मेरी बात आपको बुरी लग सकती है, लेकिन सत्य है। भगवान तो मिले हुए हैं, वे ही सारा अस्तित्व हैं, वे कहीं दूर नहीं हैं, फिर किसको पाने की कामना कर रहे हो? यह कामना ही सबसे बड़ा धोखा है। वे निकटतम से भी अधिक निकट और प्रियतम से भी अधिक प्रिय हैं।
हर समय हम साँस लेते हैं। जिस वायु को हम ग्रहण कर रहे हैं, वह वायु भी परमात्मा है। जो साँसें ले रहा है और छोड़ रहा है, वह भी परमात्मा है। प्यास परमात्मा को ही लगती है। हमारे कुछ होने का भ्रम सबसे बड़ा धोखा है। प्यास लगने पर जो जल हम पीते हैं वह जल भी परमात्मा है और पीने वाला भी परमात्मा है। भूख किसको लगती है? परमात्मा को। जो भोजन है वह परमात्मा है, और उसे ग्रहण करने वाला भी परमात्मा है। जो हमारे इस देह का, और समस्त सृष्टि का संचालन कर रहा है, वह परमात्मा ही है। जो कुछ भी खुली व बंद आँखों से हमें दिखाई दे रहा है, वह सब परमात्मा है। विष्णु-सहस्त्रनाम का आरंभ ही कहता है -
"ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः।
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः॥१॥"
जिसका यज्ञ और आहुतियों के समय आवाहन किया जाता है उसे वषट्कार कहते हैं। भूतभव्यभवत्प्रभुः का अर्थ भूत, वर्तमान और भविष्य का स्वामी होता है। सब जीवों के निर्माता को भूतकृत् कहते हैं, और सभी जीवों के पालनकर्ता को भूतभृत्। आगे कुछ बचा ही नहीं है। "ॐ विश्वं विष्णु: ॐ ॐ ॐ" --- बस इतना ही पर्याप्त है पुरुषोत्तम के गहरे ध्यान में जाने के लिए।
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नित्य प्रातः उठते ही भगवान मुझे पकड़ लेते हैं। उनकी पकड़ से छूटना असंभव है। भगवान से नहीं लड़ सकता, इसलिए उनको आत्म-समर्पण कर रहा हूँ। अपनी लड़ाई वे स्वयं लड़ें।
लोग कहते हैं कि भगवान हमारे हृदय में हैं। लेकिन हमारा हृदय कहाँ है? भगवान की ज्योति ही मेरा हृदय है। जहां जहां भी भगवान की ज्योति दिखाई देती हैं, वहीं मेरा हृदय है। कभी कभी वह ज्योति सर्वत्र होती है, तो मैं भी सर्वत्र हूँ। वह ज्योति ही भगवान के चरण-कमल है, जिनमें ही मेरा आश्रय है।
अन्य कुछ भी इस समय चर्चा का विषय नहीं है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ सितंबर २०२४
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