Friday, 4 June 2021

इस छोटे से हृदय में वे कैसे समा जाते है?

 भगवान तो बहुत विराट हैं, फिर वे इस छोटे से हृदय में कैसे समा जाते है? एक छोटी सी कटोरी लेकर महासागर से जल मांगने चला गया| महासागर ने कहा कि यह सारा जल तुम्हारा है, ले लो| कटोरी तो बहुत छोटी थी, किसी काम की नहीं थी, अतः फेंक दी| जल कैसे लें? आश्चर्य! सारा जल या तो इस छोटे से हृदय में भर गया, या फिर हृदय ही जल की एक बूंद बनकर उस महासागर में समा गया|

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अब सब कुछ खत्म हो गया है| सिर्फ भगवान वासुदेव ही सामने रह गए हैं|

४ जून २०२०

हमारा प्रथम, अंतिम और एकमात्र लक्ष्य है -- परमात्मा की प्राप्ति ---

 हमारा प्रथम, अंतिम और एकमात्र लक्ष्य है ... परमात्मा की प्राप्ति .....

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परमात्मा की प्राप्ति हमें क्यों नहीं होती और वे कैसे प्राप्त हों? इसका जितना स्पष्ट वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता में है उतना अन्यत्र कहीं भी नहीं है| स्वाध्याय और पुरुषार्थ तो हमें स्वयं को ही करना होगा, कोई दूसरा इसे हमारे लिए नहीं कर सकता| हमें न तो किसी मध्यस्थ व्यक्ति को प्रसन्न करना है और न किसी मध्यस्थ व्यक्ति के पीछे पीछे भागना है| किसी भी तरह के वाद-विवाद में न पड़ कर अपना समय नष्ट न करें और उसका सदुपयोग परमात्मा के अपने प्रियतम रूप के नाम-जप और ध्यान में लगाएँ|
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कमर को सीधी कर के बैठें, भ्रूमध्य में जप और ध्यान करें| एकाग्रचित्त होकर उस ध्वनि को सुनते रहें जो ब्रह्मांड की ध्वनि है| हम यह देह नहीं है, परमात्मा की अनंतता हैं| अपनी सर्वव्यापकता पर ध्यान करें| फिर पाएंगे कि परमात्मा तो वहीं बैठे हैं, जहाँ पर हम हैं|
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः|९:३४||"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे||१८:६५||
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज| अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः||१८:६६||
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परमात्मा से "परम प्रेम" और "समर्पण" का स्वभाव हमें अपने "शिवत्व" का बोध कराता है| अपने "भौतिक व्यक्तित्व से मोह" हमारे "लोभ व अहंकार" को जगाकर हमें "हिंसक" बनाता है| स्वयं के भौतिक व्यक्तित्व की दासता और मोह हमें हिंसक बना देता है| इस व्यक्तित्व की दासता से मुक्त होने का एकमात्र उपाय है ..... "परमात्मा से परम-प्रेम और समर्पण"| जब हम परमात्मा को "प्रेम" और "समर्पण" करते हैं तब वही "प्रेम" और "समर्पण" अनंत गुणा होकर हमें ही बापस मिलता है| तब हम "जीव" नहीं, स्वयं साक्षात "शिव" बन जाते हैं|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ अप्रेल २०२०

"वासुदेवः सर्वं इति" ---

 "वासुदेवः सर्वं इति" .....

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अत्यधिक भावुक हो कर भावविभोर व भावविह्वल होना मेरी एक कमजोरी है जिस पर नियंत्रण मेरे वश में नहीं है| अपनी इस कमजोरी को एक ईश्वर-प्रदत्त अवसर मानकर उसका सदुपयोग करना ही विवेक है| आजकल कुछ भी लिखना असंभव सा हो गया है| कुछ भी लिखते हैं या करते हैं तो भगवान वासुदेव की साकार छवि सामने आ जाती है| अब उन्हें निहारें या अन्य कोई काम करें? उन्हें निहारना ही अधिक प्रिय लगता है| पूरी सत्यनिष्ठा से यह अप्रिय सत्य लिख रहा हूँ कि मेरी सारी साधनायें छुट गई हैं| जो कुछ भी होता है या जो कुछ भी यदि कोई करता है, तो वे ही करते हैं, मैं नहीं| जब "वासुदेवः सर्वं इति" हो जाता है तब कोई भी साधना संभव ही नहीं रहती है| यह अपने आप में ही एक साधना बन जाती है| भगवान कहते हैं ....
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते| वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः||७:१९||"
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यह अनुभूति ईश्वर की परम कृपा से ही होती है| जब भगवान ने करुणावश इतनी बड़ी कृपा की है तो इसे क्यों नकारें? इस जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि ही मैं यही मानता हूँ| भगवान ने गीता के सातवें अध्याय में ही कहा है कि भोग-विलास की थोड़ी सी भी कामना जिनमें बाकी है उनसे वे भी दूर ही रहते हैं|
तेरहवें अध्याय में तो वे स्पष्ट कहते हैं ....
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी| विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि||१३:११||"
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और कुछ भी लिखना अब संभव नहीं है|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ जून २०२०