Friday 5 August 2016

प्राण तत्व पर एक चर्चा .......

प्राण तत्व पर एक चर्चा .......
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प्राण तत्व को समझना बहुत महत्वपूर्ण है| इसके बिना योगदर्शन और आध्यात्म को समझना अति कठिन है|
हमारे एक मित्र कर्दम जी ने वेदों और उपनिषदों से प्राण तत्व से सम्बन्धित ऋचाओं का संकलन किया है जो एक स्तुत्य प्रयास है| पर जब तक कोई बहुत अच्छी तरह समझाने वाला नहीं हो उसे अपने आप समझना असम्भव है|
मेरे अनुभव से प्राण तत्व को बुद्धि से समझना कठिन है| यह अनुभव का विषय है| इसे थोड़ी बहुत साधना द्वारा ही समझा जा सकता है|
अष्टांग योग में प्रथम चार सोपान हैं --- यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह), नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान), आसन (स्थिर सुख से बैठने की विधि) और प्राणायाम|
सांध्य क्रियाओं में भी प्राणायाम किया जाता है जो वर्तमान में एक श्वास-प्रश्वास का व्यायाम मात्र ही होकर रह गया है| प्राण तत्व को समझे बिना प्राणायाम नहीं हो सकता|
योग का अर्थ है -- जोड़ना| जो आत्मा को परमात्मा से, जीव को शिव से जोड़ता है वह योग है| योग है अपनी सूक्ष्म देह में अवस्थित महाशक्ति कुण्डलिनी शक्ति को जागृत कर उसको परम शिव से एकाकार करना|
योग साधना का उद्देश्य है --- परम शिवभाव को प्राप्त करना|
चित्तवृत्ति निरोध इस लम्बी यात्रा में एक पड़ाव है, गंतव्य नहीं| गंतव्य है -- सम्पूर्ण समर्पण|
चित्त स्वयं को दो रूपों --- वासनाओं व श्वाश-प्रश्वाश के रूप में व्यक्त करता है| वासनाएँ तो अति सूक्ष्म हैं जो पकड़ में नहीं आतीं| अतः आरम्भ में बीज मन्त्रों के साथ श्वाश पर ध्यान किया जाता है जिसे अजपा जाप कहते हैं| इससे मेरुदंड में प्राण शक्ति का आभास होता है जिसके नियंत्रण से वासनाओं पर नियंत्रण होता है| आगे के मार्ग पर साधक गुरुकृपा से अग्रसर होता रहता है|
श्वास-प्रश्वाश भौतिक रूप से तो नाक से ही चलता है पर उसकी अनुभूति मेरुदंड में होती है| श्वाश-प्रश्वाश तो एक प्रतिक्रिया है, क्रिया नहीं| प्राण तत्व जो मेरुदंड में संचारित होता है, उसी की प्रतिक्रया है सांस|
जीवात्मा का निवास मस्तक ग्रंथि (मेरुशीर्ष/Medulla) व सहस्त्रार के मध्य में है| यह जीवात्मा ही है जो अपनी एक अभिव्यक्ति चित्त द्वारा प्राण शक्ति का संचलन करती है जिसकी प्रतिक्रिया स्वरुप सांस चलती है| जब मेरु दंड में उस शक्ति की अनुभूति होने लगती है तब उसी की चेतना में अजपा जाप किया जाता है| उस प्राण शक्ति का ही धनीभूत रूप है कुण्डलिनी महाशक्ति|
योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय के अनुसार चंचल प्राण ही मन है| चंचल प्राण को स्थिर करके ही मन पर नियंत्रण किया जा सकता है| प्राणवायु सहस्त्रार में स्थिर रहता है पर नीचे आने पर चंचल हो जाता है| प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान ये पञ्च प्राण यदि देह में समान रूप से स्थित रहें तो मन में कोई चंचलता नहीं रहती|
ये पञ्च प्राण ही हैं जो ओमकार रूप गणेश जी के गण हैं| इन्हीं गणों के अधिपति होने के कारण इन्हें गणपति या गणेश कहते हैं|
इन पञ्च प्राणों के पाँच सौम्य और पाँच उग्र रूप ही दश महाविद्याएँ हैं|
इसलिए प्राणायाम की साधना सब से बड़ी है|
प्राणायाम द्वारा प्राण एवं अपान वायु स्थिर होते हैं; नाभि क्रिया द्वारा समान वायु, तथा महामुद्रा द्वारा उदान तथा व्यान वायु स्थिर होते हैं| इन साधनाओं के द्वारा पञ्च वायु स्थिर होने पर योनिमुद्रा (ज्योतिमुद्रा) द्वारा आत्मदर्शन होता है| प्राणायाम अनेक प्रकार के होते हैं पर सुषुम्ना स्थित षटचक्र प्राणायाम श्रेष्ठ है|
जिस प्रकार नदियों में गंगा, तीर्थों में काशी, मन्त्रों में गायत्री, और बीजों में प्रणव श्रेष्ठ है, वैसे ही साधनाओं में प्राणायाम श्रेष्ठ है|
धर्म कोई बाहरी अनुष्ठान नहीं है| पूरी सृष्टि धर्म से ही उत्पन्न और धर्म में ही स्थित है| धर्म के अस्तित्व में ही इसका अस्तित्व है|
अतः जो प्राण सब जीवों और भूतों में है वही धर्म है जिसकी साधना सर्वश्रेष्ठ है| प्राण की साधना द्वारा सब देव देवियों की साधना हो जाती है|
चंचलता ही महामाया है| साधना के द्वारा जब जीव महास्थिर हो जाता है तब जीव जीव नहीं रहता, वह स्वयं शिव हो जाता है| भगवान बाहर से प्राप्त नहीं होते, स्वयं को ही भगवान होना पड़ता है| जीव का धर्म अपने उस मूल स्वरुप महास्थिर प्राण को पाना है| स्थिर प्राण ही ब्रह्म है| यही सोsहं अवस्था है|
अष्टांग योग द्वारा प्राण को सुषुम्ना में चालित करते हैं जिसके परिणाम स्वरुप प्राण व मन सुषुम्ना के भीतर से ब्रह्मरंध्र में प्रवेश करता है| ब्रह्मरंध्र में प्रवेश के पश्चात चंचल प्राण व मन रुद्ध हो जाते हैं और योगी का मन परमानंद में डूब जाता है और समाधि की स्थिति प्राप्त होती है| यह जीवनमुक्ति की अवस्था है| यही निष्काम कर्म है|
योग साधना के लिए भक्ति बहुत आवश्यक है| जब ह्रदय में एक तड़प, अभीप्सा और परम प्रेम हो तो सारे द्वार अपने आप खुल जाते है| सारे दीप जल उठते हैं और अंतर का समस्त अन्धकार दूर होने लगता है|
आवश्यकता है सिर्फ एक अभीप्सा और परम प्रेम की| फिर समर्पण में अधिक समय नहीं लगता| जब समर्पण हो जाए तब और करने को कुछ ही अवशेष नहीं रहता| फिर सब कुछ परमात्मा ही करते हैं|
ॐ तत्सत्|
(यह मेरी अल्प बुद्धि द्वारा एक छोटा सा प्रयास है इस विषय पर चर्चा करने का| उन मनीषियों के विचार आमंत्रित हैं जिन का इस विषय पर प्रत्यक्ष अनुभव है)|

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