Friday, 5 August 2016

भगवान शिव अपनी देह में भस्म क्यों लगाते हैं .....

भगवान शिव अपनी देह में भस्म क्यों लगाते हैं .....
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विभिन्न शिव स्तुतियों में भगवान शिव की महिमा उनके भस्म रमाये शुभ्र देह की की गयी है|
भगवान शिव तो समस्त जगत के स्वामी हैं| वे किसी भी तरह की सुगन्धित प्रसाधन सामग्री का प्रयोग कर सकते हैं| पर वे अपनी देह में भस्म ही रमाते हैं|
उन्हें श्मशान की भस्म अधिक पसंद है इसीलिए श्मशान की भस्म वैराग्य की प्रतीक है|
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इस विषय पर एक पुराणोक्त कथा है कि मतिहीन कामदेव ने ध्यानस्थ भगवान शिव को कामोद्दीप्त करने के लिए कामवाण चलाया था जिस से शिव की समाधी भंग हुई और उनकी क्रोधाग्नि से कामदेव जल कर भस्म हो गया| कामदेव की पत्नी रति के करुण विलाप से द्रवित होकर आशुतोष भगवान शिव ने कामदेव के शरीर की भस्म को अपने शरीर पर लेप लिया और कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया|
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मनोभव यानि मन से उत्पन्न होने वाले कंदर्प यानि कामदेव की भस्म को अपनी देह पर रमाकर भगवान शिव ने सस्नेह घोषणा की कि 'आज से भक्त/अभक्त सबके देहावाशेषों की भस्म ही मेरा श्रेष्ठ भूषण होगी|'
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शैव ग्रंथों में लिखा है कि --- भस्म, त्रिपुंड एवं रुद्राक्षमाला धारण किये बगैर शिवपूजा उतनी फलदायिनी नहीं होती|
इसीलिए शिवभक्त भस्म, त्रिपुंड और रुद्राक्ष माला धारण करते हैं|
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भगवती माँ छिन्नमस्ता ने अपने विग्रह में कामदेव और उसकी पत्नी रति को भूमि पर पटक रखा है और उनकी देह पर खड़ी हैं| यह सन्देश है कि शिव तत्व को प्राप्त करने के लिए काम वासना पर विजय आवश्यक है|
उन्होंने अपने ही हाथों से अपनी गर्दन काट रखी हैं| यह अहंकार पर विजय पाने का सन्देश है|
फिर रक्त की तीन धाराएं जो इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना की प्रतीक हैं, में से सुषुम्ना के रक्त का स्वयं पान करती हैं, और इड़ा व पिंगला से निकली रक्त धारा का पान क्रमशः वर्णिनी और डाकिनी महाशक्तियाँ करती हैं| यह साधकों को सुषुम्नापथगामी होने का सन्देश है|
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तपस्वी साधू-संत ठंडी और गर्मी से बचाव के लिए भी भस्म लेपन करते हैं|
भस्म --- त्याग तपस्या और वैराग्य का प्रतीक है|
रुद्रयामल तंत्र के अनुसार यह अग्नि-स्नान है जो भगवन शिव को सर्वप्रिय है|
भस्मलेप को अग्नि-स्नान माना जाता है| यामल तंत्र के अनुसार सात प्रकार के स्नानों में अग्नि-स्नान सर्वश्रेष्ठ है|
भस्म देह की गन्दगी को दूर करता है| भगवान शिव ने अपने लिए आग्नेय स्नान को चुन रखा है|
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शैवागम के तन्त्र ग्रंथों में इस विषय पर एक बड़ा ही विलक्षण बर्णन है जो ज्ञान की पराकाष्ठा है|
"भ" और "स्म" इनका अर्थ अलग अलग है| "स्म" क्रिया स्वरुप भूतकाल को दर्शाता है|
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'भ'कार शब्द की व्याख्या भगवान शिव पार्वती जी को करते हैं -------
"भकारम् श्रुणु चार्वंगी स्वयं परमकुंडली|
महामोक्षप्रदं वर्ण तरुणादित्य संप्रभं ||
त्रिशक्तिसहितं वर्ण विविन्दुं सहितं प्रिये|
आत्मादि तत्त्वसंयुक्तं भकारं प्रणमाम्यह्म्||"

महादेवी को संबोधित करते हुए महादेव कहते हैं कि हे (चारू+अंगी) सुन्दर देह धारिणी, 'भ'कार 'परमकुंडली' है| यह महामोक्षदायी है जो सूर्य की तरह तेजोद्दीप्त है| इसमें तीनों देवों की शक्तियां निहित हैं ...................|
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यहाँ 'परमकुंडली' का अर्थ बताना अति आवश्यक है|
मूलाधार से आज्ञाचक्र तक का मार्ग अपरा सुषुम्ना है|
जब कुण्डलिनी महाशक्ति गुरुकृपा से आज्ञाचक्र को भेद कर सहस्त्रार में प्रवेश करती है तब वह मार्ग उत्तरा सुषुम्ना है|
अपरा सुषुम्ना में कुण्डलिनी जागती है, और उत्तरा सुषुम्ना के मार्ग में यह "परमकुंडली" कहलाती है|
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महादेव 'भ'कार द्वारा उस महामोक्षदायी परमकुण्डली की ओर संकेत करते हुए ज्ञानी साधकों की दृष्टि आकर्षित करते हुए उन्हें कुंडली जागृत कर के उत्तरा सुषुम्ना की ओर बढने की प्रेरणा देते हैं कि वे शिवमय हो जाएँ|
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भस्म का आध्यात्मिक अर्थ बहुत गहन है|
जिसने काम वासना और अहंकार से मुक्त होकर अपनी घनीभूत प्राण चेतना यानि कुण्डलिनी को जागृत कर गुरुकृपा से आज्ञाचक्र का भेदन कर सहस्त्रार में प्रवेश कर लिया है वह भस्मधारी है|
वही शिवमय होने का पात्र है|
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यही है शिव जी के भस्म धारण का रहस्य|
शिवमस्तु| ॐ स्वस्ति| ॐ नमः शिवाय||

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