैं| फिर कई शताब्दियों तक किसी का साहस नहीं हुआ भारत की और आँख उठाकर देखने का|
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भारत में इस्लाम और ईसाई मत किसी संत महात्मा द्वारा नहीं आए| ये आये क्रूरतम आतंक और प्रलोभन द्वारा| हम सिर कटाते रहे और 'अहिंसा परमोधर्म' का जप करते रहे| यह गलत धारणा भर दी गई कि युद्ध करना सिर्फ क्षत्रियों का काम है| यदि पूरा हिंदू समाज एक होकर मुकाबला करता तो किसी का साहस नहीं होता हिन्दुस्थान की ओर नज़र उठाकर देखने का|
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समय के साथ हम अपनी मान्यताओं और सोच को नहीं बदल सके|
वर्तमान में हम फिर संकट में हैं| हमें सब तरह के भेदभाव मिटाकर एक होना होगा और शक्ति-साधना करनी होगी, तभी हम अपना अस्तित्व बचा पाएंगे| अपने सोये हुए क्षत्रियत्व और ब्रह्मत्व को जागृत करना होगा|
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धर्मगुरुओं और आचार्यों से निवेदन है कि वे हिंदू समाज का मार्गदर्शन करें| अन्यथा सनातन हिंदू धर्म नहीं बचेगा और ये दर्शन और आध्यात्म की बातें निराधार हो जायेंगी|
ओम् |

गुरु प्रदत्त साधना ही करनी चाहिए ......

गुरु प्रदत्त साधना ही करनी चाहिए ......
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जब ह्रदय में भक्ति (परम प्रेम) और अभीप्सा जागृत होती है, तब जीवन में सद्गुरु के रूप में परमात्मा का अवतरण निश्चित रूप से होता है| इसमें कोई संदेह नहीं है|
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गुरु ही जिज्ञासु को पात्रता के अनुसार साधना का सही मार्ग दिखाता है|
एक विद्यार्थी चौथी कक्षा में पढ़ता है, एक दसवीं में, एक कॉलेज में, और किसी ने पढाई आरम्भ ही की है; इन सब की पढाई एक जैसी नहीं हो सकती| सब को अपनी अपनी पात्रता और योग्यता के अनुसार ही प्रवेश और अध्ययन का विषय मिलता है|
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इसी तरह सब की साधना भी एक जैसी ही नहीं हो सकती| एक सद्गुरु ही यह निर्णय कर सकता है कि किस साधक के लिए कौन सी साधना उचित है|
अतः सदा गुरु प्रदत्त साधना ही करनी चाहिए, और वह भी गुरु को समर्पित होकर| इससे साधना में कोई भूल होने पर गुरु महाराज उसका शोधन कर देते हैं|
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गुरु को सामान्य मनुष्य मानना अज्ञानता है| साधक को अपनी साधना हेतु गुरु से मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिए| यह आवश्यक नहीं है कि गुरु भौतिक देह में ही हो| कई बार पूर्व जन्मों के गुरु भी सूक्ष्म देह में आकर जिज्ञासु साधक का मार्गदर्शन करते हैं| जब तक गुरुलाभ नहीं होता तब तक भगवान ही गुरु हैं|
हर किसी को गुरु नहीं बनाना चाहिए| गुरु एक ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य ही हो सकता है जिसने परमात्मा का साक्षात्कार कर लिया हो| इसका पता परमात्मा की कृपा से तुरंत चल जाता है| जब हम भगवान को ठगना चाहते हैं तो हमें ठगगुरु मिल जाते हैं| श्रद्धावान को सदा सद्गुरु ही मिलते हैं|
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ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||