Tuesday 24 January 2017

कर्ता कौन है और भोक्ता कौन है ..........


कर्ता कौन है और भोक्ता कौन है ? ......

इस सारी सृष्टि का उद्भव परमात्मा के संकल्प से हुआ है| और वे ही है जो सब रूपों में स्वयं को व्यक्त कर रहे है| कर्ता भी वे है और भोक्ता भी वे ही है|
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वे स्वयं ही अपनी सृष्टि के उद्भव, स्थिति और संहार के कर्ता है| जीवों की रचना भी उन्हीं के संकल्प से हुई है| सारे कर्मों के कर्ता भी वे ही है और भोक्ता भी वे ही है| सृष्टि का उद्देष्य ही यह है कि आप अपनी सर्वश्रेष्ठ सम्भावना को व्यक्त कर पुनश्चः उन्हीं की चेतना में जा मिलें| यह उन्हीं की माया है जो अहंकार का सृजन कर आपको उन से पृथक कर रही है| ये संसार के सारे दु:ख और कष्ट भी इसी लिए हैं कि आप परमात्मा से अहंकारवश पृथक है और इनसे मुक्ति भी परमात्मा में पूर्ण समर्पण कर के ही मिल सकती है|

भगवान के पास सब कुछ है पर एक ऐसी भी चीज है जो आपके पास तो है पर उन के पास नहीं है क्योंकि उन्होंने वह चीज अपने पास रखे बिना सारी की सारी आप को ही दे रखी है| भगवान भी उसको बापस पाने के लिए तरसते हैं| उसके बिना भगवान भी दु:खी हैं| वह सिर्फ आप ही उन्हें दे सकते हैं, कोई अन्य नहीं| और वह है आपका अहैतुकी परम प्रेम|
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भगवान ने आपको सब कुछ दिया है, आप भगवान से सब कुछ माँगते हो| पर क्या आप भगवान को वह चीज नहीं दे सकते जो वे आपसे बापस चाहते हैं?????
भगवान भी उसके लिए तरस रहे हैं| वे भी सोचते हैं कि कभी तो कोई तो उनकी संतान उनको प्रेम करेगी| वे भी आपके प्रेम के बिना दु:खी हैं चाहे वे स्वयं सच्चिदानंद हों|
भगवन आपसे प्रसन्न तभी होंगे जब आप अपना पूर्ण अहैतुकी परम प्रेम उन्हें दे दोगे| अन्य कोई मार्ग नहीं है उन को प्रसन्न करने का|
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कृपया इस पर विचार करें| धन्यवाद|
ॐ तत्सत्|

मानसिक द्वंद्व : आध्यात्म मार्ग की एक बाधा .....


मानसिक द्वंद्व : आध्यात्म मार्ग की एक बाधा  .....
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जब चेतन और अचेतन मन में संघर्ष रहता है या उन में संतुलन नहीं रहता तो प्राण शक्ति अवरुद्ध हो जाती है| ऐसी अवस्था में व्यक्ति का तारतम्य बाहरी जगत से नहीं रहता, खंडित व्यक्तित्व की भूमिका बन जाती है और मानसिक संतुलन बिगड़ने लगता है|
 

ऐसी स्थिति में व्यक्ति विक्षिप्त यानि पागल भी हो सकता है|
यह बड़ी दु:खद परिस्थिति होती है जो आध्यात्म मार्ग के अनेक साधकों विशेषतः योग मार्ग के पथिकों के समक्ष आती है| ऐसी परिस्थिति में साधक को सद्गुरु का सहारा चाहिए|
ऐसी परिस्थिति का निर्माण तब होता है जब निम्न अधोगामी प्रकृति अवचेतन मन में निहित वासनाओं के प्रभाव से साधक को भोग विलास की ओर खींचती है; और उसकी उन्नत आत्मा अपने ऊर्ध्वगामी शुभ कर्मों के प्रभाव से उसे परमात्मा की ओर आकर्षित करती है| एक तरह की रस्साकशी चैतन्य में होने लगती है और द्वन्द्वात्मक स्थिति उत्पन्न हो जाती है|

एक शक्ति आपको ऊपर यानि ईश्वर की ओर खींचती है और दूसरी शक्ति विषय-वासनाओं व भोग विलास की ओर| ऐसी स्थिति में पागलपन से बचने का एक ही उपाय है कि उस समय जैसी और जिस परिस्थिति में आप हैं उस का तुरंत त्याग कर दें| अपने से अधिक उन्नत साधकों के साथ या किसी संत महापुरुष सद्गुरु के सान्निध्य में रहें| सात्विक भोजन लें और हर तरह के कुसंग का त्याग करें| ऐसे वातावरण में भूल से भी ना जाएँ जो आपको अपने लक्ष्य यानि परमात्मा से दूर ले जाता है|

वातावरण इच्छा शक्ति से अधिक प्रभावशाली होता है| अतः जो आप बनना चाहते हैं वैसे ही वातावरण और परिस्थिति का निर्माण करें और उसी में रहें| नियमित निरंतर साधना और किसी महापुरुष का आश्रय साधक की हर प्रकार के विक्षेप से रक्षा करता है|

ॐ गुरु| ॐ तत्सत्|

आत्म राज्य .....हमारी स्वाधीनता और स्वतन्त्रता ......

आत्म राज्य .....हमारी स्वाधीनता और स्वतन्त्रता .......
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कभी हम भी एक चक्रवर्ती सम्राट थे, हमारी भी एक महान सत्ता थी और हम अपने विशाल साम्राज्य के स्वामी थे जिसको चुनौती देने वाला कोई नहीं था| यह सत्य है| वह राज्य था --- हमारा "आत्म राज्य"|
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पर अब हम अपना सब कुछ खो चुके हैं और "स्वाधीन" भी नहीं रहे हैं|
हमारा "स्वराज्य" भी नहीं रहा है|
क्या हम अपने खोये हुए राज्य को पुनश्चः प्राप्त कर सकेंगे?
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निश्चित रूप से -- "हाँ" | क्योंकि अब परमशिव परब्रह्म परमात्मा की इच्छा है कि हम अपने खोये हुए "महान साम्राज्य" को प्राप्त करें और पुनश्चः उसके "स्वामी" बनें| उनकी इच्छा हमें स्वीकार करनी ही पड़ेगी|
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वासनाओं व कामनाओं के कारण ही हम अपना "आत्म राज्य" और "स्वाधीनता" खो बैठे और "पराधीन" हो गए| अन्यथा हम भी "स्वतंत्र" थे| अपने "आत्म तत्व" को भूलकर हम अपने इस देह रुपी वाह्न की चेतना से जुड़कर यह भूल गये कि यह तो इस लोकयात्रा का एक साधन मात्र है|
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जिस आनंद को हम अब तक ढूँढ रहे थे वह आनंद तो हम स्वयं हैं| हम यह देह नहीं हैं|
पिता की संपत्ति पर पुत्र का अधिकार होता है| हम परमात्मा के अमृतपुत्र हैं अतः परमशिव परब्रह्म परमात्मा के परम प्रेम और पूर्णता पर हमारा जन्मसिद्ध पूर्ण अधिकार है|
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परमात्मा की सर्वव्यापकता ही हमारा घर है, और उनका प्रेम ही है हमारा अस्तित्व| परमात्मा का ऐश्वर्य ही हमारा भी ऐश्वर्य है| उनका "शिवत्व" ही हमारा साम्राज्य है जिसके लिए हमें सभी कामनाओं और वासनाओं से मुक्त हो कर, परम प्रेममय होकर उसे प्राप्त करना ही होगा|
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इतना महान राज्य हमने एक क्षण में इस देह के नाम रूप मोह और वासनाओं के वशीभूत होकर त्याग दिया| यही हमारे तापों का कारण है|
उस खोए हुए महान साम्राज्य को हम उपलब्ध होंगे, निश्चित रूप से होंगे क्योंकि वही हमारा अस्तित्व है|
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अयमात्मा ब्रह्म | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
माघ कृ.१ वि.स.२०७२, 25 जनवरी 2016

ठाकुर जी (भगवान श्रीकृष्ण) बाँके-बिहारी क्यों हैं ? .......

वंशी विभूषित करा नवनीर दाभात् पीताम्बरा दरुण बिंब फला धरोष्ठात्
पूर्णेन्दु सुन्दर मुखादर बिंदु नेत्रात् कृष्णात परम किमपि तत्व महम नजानि...
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ठाकुर जी (भगवान श्रीकृष्ण) बाँके-बिहारी क्यों हैं ? .......
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आप में से अधिकाँश श्रद्धालु वृन्दावन तो गए ही होंगे, और वहाँ बाँके-बिहारी जी के दर्शन भी किये होंगे| अन्यत्र भी बिहारी जी के सभी मंदिरों में ऐसा ही विग्रह है| ठाकुर जी ने स्वयं की देह को तीन स्थानों से बाँका यानी आड़ा-टेढ़ा तिरछा कर रखा है| इसे त्रिभंग मुद्रा कहते हैं| कुछ लोग इसे त्रिभंग-मुरारी मुद्रा भी कहते हैं| इस त्रिभंग मुद्रा का बहुत गहरा आध्यात्मिक रहस्य है जिसे हर कोई नहीं समझ सकता| कुछ इस विषय पर एक अति लघु चर्चा करेंगे|
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भक्तों के लिए ठाकुर जी इतने सुन्दर हैं कि एक बार भी जो इनके दर्शन करता हैं उसका ह्रदय चोरी हो जाता है, यानि ठाकुर जी स्वयं उसका ह्रदय चुराकर उसमें बिराजमान हो जाते हैं| ठाकुर जी एक बार ह्रदय में आ गए तो बाँके हो जाते हैं ........ फिर कभी बाहर नहीं निकलते| भक्तों के लिए वे इसीलिए बाँके बिहारी हैं|
फिर तो उनके प्रेम का जादू ही सिर पर चढ़कर बोलता है|
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योगियों के लिए यह अज्ञान की तीन ग्रंथियों के भंग करने यानि भेदन करने के लिए है| एक अति उन्नत योगमार्ग के साधक द्वादशाक्षरी भागवत मन्त्र का जाप एक अति गोपनीय विधि से सुषुम्ना नाड़ी के षटचक्रों में और सहस्त्रार तक करते हैं| इस विधि में ब्रह्मग्रन्थी, विष्णुग्रंथी और रुद्रग्रंथी (क्रमशः मूलाधार, अनाहत और आज्ञाचक्र) पर प्रहार होता है जो इन अज्ञान ग्रंथियों के भेदन के लिए है|
हाथों में बांसुरी है जिसके छओं छिद्र सुषुम्ना के षटचक्र है और सातवाँ छिद्र जिससे फूँक मार रहे हैं वह सहस्त्रार है| इस बांसुरी से ओंकार की ध्वनी निकल रही है जिससे सृष्टि का सृजन हो रहा है| योगी साधक उस ओंकार पर ही ध्यान करते हैं और उसी में लय हो कर ब्रह्ममय हो जाते हैं| यह योगमार्ग की उच्चतम साधना है|
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सार की बात यह हैं कि यह भगवान श्रीकृष्ण का सुन्दरतम विग्रह है जो निरंतर ह्रदय में रहता है| योगमार्ग के साधकों के लिए उनका ह्रदय इस देह का भौतिक ह्रदय नहीं बल्कि कूटस्थ (आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य दिखाई देने वाली ज्योति और नाद) होता है जहाँ उनकी चेतना घनीभूत हो जाती है| उस चेतना में रहना ही कूटस्थ चैतन्य है|
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बाँके बिहारी, तेरी छटा न्यारी| तुम्हारी जय हो| जब से तुम मेरे कूटस्थ ह्रदय में आये हो, यह ह्रदय तुम्हारा ही स्थायी निवास हो गया है| बस अब तुम ही तुम रहो| जय हो, जय हो, जय हो, तुम्हारी जय हो||
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अयमात्मा ब्रह्म | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
माघ कृ.१ वि.स.२०७२, 25 जनवरी 2016

वह तो आप स्वयं ही हो .....

जिसे आप ढूँढ रहे हो, जिसके लिए आप व्याकुल हो, जिसे पाने के लिए आपके ह्रदय में एक प्रचंड अग्नि जल रही है, जिसे पाने के लिए एक अतृप्त प्यास ने आपको व्याकुल कर रखा है, .............. वह तो आप स्वयं ही हो|
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उसे देखने के लिए, उसे अनुभूत करने के लिए और उसे जानने या समझने के लिए कुछ तो दूरी होनी चाहिए| पर वह तो निकटतम से भी निकट है, अतः उसका कुछ भी आभास नहीं हो रहा है| वह आप स्वयं ही हो|
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उस स्वयं को, उस आत्मतत्व को जानना ही परमात्मा को जानना है| ॐ ॐ ॐ ||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
माघ कृ.१ वि.स.२०७२, 24 जनवरी 2016