Thursday, 21 May 2020

हमें परमात्मा की प्राप्ति कब होगी?

हमें परमात्मा की प्राप्ति कब होगी?

यह एक शाश्वत प्रश्न है जिसका उत्तर बड़े स्पष्ट शब्दों में परमात्मा ने स्वयं दिया है| शांत, मौन और एकांत में उन के प्रति अपने परमप्रेम को पूर्ण सत्यनिष्ठा, श्रद्धा और विश्वास से स्वयं में व्यक्त करो| जब अन्तःकरण शांत होगा तब उन की उपस्थिति का आभास निश्चित रूप से होता है| वे नित्य निरंतर हमारे कूटस्थ में बिराजमान हैं| अपनी सभी दुर्बलताओं से ऊपर उठ कर कूटस्थ में उन का ध्यान करो| उनके प्रति अभीप्सा व प्रेम में कोई कमी नहीं होनी चाहिए|
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अब शिकायत करने को कुछ बचा भी नहीं है| सारी दुर्बलताओं/कमजोरियों का आभास भी उन्होने करा दिया है और उन से ऊपर उठने के उपाय भी बता दिये हैं| हमारी भक्ति व साधना हमारे और परमात्मा के मध्य का व्यक्तिगत मामला है, इसमें किसी भी तरह का दिखावा नहीं होना चाहिए| इस में किसी अन्य का कोई काम नहीं है| किसी अन्य पर चाहे वह कोई भी क्यों न हो, किसी भी तरह की निर्भरता नहीं होनी चाहिए| सत्यनिष्ठा हो तो वे स्वयं हमारे हर प्रश्न का उत्तर देते हैं|
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२२ मई २०२०

वीतरागता :---

वीतरागता :---

राग और द्वेष ये दो ही पुनर्जन्म यानि इस संसार में बारम्बार आने के मुख्य कारण हैं| जिनसे भी हम राग या द्वेष रखते हैं, अगले जन्म में उन्हीं के परिवार में जन्म होता है| जिस भी परिस्थिति और वातावरण से हमें राग या द्वेष है, वही वातावरण और परिस्थिति हमें दुबारा मिलती है| राग और द्वेष ही लोभ और अहंकार को जन्म देते हैं| मैं तो अपने जीवन में इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि मनुष्य का लोभ और अहंकार ही मनुष्य के सारे पापों का मूल, सब बुराइयों की जड़ और सब प्रकार की हिंसा का एकमात्र कारण है| मनुष्य के लोभ और अहंकार का जन्म भी राग और द्वेष से ही होता है|
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राग और द्वेष से मुक्त होने को 'वीतरागता' कहते हैं| यह मुक्ति का मार्ग है| जैन मत का तो उद्देश्य ही वीतरागता को प्राप्त होना है| यह भगवान महावीर के उपदेशों का सार है| वीतरागता मनुष्यत्व की वह परम अवस्था है जहाँ पर हम राग व विराग के भाव से मुक्त होकर परम-तत्व से साक्षात्कार करने लगते हैं| वीतरागी के लिए स्वर्ण व धूलि एक समान होते हैं, वह कुछ पकड़ता भी नहीं है और कुछ छोड़ता भी नहीं है| यह चैतन्य की एक बहुत ऊँची अवस्था है|
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गुरुगीता का ८९ वां श्लोक कहता है .....
"न तत्सुखं सुरेन्द्रस्य न सुखं चक्रवर्तिनाम्| यत्सुखं वीतरागस्य मुनेरेकान्तवासिनः ||"
अर्थात् एकान्तवासी वीतराग मुनि को जो सुख मिलता है वह सुख न इन्द्र को और न चक्रवर्ती राजाओं को मिलता है|
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वीतराग पुरुषों का चिंतन कर, उन्हें चित्त में धारण कर, उनके निरंतर सत्संग से हम स्वयं भी वीतराग हो जाते हैं| योगसूत्रों में एक सूत्र है ...."वीतराग विषयं वा चित्तम्'||
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वीतरागता ही वैराग्य है| भगवान श्रीकृष्ण हमें 'स्थितप्रज्ञ मुनि' होने का आदेश देते हैं जिसके लिए वीतराग तो होना ही पड़ता है .....
"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः| वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते||२:५६||"
दुःख तीन प्रकार के होते हैं .... "आध्यात्मिक", "आधिभौतिक" और "आधिदैविक"| इन दुःखों से जिनका मन उद्विग्न यानि क्षुभित नहीं होता उसे "अनुद्विग्नमना" कहते हैं|
सुखों की प्राप्ति में जिसकी स्पृहा यानि तृष्णा नष्ट हो गयी है (ईंधन डालने से जैसे अग्नि बढ़ती है वैसे ही सुख के साथ साथ जिसकी लालसा नहीं बढ़ती) वह "विगतस्पृह" कहलाता है|
राग, द्वेष और अहंकार से मुक्ति वीतरागता है| जो वीतराग है और जिसके भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, वह "वीतरागभयक्रोध" कहलाता है|
ऐसे गुणोंसे युक्त जब कोई हो जाता है तब वह "स्थितधी" यानी "स्थितप्रज्ञ" और मुनि या संन्यासी कहलाता है| यह स्थितप्रज्ञता" ही वास्तविक "स्वतन्त्रता" है|
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भगवान श्रीकृष्ण ने राग-द्वेष से मुक्ति और वीतराग होने का मार्ग भी बता दिया है .....
"यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः| यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये||८:११||"
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च| मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्||८:१२||"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्| यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्||८:१३||"
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः| तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः||८:१४||"
"मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्| नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः||८:१५||'
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यह लेख बहुत अधिक लंबा हो गया है अतः इसका समापन यहीं करता हूँ| परमात्मा को कर्ता बनाकर सब कार्य करो| कर्तव्य निभाते हुए भी अकर्ता बने रहो| सारे कार्य परमात्मा को समर्पित कर दो, फल की अपेक्षा या कामना मत करो| किसी को किसी के प्रति भी राग और द्वेष मत रखो| बुराई का प्रतिकार करो, युद्धभूमि में शत्रु का भी संहार करो पर ह्रदय में घृणा बिलकुल भी ना हो| ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ मई २०२०
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पुनश्च: :---
परमात्मा में गहराई से स्थित होने पर ही मनुष्य का आचरण सही हो सकता है, अन्यथा नहीं| मुझे हर्ष तो तब होता है जब मैं पतित से पतित व्यक्ति का भी उत्थान होते हुए देखता हूँ| बड़े बड़े संतों का भी लोकेषणा व विषयेषणा के कारण पतन होते हुए देखा है| मेरे स्वयं के अनुभव भी हैं और पूर्वजन्म की कुछ स्पष्ट स्मृतियाँ भी हैं जिन्हें मैं किसी के साथ कभी साझा नहीं करता| एक बार एक पहुंचे हुए वयोवृद्ध विदेशी संत ने जो मुझे पिछले जन्म से जानते थे पहिचान भी लिया और बताया भी| पर मैंने तुरंत विषय बदल दिया, और आगे इस विषय पर बात नहीं होने दी|
मैं स्वयं के भी उत्थान, पतन और पुनश्च उत्थान व पतन का साक्षी हूँ| इस जन्म में अब और पतन न हो, मेरे आचरण, व्यवहार और विचारों में शुचिता बनी रहे, यही भगवान से प्रार्थना है|

भ्रूमध्य में ध्यान की महिमा .....

भ्रूमध्य में ध्यान की महिमा

भ्रूमध्य अवधान का भूखा है| कामनाओं से मुक्ति पाने के लिए हमें अपनी चेतना को सदा "भ्रूमध्य" में रखने और परमात्मा के ध्यान का नित्य नियमित अभ्यास करना होगा| यहाँ ध्यान से मेरा तात्पर्य है .... अजपा-जप (हंसयोग, शिवयोग), नादानुसंधान व क्रियायोग| खोपड़ी के पीछे का भाग मेरुशीर्ष (Medulla Oblongata) हमारी देह का सर्वाधिक संवेदनशील स्थान है जहाँ मेरुदंड की सभी नाड़ियाँ मष्तिष्क से मिलती हैं| इस भाग की कोई शल्यक्रिया नहीं हो सकती| हमारी सूक्ष्म देह में आज्ञाचक्र यहीं पर स्थित है| यह स्थान भ्रूमध्य के एकदम विपरीत दिशा में है| योगियों के लिए यह उनका आध्यात्मिक हृदय है| यहीं पर जीवात्मा का निवास है| इसके थोड़ा सा ऊपर ही शिखा बिंदु है जहाँ शिखा रखते हैं| उस से ऊपर सहस्त्रार और ब्रह्मरंध्र है|
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गुरु की आज्ञा से शिवनेत्र होकर यानि बिना किसी तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासिकामूल के समीपतम लाकर, भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, खेचरी मुद्रा में या जीभ को बिना किसी तनाव के ऊपर पीछे की ओर मोड़कर तालू से सटाकर रखते हुए, प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को अपने अंतर में सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का ध्यान-चिंतन नित्य नियमित करें| गुरु की कृपा से कुछ महिनों या वर्षों की साधना के पश्चात् विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होती है| यह ब्रह्मज्योति और प्रणव की ध्वनि दोनों ही आज्ञाचक्र में प्रकट होती हैं, पर इस ज्योति के दर्शन भ्रूमध्य में प्रतिबिंबित होते हैं, इसलिए गुरु महाराज सदा भ्रूमध्य में ध्यान करने की आज्ञा देते हैं| ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के पश्चात् उसी की चेतना में सदा रहें| यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता| यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है| यह योगमार्ग की उच्चतम साधनाओं/उपलब्धियों में से एक है|
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कूटस्थ में परमात्मा सदा हमारे साथ हैं| हम सदा कूटस्थ चैतन्य में रहें| कूटस्थ में समर्पित होने पर ब्राह्मी स्थिति प्राप्त होती है जिसमें हमारी चेतना परम प्रेममय हो समष्टि के साथ एकाकार हो जाती है| हम फिर परमात्मा के साथ एक हो जाते हैं| भगवान कहते हैं ....
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति| स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति||२:७२||"
अर्थात् हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है| इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता| अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है||
यह अवस्था ब्राह्मी यानी ब्रह्म में होनेवाली स्थिति है, अर्थात् सर्व कर्मों का संन्यास कर के केवल ब्रह्मरूप से स्थित हो जाना है|
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परमात्मा सब गुरुओं के गुरु हैं| उनसे प्रेम करो, सारे रहस्य अनावृत हो जाएँगे| हम भिक्षुक नहीं हैं, परमात्मा के अमृत पुत्र हैं| एक भिखारी को भिखारी का ही भाग मिलता है, पुत्र को पुत्र का| पुत्र के सब दोषों को पिता क्षमा तो कर ही देते हैं, साथ साथ अच्छे गुण कैसे आएँ इसकी व्यवस्था भी कर ही देते हैं| भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं ....
"प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव |
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैतिदिव्यं" ||८:१०||
अर्थात भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित कर के, फिर निश्छल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य रूप परम पुरुष को ही प्राप्त होता है|
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आगे भगवान कहते हैं .....
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च | मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ||८:१२||
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् | यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ||८:१३||
अर्थात सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृदय में स्थिर कर के फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित कर के, योग धारणा में स्थित होकर जो पुरुष 'ॐ' एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है|
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निश्छल मन से स्मरण करते हुए भृकुटी के मध्य में प्राण को स्थापित करना और ॐकार का निरंतर जाप करना ..... यह एक दिन का काम नहीं है| इसके लिए हमें आज से इसी समय से अभ्यास करना होगा| उपरोक्त तथ्य के समर्थन में किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, भगवान का वचन तो है ही, और सारे उपनिषद्, शैवागम और तंत्रागम इसी के समर्थन में भरे पड़े हैं|
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ध्यान का अभ्यास करते करते चेतना सहस्त्रार पर चली जाए तो चिंता न करें| सहस्त्रार तो गुरु महाराज के चरण कमल हैं| कूटस्थ केंद्र भी वहीं चला जाता है| वहाँ स्थिति मिल गयी तो गुरु चरणों में आश्रय मिल गाया| चेतना ब्रह्मरंध्र से परे अनंत में भी रहने लगे तब तो और भी प्रसन्नता की बात है| वह विराटता ही तो विराट पुरुष है| वहाँ दिखाई देने वाली ज्योति भी अवर्णनीय और दिव्यतम है| परमात्मा के प्रेम में मग्न रहें| वहाँ तो परमात्मा ही परमात्मा होंगे, न कि हम|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२० मई २०२०

"नाम और रूप" में कौन बड़ा है, और कौन छोटा? .....

"नाम और रूप" में कौन बड़ा है, और कौन छोटा? यह कहना अपराध है| नाम के बिना रूप का ज्ञान नहीं हो सकता| भेद दृष्टि अपराध है| जो भेद दृष्टि रखते हैं, उनके घर में आसुरी संतान जन्म लेती है| जो भेद दृष्टि नहीं रखते उनके घर में देवशक्ति से सम्पन्न संतान हैती हैं| जैसे दिति - अदिति| दिति अर्थात भेद, अदिति अर्थात अभेद| भेद से हिरण्याक्ष, हिरण्यकश्यपु| अभेद से बटुक वावन| दृष्टि बदली कि सृष्टि बदली| पूर्वजन्म में हमने मुक्ति का मार्ग नहीं अपनाया , मुक्ति हुई नहीं इसलिए तो भौतिक शरीर में जन्म लिया| अच्छाई को न ग्रहण करना भी महापाप है|
......(एक संत का प्रसाद)
समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी।।
नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी।।
को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेद समुझिहहिं साधू।।
देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना।।
रूप बिसेष नाम बिनु जानें। करतल गत न परहिं पहिचानें।।
सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें। आवत हृदयँ सनेह बिसेषें।।
नाम रूप गति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी।।
अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी।।