Tuesday 10 September 2024

भगवान को पाने की कामना ही भगवान की प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधक है ---

मेरी बात आपको बुरी लग सकती है, लेकिन सत्य है। भगवान तो मिले हुए हैं, वे ही सारा अस्तित्व हैं, वे कहीं दूर नहीं हैं, फिर किसको पाने की कामना कर रहे हो? यह कामना ही सबसे बड़ा धोखा है। वे निकटतम से भी अधिक निकट और प्रियतम से भी अधिक प्रिय हैं।

हर समय हम साँस लेते हैं। जिस वायु को हम ग्रहण कर रहे हैं, वह वायु भी परमात्मा है। जो साँसें ले रहा है और छोड़ रहा है, वह भी परमात्मा है। प्यास परमात्मा को ही लगती है। हमारे कुछ होने का भ्रम सबसे बड़ा धोखा है। प्यास लगने पर जो जल हम पीते हैं वह जल भी परमात्मा है और पीने वाला भी परमात्मा है। भूख किसको लगती है? परमात्मा को। जो भोजन है वह परमात्मा है, और उसे ग्रहण करने वाला भी परमात्मा है। जो हमारे इस देह का, और समस्त सृष्टि का संचालन कर रहा है, वह परमात्मा ही है। जो कुछ भी खुली व बंद आँखों से हमें दिखाई दे रहा है, वह सब परमात्मा है। विष्णु-सहस्त्रनाम का आरंभ ही कहता है -
"ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः।
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः॥१॥"
जिसका यज्ञ और आहुतियों के समय आवाहन किया जाता है उसे वषट्कार कहते हैं। भूतभव्यभवत्प्रभुः का अर्थ भूत, वर्तमान और भविष्य का स्वामी होता है। सब जीवों के निर्माता को भूतकृत् कहते हैं, और सभी जीवों के पालनकर्ता को भूतभृत्। आगे कुछ बचा ही नहीं है। "ॐ विश्वं विष्णु: ॐ ॐ ॐ" --- बस इतना ही पर्याप्त है पुरुषोत्तम के गहरे ध्यान में जाने के लिए।
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नित्य प्रातः उठते ही भगवान मुझे पकड़ लेते हैं। उनकी पकड़ से छूटना असंभव है। भगवान से नहीं लड़ सकता, इसलिए उनको आत्म-समर्पण कर रहा हूँ। अपनी लड़ाई वे स्वयं लड़ें।
लोग कहते हैं कि भगवान हमारे हृदय में हैं। लेकिन हमारा हृदय कहाँ है? भगवान की ज्योति ही मेरा हृदय है। जहां जहां भी भगवान की ज्योति दिखाई देती हैं, वहीं मेरा हृदय है। कभी कभी वह ज्योति सर्वत्र होती है, तो मैं भी सर्वत्र हूँ। वह ज्योति ही भगवान के चरण-कमल है, जिनमें ही मेरा आश्रय है।
अन्य कुछ भी इस समय चर्चा का विषय नहीं है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ सितंबर २०२४

भगवान का ध्यान कैसे करें? (अति अति महत्वपूर्ण लेख)

इस प्रश्न का उत्तर बड़ा कठिन है। श्रुति भगवती तो किन्हीं श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य की शरण में जाने को कहती हैं। श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य की शरण तो लेनी ही होगी। उसके बिना काम नहीं चलेगा। श्रुति-भगवती जो कहती है, वही प्रमाण है, जिसके विरुद्ध कुछ भी कहने का किसी को भी अधिकार नहीं है।

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हठयोग का ज्ञान भी उतना ही आवश्यक है जितना राजयोग का। हठयोग के उपलब्ध मूल ग्रंथ तीन हैं। बाकी सब उन्हीं का विस्तार है। हठयोग के तीनों ग्रंथ बाजार में धार्मिक पुस्तकों की हर बड़ी दुकान में मिल जाएँगे। वे है -- "घेरण्ड-संहिता", "शिव-संहिता", और "हठयोग-प्रदीपिका"।
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योगसाधना का ज्ञान वैदिक है, जिसका आरंभ कृष्ण-यजुर्वेद से होता है। कृष्ण-यजुर्वेद का "श्वेताश्वतरोपनिषद" योग-साधना का आरंभिक मूल ग्रंथ है। इस उपनिषद के छओं अध्यायों में जगत के मूल कारण, ॐकार-साधना, परमात्मतत्त्व से साक्षात्कार, ध्यानयोग, योग-साधना, जगत की उत्पत्ति, संचालन और विलय का कारण, विद्या-अविद्या, जीव की नाना योनियों से मुक्ति के उपाय, ज्ञानयोग और परमात्मा की सर्वव्यापकता का वर्णन किया गया है। यह भी हर घर में रखने योग्य ग्रंथ है।
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महर्षि पातंजलि का "योगदर्शन" राजयोग का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है। स्वामी ओमानन्द तीर्थ ने इस पर "पातंजलयोगप्रदीप" नाम से जो भाष्य लिखा है वह सबसे अधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय हुआ है। इसे गीताप्रेस गोरखपुर ने छापा है व उनकी सभी दुकानों पर उपलब्ध है। इसे पढ़ने की अनुशंसा मैं सभी से करता हूँ। यदि आप नहीं समझ सकें तो इसमें मेरा कोई दोष नहीं होगा। लेकिन घर में रखने योग्य ग्रंथ अवश्य है।
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वैसे तो सारे ही उपनिषद -- योग और ब्रह्मज्ञान के ग्रंथ हैं, लेकिन श्रीमद्भगवद्गीता सारे उपनिषदों का सार है। श्रीमद्भगवद्गीता -- योग शास्त्रों का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है। इसे भी समझाने वाला कोई आचार्य चाहिये। अनेक स्वनामधन्य आचार्यों ने इस पर भाष्य लिखे हैं। आप अपनी रुचि के अनुसार इसके कम से कम दो भाष्य स्वाध्याय के लिए अपने पास रखिए।
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योगमार्ग में सबसे पहली दीक्षा "हंसः योग" (अजपा-जप) की दी जाती है। रामचरितमानस में इसके बारे में लिखा है --
"सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा॥
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा॥"
भावार्थ - 'सोऽहमस्मि' (वह ब्रह्म मैं हूँ) यह जो अखंड (तैलधारावत कभी न टूटने वाली) वृत्ति है, वही (उस ज्ञानदीपक की) परम प्रचंड दीपशिखा (लौ) है। (इस प्रकार) जब आत्मानुभव के सुख का सुंदर प्रकाश फैलता है, तब संसार के मूल भेद रूपी भ्रम का नाश हो जाता है॥
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इस दीक्षा के पश्चात आचार्य द्वारा ओंकार-साधना, ध्यान, और सूक्ष्म-प्राणायामों की दीक्षा दी जाती है जिन से कुंडलिनी जागृत होती है। यह मार्ग छुरे की धार के समान तीक्ष्ण है। कृष्ण यजुर्वेद का कठोपनिषद इसे -- "क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति', बताता है, अतः श्रौत्रीय ब्रहमनिष्ठ आचार्य का मार्गदर्शन और संरक्षण अति अति आवश्यक है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर बावलिया मुद्गल
झुंझुनूं (राजस्थान)
१० सितंबर २०२४
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पुनश्च: --- जो निज जीवन में योग मार्ग का अवलंबन करना चाहते हैं, उन्हें उपनिषदों व श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय तो करना ही होगा। श्रीमद्भगवद्गीता सभी उपनिषदों का सार है। जीवन में किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ और श्रौत्रीय (जिन्हें श्रुतियों यानि वेदों का ज्ञान हो) गुरु का लाभ होना आवश्यक है। जब तक गुरु नहीं मिले तब तक भगवान श्रीकृष्ण को या भगवान शिव को ही गुरु मानिए।
गुरुकृपा से मुझे तो गीता का शंकर भाष्य समझ में आ जाता है, लेकिन इसे समझना सभी के लिए संभव नहीं है। अन्य भी अनेक महान आचार्यों के लिखे हुए भाष्य हैं, जो हिन्दी भाषा में भी उपलब्ध है ---
आजकल चिन्मय मिशन के द्वारा प्रकाशित स्वामी चिन्मयानंद का भाष्य बहुत लोकप्रिय है। यह हिन्दी में भी उपलब्ध है।
परमहंस योगानन्द का लिखा भाष्य "God Talks With Arjuna - The Bhagavad Gita" भी पूरे विश्व में बहुत अधिक प्रसिद्ध है। यह दो खंडों में है।
उनके एक अमेरिकन शिष्य स्वामी क्रियानंद का लिखा भाष्य "The Essence of Bhagavadgita" नामक भाष्य भी पश्चिमी जगत में बहुत लोकप्रिय है। उपरोक्त दोनों हिंदी में भी उपलब्ध है।
पिछली शताब्दी में वाराणसी के स्वामी प्रणवानन्द जी ने "प्रणवगीता" नामक भाष्य छपवाया था जो अभी भी उपलब्ध है और बहुत लोकप्रिय है।
बिहार के महान बंगाली योगी श्रीमत् भूपेंद्रनाथ सान्याल महाशय का तीन खंडों में लिखा गीता भाष्य बहुत विस्तृत और शानदार है। हरेक घर में यह होना चाहिए।
लखनऊ के रामतीर्थ मिशन ने भी हिन्दी भाषा में गीता का एक बहुत शानदार भाष्य छपवाया था। पता नहीं वह अभी प्रकाशन में है या नहीं। यदि उपलब्ध है तो खरीद लेना चाहिए। बहुत अच्छा है।
पुराने जमाने के भी बहुत सारे भाष्य हैं जो मूल रूप से संस्कृत में है। उन के हिन्दी अनुवाद समझ में नहीं आते।
अभ्यास करते करते भगवान का ध्यान हमारा स्वभाव बन जाता है। इसका अभ्यास दीर्घ काल तक करना पड़ता है। हमारे कर्म अच्छे होंगे तो हमारे जीवन में निश्चित रूप से किन्हीं श्रौत्रीय (जिन्हें श्रुतियों यानि वेदों का ज्ञान हो) गुरु का पदार्पण होगा। तब तक भगवान श्रीकृष्ण को ही अपना गुरु मानिये।
जो तंत्रमार्ग की साधना करते हैं, वे भगवान शिव को अपना गुरु मानें।
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