Monday 3 January 2022

असहमति में उठा मेरा हाथ ---

असहमति में उठा मेरा हाथ ---
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असहमत होने का अधिकार मुझे भारत के संविधान ने दिया है, और सुप्रीम कोर्ट ने भी इसका समर्थन किया है। किसी को गोली मारने का मैं समर्थन नहीं करता, लेकिन ब्रह्मचर्य के परयोग करने वाले महातमा को राष्ट्रपिता कहने को मैं बाध्य नहीं किया जा सकता। भारत के राष्ट्रपिता तो स्वयं भगवान विष्णु हैं जिन्होंने बार बार अवतृत होकर अपनी लीलाओं द्वारा धर्म की रक्षा की है। भारत का नाम भारत ही पड़ा है प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को या उनके पुत्र भरत को भी राष्ट्रपिता घोषित किया जा सकता है।
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१४ अगस्त १९४७ को महातमा की नीतियों ने पाकिस्तान को जन्म दिया। पाकिस्तान का क़ायदे-आज़म जिन्ना था और और पिता था महातमा मोहनदास गांधी। गोली मारना गलत था, लेकिन गोडसे ने न्यायालय में जो बयान दिया था वह अकाट्य तर्कों के साथ था, इसलिए उन बयानों को छापने पर लगभग चालीस वर्षों तक प्रतिबंध लगा दिया गया था। उसके बयान में दिये तर्कों का खंडन करने की सामर्थ्य किसी में भी नहीं है। अनुत्तरित प्रश्न तो ये भी हैं कि --
(१) गोली लगने के बाद भी जीवित गांधी को किसी अस्पताल में ले जाकर इलाज़ क्यों नहीं करवाया गया?
(२) किसी डॉक्टर को भी इलाज करने के लिए मौके पर क्यों नहीं बुलाया गया?
(३) उन्हें बिना इलाज़ के ही मरने के लिए क्यों छोड़ दिया गया?
(४) मरने के बाद उनकी लाश का पोस्टमार्टम क्यों नहीं करवाया गया?
(५) गोली चलाने के लिए गोडसे के पास पिस्तोल कहाँ से आई? उस समय के क़ानूनों के अनुसार तो यह संभव ही नहीं था कि बिना लाइसेन्स के कोई किसी भी तरह का हथियार रख सके।
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गाँधी का वध गलत था, पर उसकी प्रतिक्रिया में महाराष्ट्र में पुणे के आसपास के हजारों निर्दोष ब्राह्मणों की कांग्रेसियों द्वारा की गई सामूहिक हत्या क्या अहिंसा थी? गांधी वध के बाद पुणे में लगभग ६ हजार, और पूरे महाराष्ट्र में लगभग १३ हजार निर्दोष ब्राह्मणों की सामूहिक हत्या कर दी गई थी, क्योंकि गोडसे एक महाराष्ट्रीय ब्राह्मण था। उस हत्याकांड की कभी न तो कोई जांच की गई, और न किसी हत्यारे को कोई दंड मिला। क्या उन निर्दोष ब्राह्मणों का कोई मानवाधिकार नहीं था? क्या ब्राह्मण मनुष्य नहीं होते? घरों में सो रहे ब्राह्मणों को पकड़ पकड़ कर उन पर पेट्रोल डालकर आग लगा दी गई, उनके घरों को लूट कर जला दिया गया, और उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया। क्या यही कॉंग्रेसी संस्कृति थी?
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भारत में हिंदुओं की आस्था पर प्रहार करने, हिन्दू देवी-देवताओं को गाली देने, और वेद, पुराण, महाभारत, रामायण आदि की निंदा करने की छूट "अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता" के नाम पर सब को है, जो गलत है। महातमा गाँधी का वध निंदनीय और बहुत गलत था। गाँधी कुछ दिन और जीवित रहते तो उनके पाखंड का पता सब को चल जाता, और वे जीते जी ही मर जाते।
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यदि मेरी भावनाओं और विचारों से किसी को कोई ठेस पहुंची है तो मैं क्षमा-याचना करता हूँ। लगता है देश पर शासन करने का अधिकार उन्हीं को है जो कोट के भीतर तो क्रॉस पहिनते हैं, और कोट के ऊपर जनेऊ। जो स्वयं को दत्तात्रेयगोत्री जनेऊधारी कश्मीरी ब्राह्मण कहते हैं, छुट्टी मनाने बार बार इटली भाग जाते हैं, मनोरंजन के लिए बार-बार भाग कर बैंकोक चले जाते हैं, लगता है वे ही इस देश के असली शासक हैं। ये संघी लोग पता नहीं कहाँ से आ गए? यह राष्ट्र और यह देश महातमा जी चेलों का ही है, जिन से पहिले कोई राष्ट्र नहीं था। उन्होने ही इसे राष्ट्र बनाया अतः वे ही राष्ट्रपिता हैं।
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लेकिन मेरा हाथ असहमति में ही उठा रहेगा। सभी को नमन॥ मेरी भूल-चूक माफ करें।
ॐ तत्सत् !!
३१ दिसंबर २०२१
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पुनश्च: --- भारत के विभाजन के समय लगभग २५-३० लाख से अधिक हिंदुओं की हत्या हुई, करोड़ों लोग विस्थापित हुए, लाखों बच्चे अनाथ हुए, लाखों महिलाओं के साथ बलात्कार करके उन्हें बेचा गया, और पता नहीं अथाह कितनी संपत्ति का विनाश हुआ। यह विश्व के इतिहास का सबसे बड़ा हत्याकांड था। क्या इसकी जांच नहीं होनी चाहिए थी? इसके क्या कारण थे? क्या उन कारणों को दूर किया गया? इसके लिए कौन जिम्मेदार थे? क्या कभी उन पर कोई अभियोग चला?
ईश्वर का न्याय अवश्य होगा। दोषियों को इसका दंड भी मिलेगा। भगवान स्वयं उन्हें दंडित करेंगे।
 
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Birthday of Mahatma Gandhi should be observed on 2nd September. As Mohandas Gandhi, he was born on 2nd October, 1861. But as 'Mahatma', he was born on 2nd September, 1938 by order of Secretary to Government, GA Department, Government of CP & Berar.
अब उजागर हुए एक ब्रिटिश दस्तावेज के अनुसार मोहनदास करमचंद गांधी को "महात्मा" की उपाधि ब्रिटिश सरकार द्वारा २ सितंबर १९३८ को दी गई थी। ब्रिटिश सरकार के आदेशानुसार २ सितंबर १९३८ से "गांधी" को "महात्मा गांधी" कहना अनिवार्य था। यह झूठ है कि महात्मा की उपाधि उन्हें नेताजी सुभाषचंद्र बोस, या रवीन्द्रनाथ टैगोर ने दी थी। द्वितीय विश्वयुद्ध में अंग्रेजों की सेवा का वचन देने के कारण श्री मोहनदास करमचंद गांधी को महात्मा कहलवाया गया। यह तथ्य जानने के बाद उन्हें "महात्मा गांधी" कहना अंग्रेजों की गुलामी है।

"अपराजित नमस्तेऽस्तु नमस्ते रामपूजित | प्रस्थानं च करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा ||"

"अपराजित नमस्तेऽस्तु नमस्ते रामपूजित | प्रस्थानं च करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा ||"
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ब्रह्माण्ड पुराण में दिए हुए एकमुखी हनुमत् कवचम् में ध्यान का यह आठवाँ मन्त्र है| किसी दुर्घटना या चोर डाकुओं के भय, भूत-प्रेत बाधा अथवा शत्रुओं से किसी प्रकार के अनिष्ट की, अथवा रणभूमि में शत्रु के भीषण प्रहार की आशंका रहती है| ऐसी स्थिति आने के पूर्व ही हमें हनुमान जी का ध्यान करते हुए उपरोक्त मन्त्र का प्रस्थान करते समय या उससे पूर्व कम से कम ११ बार जप कर लेना चाहिए| सब संकट कट जायेंगे और हम सकुशल घर लौट आयेंगे| उच्चारण सही और शुद्ध होना चाहिए|
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श्रीएकमुखी हनुमत्कवचम् :---
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किसी विद्वान सिद्ध संत के मार्गदर्शन में ही इसे सिद्ध करें| पूरा श्रीएकमुखी हनुमत्कवचम् इस प्रकार है :---
अथ श्री एकमुखी हनुमत्कवचं प्रारभ्यते ।
मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् ।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥
श्रीरामदूतं शिरसा नमामि ॥
श्रीहनुमते नमः
एकदा सुखमासीनं शङ्करं लोकशङ्करम् ।
पप्रच्छ गिरिजाकान्तं कर्पूरधवलं शिवम् ॥
पार्वत्युवाच
भगवन्देवदेवेश लोकनाथ जगद्गुरो ।
शोकाकुलानां लोकानां केन रक्षा भवेद्ध्रुवम् ॥
सङ्ग्रामे सङ्कटे घोरे भूतप्रेतादिके भये ।
दुःखदावाग्निसन्तप्तचेतसां दुःखभागिनाम् ॥
ईश्वर उवाच
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया ।
विभीषणाय रामेण प्रेम्णा दत्तं च यत्पुरा ॥
कवचं कपिनाथस्य वायुपुत्रस्य धीमतः ।
गुह्यं ते सम्प्रवक्ष्यामि विशेषाच्छृणु सुन्दरि ॥
ॐ अस्य श्रीहनुमत् कवचस्त्रोत्रमन्त्रस्य श्रीरामचन्द्र ऋषिः ।
अनुष्टुप्छन्दः । श्रीमहावीरो हनुमान् देवता। मारुतात्मज इति बीजम् ॥
ॐ अञ्जनीसूनुरिति शक्तिः । ॐ ह्रैं ह्रां ह्रौं इति कवचम् ।
स्वाहा इति कीलकम् । लक्ष्मणप्राणदाता इति बीजम् ।
मम सकलकार्यसिद्ध्यर्थे जपे वीनियोगः ॥
अथ न्यासः
ॐ ह्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः ।
ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः । ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः ।
ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः । ॐ ह्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
ॐ अञ्जनीसूनवे हृदयाय नमः । ॐ रुद्रमूर्तये शिरसे स्वाहा ।
ॐ वायुसुतात्मने शिखायै वषट् । ॐ वज्रदेहाय कवचाय हुम् ।
ॐ रामदूताय नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ ब्रह्मास्त्रनिवारणाय अस्त्राय फट् ।
ॐ रामदूताय विद्महे कपिराजाय धीमही ।
तन्नो हनुमान् प्रचोदयात् ॐ हुं फट् स्वाहा ॥ इति दिग्बन्धः ॥
अथ ध्यानम् ॥
ॐ ध्यायेद्बालदिवाकरधृतिनिभं देवारिदर्पापहं
देवेन्द्रप्रमुखप्रशस्तयशसं देदीप्यमानं रुचा ।
सुग्रीवादिसमस्तवानरयुतं सुव्यक्ततत्त्वप्रियं
संरक्तारुणलोचनं पवनजं पीताम्बरालङ्कृतम् ॥ १॥
उद्यन्मार्तण्डकोटिप्रकटरुचियुतं चारुवीरासनस्थं
मौञ्जीयज्ञोपवीतारुणरुचिरशिखाशोभितं कुण्डलाङ्गम् ।
भक्तानामिष्टदं तं प्रणतमुनिजनं वेदनादप्रमोदं
ध्यायेद्देवं विधेयं प्लवगकुलपतिं गोष्पदीभूतवार्धिम् ॥ २॥
वज्राङ्गं पिङ्गकेशाढ्यं स्वर्णकुण्डलमण्डितम् ।
नियुद्धकर्मकुशलं पारावारपराक्रमम् ॥ ३॥
वामहस्ते महावृक्षं दशास्यकरखण्डनम् ।
उद्यद्दक्षिणदोर्दण्डं हनुमन्तं विचिन्तयेत् ॥ ४॥
स्फटिकाभं स्वर्णकान्ति द्विभुजं च कृताञ्जलिम् ।
कुण्डलद्वयसंशोभिमुखाम्भोजं हरिं भजेत् ॥ ५॥
उद्यदादित्यसङ्काशमुदारभुजविक्रमम् ।
कन्दर्पकोटिलावण्यं सर्वविद्याविशारदम् ॥ ६॥
श्रीरामहृदयानन्दं भक्तकल्पमहीरूहम् ।
अभयं वरदं दोर्भ्यां कलये मारूतात्मजम् ॥ ७॥
अपराजित नमस्तेऽस्तु नमस्ते रामपूजित ।
प्रस्थानं च करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा ॥ ८॥
यो वारांनिधिमल्पपल्वलमिवोल्लङ्घ्य प्रतापान्वितो
वैदेहीघनशोकतापहरणो वैकुण्ठतत्त्वप्रियः ।
अक्षाद्यर्चितराक्षसेश्वरमहादर्पापहारी रणे ।
सोऽयं वानरपुङ्गवोऽवतु सदा युष्मान्समीरात्मजः ॥ ९॥
वज्राङ्गं पिङ्गकेशं कनकमयलसत्कुण्डलाक्रान्तगण्डं
नाना विद्याधिनाथं करतलविधृतं पूर्णकुम्भं दृढं च
भक्ताभीष्टाधिकारं विदधति च सदा सर्वदा सुप्रसन्नं
त्रैलोक्यत्राणकारं सकलभुवनगं रामदूतं नमामि ॥ १०॥
उद्यल्लाङ्गूलकेशप्रलयजलधरं भीममूर्तिं कपीन्द्रं
वन्दे रामाङ्घ्रिपद्मभ्रमरपरिवृतं तत्त्वसारं प्रसन्नम् ।
वज्राङ्गं वज्ररूपं कनकमयलसत्कुण्डलाक्रान्तगण्डं
दम्भोलिस्तम्भसारप्रहरणविकटं भूतरक्षोऽधिनाथम् ॥ ११॥
वामे करे वैरिभयं वहन्तं शैलं च दक्षे निजकण्ठलग्नम् ।
दधानमासाद्य सुवर्णवर्णं भजेज्ज्वलत्कुण्डलरामदूतम् ॥ १२॥
पद्मरागमणिकुण्डलत्विषा पाटलीकृतकपोलमण्डलम् ।
दिव्यगेहकदलीवनान्तरे भावयामि पवमाननन्दनम् ॥ १३॥
ईश्वर उवाच
इति वदति विशेषाद्राघवो राक्षसेन्द्रम्
प्रमुदितवरचित्तो रावणस्यानुजो ह्
रघुवरवरदूतं पूजयामास भूयः
स्तुतिभिरकृतार्थः स्वं परं मन्यमानः ॥ १४॥
वन्दे विद्युद्वलयसुभगस्वर्णयज्ञोपवीतं
कर्णद्वन्द्वे कनकरुचिरे कुण्डले धारयन्तम् ।
उच्चैर्हृष्यद्द्युमणिकिरणश्रेणिसम्भाविताङ्गं
सत्कौपीनं कपिवरवृतं कामरूपं कपीन्द्रम् ॥ १५॥
मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् ।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं सततं स्मरामि ॥ १६॥
ॐ नमो भगवते हृदयाय नमः ।
ॐ आञ्जनेयाय शिरसे स्वाहा ।
ॐ रुद्रमूर्तये शिखायै वषट् ।
ॐ रामदूताय कवचाय हुम् ।
ॐ हनुमते नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ॐ अग्निगर्भाय अस्त्राय फट् ।
ॐ नमो भगवते अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
ॐ आञ्जनेयाय तर्जनीभ्यां नमः ।
ॐ रुद्रमूर्तये मध्यमाभ्यां नमः ।
ॐ वायुसूनवे अनामिकाभ्यां नमः ।
ॐ हनुमते कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
ॐ अग्निगर्भाय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
अथ मन्त्र उच्यते
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः ।
ॐ ह्रीं ह्रौं ॐ नमो भगवते महाबलपराक्रमाय भूतप्रेतपिशाच
शाकिनी डाकिनी यक्षिणी पूतनामारी महामारी
भैरव-यक्ष-वेताल-राक्षस-ग्रहराक्षसादिकं
क्षणेन हन हन भञ्जय भञ्जय
मारय मारय शिक्षय शिक्षय महामाहेश्वर रुद्रावतार हुं फट् स्वाहा ।
ॐ नमो भगवते हनुमदाख्याय रुद्राय सर्वदुष्टजनमुखस्तम्भनं
कुरु कुरु ह्रां ह्रीं ह्रूं ठंठंठं फट् स्वाहा ।
ॐ नमो भगवते अञ्जनीगर्भसम्भूताय रामलक्ष्मणानन्दकराय
कपिसैन्यप्रकाशनाय पर्वतोत्पाटनाय सुग्रीवसाधकाय
रणोच्चाटनाय कुमारब्रह्मचारिणे गम्भीरशब्दोदयाय
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं सर्वदुष्टनिवारणाय स्वाहा ।
ॐ नमो हनुमते सर्वग्रहानुभूतभविष्यद्वर्तमानान् दूरस्थान्
समीपस्थान् सर्वकालदुष्टदुर्बुद्धीनुच्चाटयोच्चाटय परबलानि
क्षोभय क्षोभय
मम सर्वकार्यं साधय साधय हनुमते
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं फट् देहि ।
ॐ शिवं सिद्धं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं स्वाहा ।
ॐ नमो हनुमते परकृतान् तन्त्रमन्त्र-पराहङ्कारभूतप्रेतपिशाच
परदृष्टिसर्वविघ्नदुर्जनचेटकविधान् सर्वग्रहान् निवारय निवारय
वध वध पच पच दल दल किल किल
सर्वकुयन्त्राणि दुष्टवाचं फट् स्वाहा ।
ॐ नमो हनुमते पाहि पाहि एहि एहि एहि
सर्वग्रहभूतानां शाकिनीडाकिनीनां विषं दुष्टानां सर्वविषयान्
आकर्षय आकर्षय मर्दय मर्दय भेदय भेदय
मृत्युमुत्पाटयोत्पाटय शोषय शोषय ज्वल ज्वल प्रज्ज्वल प्रज्ज्वल
भूतमण्डलं प्रेतमण्डलं पिशाचमण्डलं निरासय निरासय
भूतज्वर प्रेतज्वर चातुर्थिकज्वर विषमज्वर माहेश्वरज्वरान्
छिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि
अक्षिशूल-वक्षःशूल-शरोभ्यन्तरशूल-गुल्मशूल-पित्तशूल-
ब्रह्मराक्षसकुल-परकुल-नागकुल-विषं नाशय नाशय
निर्विषं कुरु कुरु फट् स्वाहा ।
ॐ ह्रीं सर्वदुष्टग्रहान् निवारय फट् स्वाहा ॥
ॐ नमो हनुमते पवनपुत्राय वैश्वानरमुखाय
हन हन पापदृष्टिं षण्ढदृष्टिं हन हन
हनुमदाज्ञया स्फुर स्फुर फट् स्वाहा ॥
श्रीराम उवाच
हनुमान् पूर्वतः पातु दक्षिणे पवनात्मजः ।
प्रतीच्यां पातु रक्षोघ्न उत्तरस्यामब्धिपारगः ॥ १॥
उदीच्यामूर्ध्वगः पातु केसरीप्रियनन्दनः ।
अधश्च विष्णुभक्तस्तु पातु मध्ये च पावनिः ॥ २॥
अवान्तरदिशः पातु सीताशोकविनाशनः ।
लङ्काविदाहकः पातु सर्वापद्भ्यो निरन्तरम् ॥ ३॥
सुग्रीवसचिवः पातु मस्तकं वायुनन्दनः ।
भालं पातु महावीरो भ्रुवोर्मध्ये निरन्तरम् ॥ ४॥
नेत्रे छायाऽपहारी च पातु नः प्लवगेश्वरः ।
कपोलकर्णमूले तु पातु श्रीरामकिङ्करः ॥ ५॥
नासाग्रे अञ्जनीसूनुर्वक्त्रं पातु हरीश्वरः ।
वाचं रुद्रप्रियः पातु जिह्वां पिङ्गललोचनः ॥ ६॥
पातु दन्तान् फाल्गुनेष्टश्चिबुकं दैत्यप्राणहृत् ।
var ओष्ठं रामप्रियः पातु चिबुकं दैत्यकोटिहृत्
पातु कण्ठं च दैत्यारिः स्कन्धौ पातु सुरार्चितः ॥ ७॥
भुजौ पातु महातेजाः करौ तु चरणायुधः ।
नखान्नखायुधः पातु कुक्षिं पातु कपीश्वरः ॥ ८॥
वक्षो मुद्रापहारी च पातु पार्श्वे भुजायुधः ।
लङ्काविभञ्जनः पातु पृष्ठदेशे निरन्तरम् ॥ ९॥
नाभिञ्च रामदूतस्तु कटिं पात्वनिलात्मजः ।
गुह्मं पातु महाप्राज्ञः सृक्किणी च शिवप्रियः ॥ १०॥
ऊरू च जानुनी पातु लङ्काप्रासादभञ्जनः ।
जङ्घे पातु महाबाहुर्गुल्फौ पातु महाबलः ॥ ११॥
अचलोद्धारकः पातु पादौ भास्करसन्निभः ।
पादान्ते सर्वसत्वाढ्यः पातु पादाङ्गुलीस्तथा ॥ १२॥
सर्वाङ्गानि महावीरः पातु रोमाणि चात्मवान् ।
हनुमत्कवचं यस्तु पठेद्विद्वान् विचाक्षणः ॥ १३॥
स एव पुरूषश्रेष्ठो भक्तिं मुक्तिं च विन्दति ।
त्रिकालमेककालं वा पठेन्मासत्रयं सदा ॥ १४॥
सर्वान् रिपून् क्षणे जित्वा स पुमान् श्रियमाप्नुयात् ।
मध्यरात्रे जले स्थित्वा सप्तवारं पठेद्यदि ॥ १५॥
क्षयाऽपस्मारकुष्ठादितापत्रयनिवारणम् ।
आर्किवारेऽश्वत्थमूले स्थित्वा पठतिः यः पुमान् ॥ १६॥
अचलां श्रियमाप्नोति सङ्ग्रामे विजयी भवेत् ॥ १७॥
यः करे धारयेन्नित्यं स पुमान् श्रियमाप्नुयात् ।
विवाहे दिव्यकाले च द्यूते राजकुले रणे ॥ १८॥
भूतप्रेतमहादुर्गे रणे सागरसम्प्लवे ।
दशवारं पठेद्रात्रौ मिताहारी जितेन्द्रियः ॥ १९॥
विजयं लभते लोके मानवेषु नराधिपः ।
सिंहव्याघ्रभये चाग्नौ शरशस्त्रास्त्रयातने ॥ २०॥
शृङ्खलाबन्धने चैव काराग्रहनियन्त्रणे ।
कायस्तम्भे वह्निदाहे गात्ररोगे च दारूणे ॥ २१॥
शोके महारणे चैव ब्रह्मग्रहविनाशने ।
सर्वदा तु पठेन्नित्यं जयमाप्नोत्यसंशयम् ॥ २२॥
भूर्जे वा वसने रक्ते क्षौमे वा तालपत्रके ।
त्रिगन्धेनाथवा मस्या लिखित्वा धारयेन्नरः ॥ २३॥
पञ्चसप्तत्रिलौहैर्वा गोपितं कवचं शुभम् ।
गले कट्यां बाहुमूले वा कण्ठे शिरसि धारितम् ॥ २४॥
सर्वान् कामानवाप्नोति सत्यं श्रीरामभाषितम् ॥ २५॥
उल्लङ्घ्य सिन्धोः सलिलं सलीलं यः शोकवह्निं जनकात्मजायाः ।
आदाय तेनैव ददाह लङ्कां नमामि तं प्राञ्जलिराञ्जनेयम् ॥ २६॥
ॐ हनुमानञ्जनीसूनुर्वायुपुत्रो महाबलः ।
श्रीरामेष्टः फाल्गुनसखः पिङ्गाक्षोऽमितविक्रमः ॥ २७॥
उदधिक्रमणश्चैव सीताशोकविनाशनः ।
लक्ष्मणप्राणदाता च दशग्रीवस्य दर्पहा ॥ २८॥
द्वादशैतानि नामानि कपीन्द्रस्य महात्मनः ।
स्वापकाले प्रबोधे च यात्राकाले च यः पठेत् ॥ २९॥
तस्य सर्वभयं नास्ति रणे च विजयी भवेत् ।
धनधान्यं भवेत्तस्य दुःखं नैव कदाचन ॥ ३०॥
ॐ ब्रह्माण्डपुराणान्तर्गते नारद अगस्त्य संवादे ।
श्रीरामचन्द्रकथितपञ्चमुखे एकमुखी हनुमत् कवचम् ॥

संसार रूपी पाठशाला ---

 

संसार रूपी पाठशाला ---
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यह संसार एक पाठशाला है जहाँ सब एक पाठ पढ़ने के लिए आते हैं। वह पाठ निरंतर पढ़ाया जा रहा है। जो उसे नहीं सीखते वे दुःख और कष्टों द्वारा उसे सीखने के लिए बाध्य कर दिए जाते हैं। संसार में दुःख और कष्ट आते हैं, उनका एक ही उद्देश्य है -- मनुष्य को सन्मार्ग पर चलने को बाध्य करना। या तो अभी या फिर तीन-चार जन्मों के पश्चात। तब तक कई जन्म व्यर्थ चले जाते हैं।
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हर निष्ठावान व्यक्ति के समक्ष दो मार्गों में से अनिवार्य रूप से एक मार्ग चुनने का विकल्प अवश्य आता है, जहाँ तटस्थ नहीं रह सकते। एक तो ऊर्ध्वगामी मार्ग है, जो सीधा परमात्मा की ओर जाता है, दूसरा अधोगामी मार्ग है जो सांसारिक भोग विलास की ओर जाता है। अति तीव्र आकर्षण वाला यह अधोगामी मार्ग विष मिले हुए शहद की तरह है जो स्वाद में तो बहुत मीठा है पर अंततः कष्टमय और दुःखदायी है। इस अधोगामी आकर्षण को ही इब्राहिमी मज़हबों (यहूदीयत, ईसाईयत और इस्लाम) ने "शैतान" का नाम दिया है। "शैतान" कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि वासनाओं के प्रति वह अधोगामी आकर्षण ही है जिसे हम माया भी कह सकते हैं। इस माया की ओर आकर्षित होने वाले को तीन-चार कष्टमय जन्म व्यतीत हो जाने के पश्चात ही होश आता है, और उसे वह विकल्प फिर मिलता है।
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वह मार्गदर्शन सभी को मिलता है। कोई यदि यह कहे कि उसे कभी भी कोई मार्गदर्शन नहीं मिला है तो वह असत्य बोल रहा है।
सभी का कल्याण हो। ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० दिसंबर २०२१

योगारूढ़ कौन है? --- .

 

योगारूढ़ कौन है? ---
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मेरी अनुभवजन्य निजी मान्यता है कि पूर्ण भगवत्-प्रेम के साथ जिसकी चेतना निरंतर आज्ञाचक्र से ऊपर सहस्त्रार में रहती है, ऐसा व्यक्ति ही योगारूढ़ हो सकता है। वह व्यक्ति प्रणम्य है, उसे प्रणाम करना चाहिए। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं --
"यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसङ्कल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते॥६:४॥"
अर्थात् -- " जिस समय न इन्द्रियों के भोगों में तथा न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस समय वह सम्पूर्ण संकल्पों का त्यागी मनुष्य योगारूढ़ कहा जाता है।"
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संकल्पों का त्याग सिर्फ इच्छा शक्ति से नहीं हो सकता। अजपा-जप का अभ्यास, और उनके द्वारा गीता में बताई हुई साधनाएं करते रहो। भगवान श्रीकृष्ण सब गुरुओं के गुरु हैं। उन से बड़ा गुरु कोई अन्य नहीं है। हर सांस पर उनका स्मरण करो। उन्हें निरंतर अपने हृदय में रखो। जिस दिन उन की कृपा होगी, सारा ज्ञान अपने आप ही प्राप्त हो जाएगा, और सारी साधनाएं भी अपने आप ही होने लगेंगी, और सिद्ध भी हो जायेंगी। आवश्यकता सिर्फ परमप्रेम और अभीप्सा की है।
ॐ तत्सत् !!
३० दिसंबर २०२१

मैं मुक्त हूँ ---

 

भगवान ने तो बहुत पहिले ही मेरी पदोन्नति कर दी थी, पर मैं स्वयं ही झूठे बहाने बनाकर मोह-माया के बंधनों में बंधा रहा। अब समय आ गया है, स्वयं को इन सब बंधनों से मुक्त करने का। कब तक दूसरों के पीछे-पीछे भागता रहूँगा? कब तक एक साधक और साधकत्व के भावों से ही बंधा रहूँगा? इनसे तो बहुत पहिले ही मुझे ऊपर उठ जाना चाहिए था?
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भगवान ने मुझे जहाँ भी और जैसे भी रखा है, वहीं पर मैं इसी क्षण से मुक्त हूँ। कोई बंधन, मुझ पर नहीं है। मैं सब बंधनों से परे हूँ। यह शरीर एक वाहन है, मेरे प्रारब्ध में जब तक इस पर लोकयात्रा करना लिखा है, तब तक करूँगा। उसके पश्चात का भी मुझे पता है, लेकिन अपना रहस्य किसी को क्यूँ दूँ? वह रहस्य, रहस्य ही रहना चाहिए। इसी क्षण से मेरा वर्तमान भी सबके लिए एक रहस्य ही रहेगा। मेरे लिए कोई पराया है ही नहीं। मैं सबके साथ एक हूँ।
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ॐ नमस्तुभ्यं नमो मह्यं तुभ्यं मह्यं नमोनमः। अहं त्वं त्वमहं सर्वं जगदेतच्चराचरम्॥
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२९ दिसंबर २०२१

हनुमान जी का ध्यान ---

 

"मनोजवं मारुततुल्यवेगमं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये॥"
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रामरक्षास्तोत्र से लिए हुए उपरोक्त मंत्र से ध्यान आरंभ करें। यह हनुमान जी का ध्यान मंत्र है, जो बहुत ही अधिक शक्तिशाली है। इसके ध्यान से बहुत गोपनीय अनुभूतियाँ होंगी, जिन्हें गोपनीय ही रखें। इसकी सफलता हमारी श्रद्धा और विश्वास पर निर्भर है। इस की विधि हनुमान जी की कृपा से समझ में आ जाएगी। इसका भावार्थ है ---
"जिनकी मन के समान गति और वायु के समान वेग है, जो परम जितेन्दिय और बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं, उन पवनपुत्र वानरों में प्रमुख श्रीरामदूत की मैं शरण लेता हूँ।"
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हे संकटमोचन पवनकुमार ! आप आनंद मंगलों के स्वरूप हैं। आप की जय हो॥
ॐ तत्सत् !!
२८ दिसंबर २०२१

सुखी होना स्वयं में यानि परमात्मा में स्थित होना है ---

 

सुखी होना स्वयं में यानि परमात्मा में स्थित होना है। यह एक मानसिक अवस्था है। सुखी होना वर्तमान में है, भविष्य में नहीं। श्रुति भगवती कहती है --"ॐ खं ब्रह्म।" 'खं' कहते है आकाश तत्व यानि परमात्मा को। जो परमात्मा से जितना समीप है, वह उतना ही सुखी है। जितने हम परमात्मा से दूर हैं, उतने ही दुःखी हैं। जो प्रभु से सब के कल्याण की प्रार्थना करता है, जो सब को सुखी और निरामय देखना चाहता है, सिर्फ वही सुखी है। प्रभु की सभी संतानें यदि सुखी होंगी, तभी हम सुखी हो सकते हैं, अन्यथा नहीं।
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आवरण और विक्षेप के रूप में माया तो अपना काम करेगी ही। हमें भी अपना काम भक्ति, शरणागति, समर्पण, अभ्यास, सत्संग और वैराग्य द्वारा निरंतर करते रहना चाहिए। रात्रि में सोने से पहिले, और प्रातः उठते ही भगवान का स्मरण, जप और ध्यान करें। निरंतर भगवान की स्मृति बनाये रखें। जब भी समय मिले खूब जप और ध्यान करें। जितना साधन हो सके उतना करें, बाकी शरणागत होकर भगवान को समर्पित कर दें। आगे का काम उनका है। भगवान का इतना चिंतन करें कि वे स्वयं हमारी चिंता करने लगें।
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दो साँसों के मध्य का हर क्षण दिव्य है। जब दोनों नासिकाओं से साँस चल रही है, वह सर्वश्रष्ठ समय/मुहूर्त होता है जिसका उपयोग भगवान की भक्ति/ध्यान आदि में करना चाहिए। ध्यान साधना के लिए यह आवश्यक है कि दोनों नासिकाओं से सांस चल रही हो। अन्यथा हम ध्यान नहीं कर सकते।
सभी को शुभ कामनाएँ और सप्रेम नमन ! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२८ दिसंबर २०२१
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पुनश्च: --- आपको इसकी अनुभूति करनी होगी। अपनी सूक्ष्म देह से परे परमात्मा की अनंतता पर ध्यान करे॥ "ख' को भूल जाएँ, और अनंत विस्तार में ॐ शब्द को सुनते हुए, ध्यान करे। "ख" शब्द प्रतीकात्मक मात्र है।

पंजाबी सिख पादरी "साधु सुंदर सिंह" और पंजाब में उसका प्रभाव ---

 

पंजाबी सिख पादरी "साधु सुंदर सिंह" और पंजाब में उसका प्रभाव ---
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ईसाईयत की बड़ी गहरी नींव 'साधु सुंदर सिंह' नाम के एक सिख पादरी ने डाली थी, उसी का परिणाम है कि आज पूरे पंजाब में ईसाईयत का जबरदस्त बोलबाला है। पादरी लोग बड़े प्रेम और धैर्य से उसकी कथा सुनाते हैं जिसका सार इस प्रकार है ---
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"सुंदर सिंह का जन्म एक सिख परिवार में ३ सितंबर १८८९ को पंजाब में लुधियाना जिले के रामपुर कटानिया नामक गाँव में हुआ था। १४ वर्ष की आयु में उसकी माता का देहांत हो गया तो अवसादग्रस्त होकर उसने रेलगाड़ी के सामने कूदकर आत्महत्या का प्रयास किया। कहते हैं कि जब वह चलती ट्रेन के आगे कूदा तो जीसस क्राइस्ट प्रकट हुए और उसका हाथ पकड़कर खींच लिया व आत्महत्या नहीं करने दी। सुंदर सिंह ने अपने पिता शेर सिंह को बताया कि अब से वह ईसाई पादरी बन कर जीवन भर जीसस क्राइस्ट की सेवा करेगा। उसके पिता ने उसे मनाने का पूरा प्रयास किया पर वह नहीं माना। उसके भाई ने उसे मारने के लिए धोखे से जहर दिया पर जहर का कोई असर नहीं हुआ। गाँव वालों ने उसे मारने के लिए उस पर जहरीले सांप फेंके, पर सांपों ने अपने स्वामी को उसमें देखा और काटने से मना कर दिया। एक अंग्रेज पादरी ने वहाँ आकर उसे संरक्षण दिया और अपने साथ शिमला के एक चर्च में ले गया। शिमला में उसने जीसस क्राइस्ट को प्रसन्न करने के लिए कोढ़ियों की खूब सेवा की। उसके १६वें जन्मदिवस पर शिमला के एक चर्च में विधि-विधान से उसे ईसाई मजहब की दीक्षा दी गई और पहिनने के लिए हिन्दू साधुओं के गेरुआ वस्त्र दिए गए। उसका काम था हिन्दू साधु के वेश में हिन्दू नाम से ईसा मसीह का प्रचार करना।"
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अक्टूबर १९०६ में हिन्दू नाम (साधु सुंदर सिंह) से हिन्दू साधु के वेश में उसने ईसा मसीह का प्रचार कार्य आरंभ किया, और बहुत अधिक सफल हुआ। उसने पंजाब, हिमाचल प्रदेश, कश्मीर, अफगानिस्तान और बलूचिस्तान में हजारों हिंदुओं को ईसाई बनाया। मुस्लिम क्षेत्रों में वह कई बार गिरफ्तार भी हुआ और लोगों ने उस पर पत्थर भी फेंके, लेकिन उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाए क्योंकि देश पर अंग्रेजों का राज था, और अंग्रेजी शासन का अति गोपनीय तरीके से उसे संरक्षण प्राप्त था। लोग यही सोचते थे कि जीसस क्राइस्ट हर समय उसकी रक्षा करते हैं। १९०८ में वह तिब्बत गया पर वहाँ की ठंड उससे सहन नहीं हुई, तो वह मुंबई आ गया। मुंबई मे उसने फिलिस्तीन जाने के लिए अनुमति मांगी। लेकिन ब्रिटिश चर्च ने उसे बापस पंजाब भेज दिया।
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उसका उद्देश्य भारत का ईसाईकरण करना था। वह चाहता था कि चर्च के पादरी, हिन्दु साधुओं की तरह हिंदु वेश में रहें। लाहौर में पूरे प्रयास के बावजूद भी उसकी नहीं चली। लाहोर के हिन्दू विद्यार्थी उससे प्रभावित नहीं हुए। पूरे भारत में उस समय लाहौर सबसे अधिक पढे-लिखे लोगों का नगर था।
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१९१२ में वह बापस कश्मीर और तिब्बत गया। उसके बारे में बहुत सारी कहानियाँ फैलाई गईं हैं कि हिमालय में कैलाश पर्वत की एक गुफा में उसने ३०० वर्ष की आयु के एक साधु के साथ तपस्या की। उसके बारे में यह कहानी भी फैलाई गई कि स्वयं भगवान ने उसे दर्शन दिये, जिनके साथ भी वह रहा। उसके बारे में यह कहानी भी फैलाई गई कि तिब्बत में कुछ लोगों ने मारने के लिए उसे एक अंधे कुएँ में फेंक दिया लेकिन उसका कुछ नहीं बिगड़ा। वर्षों पहिले एक पादरी ने मुझे बड़े प्रेम से उसकी एक जीवनी भेंट में दी थी। पता नहीं वह पुस्तक अब कहाँ है। उसमें साधु सुंदर सिंह को भारत का एक महान संत बताया गया था जिसने अपने जीवन में अनेक चमत्कार दिखाये। यह भी मुझे बताया गया था कि उसके जैसे अनगिनत ईसाई प्रचारक हिंदु-साधुवेश में पूरे भारत में फैले हुए हैं।
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ईसाई 'साधु सुंदर सिंह' ने अपनी हाथ से कोई पुस्तक या साहित्य नहीं लिखा। लेकिन उसके समय में उसका प्रभाव पूरे पंजाब में बड़ा जबर्दस्त था। पादरी लोग बताते हैं कि वह जीसस क्राइस्ट की तरह ही लगता था और उन्हीं की तरह उन्हीं की भाषा में बोलता था। कपड़े भी वह जीसस क्राइस्ट की तरह ही पहिनने लगा था। १९१८ में उसने दक्षिण भारत और सीलोन (श्रीलंका) की यात्रा भी की थी। उसे बर्मा, मलाया, चीन और जापान के चर्चों ने भी निमंत्रण दिया था।
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उसकी इच्छा ब्रिटेन जाने की थी, जो तब पूरी हुई जब उसके पिता शेर सिंह ने भी सिख पंथ छोड़कर ईसाई मज़हब अपना लिया और अपना सारा धन भी उसे दे दिया। उसने १९२० और १९२२ में दो बार ब्रिटेन, यूरोप, अमेरिका व ऑस्ट्रेलिया की यात्राएँ कीं। ईसाइयों के सभी संप्रदायों ने उसका स्वागत एक महान संत के रूप में किया। भारत में बापस आकर वह अपने काम में जुट गया। १९२३ में उसने तिब्बत की आखिरी यात्रा की, और वहाँ से बीमार होकर बापस आया। फिर १९२९ तक शिमला के पास एक आश्रम सा बनाकर रहा। मित्रों की सलाह पर उसने एक बार और तिब्बत जाने का निर्णय लिया। उसे अंतिम बार १८ अप्रेल १९२९ को कालका में कुछ साधुओं के साथ देखा गया। फिर उसका कुछ भी पता नहीं चला। किसी अज्ञात स्थान पर अज्ञात साधु के रूप में ही उसका कहीं देहांत हो गया।
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सन १९४० में मद्रास के एक पादरी बिशप अगस्टिन पीटर्स ने उसके भाई राजिंदर सिंह को ढूंढकर ईसाई बना दिया। राजिन्दर सिंह ने भी ईसाई धर्म-प्रचारक बनकर सैंकड़ों हिंदु व सिखों को ईसाई बनाया। इन दोनों भाइयों को भारत के ईसाई इतिहास में अति महान बताया गया है, जिन्होंने अनगिनत हजारों हिंदुओं व सिखों को ईसाई बनाकर जीसस क्राइस्ट की सेवा की।
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कुछ भी हो ये ईसाई प्रचारक अपनी चंगाई सभाओं में कोरोना बीमारी को तो दूर नहीं कर पाये। कुछ प्रशिक्षित नाटकबाज महिलाओं और पुरुषों को मंच पर लाकर जबरदस्त नाटकबाजी कर के भोले-भाले हिंदुओं को भ्रमित कर ईसाई बना देते हैं। आजकल ईसाई मिशनरियों ने पंजाब में अपना पूरा जोर लगा रखा है।
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यह लेख कुछ अधिक ही बड़ा हो गया है। इससे अधिक छोटा लिखना संभव ही नहीं था। आपने बड़े धैर्य से इसको पढ़ा, जिसके लिए आप सब को नमन।
राम राम !! ॐ तत्सत् !!
२७ दिसंबर २०२१

२५ दिसंबर के दिन ही घटी एक महान घटना --- (संपादित व पुनर्प्रस्तुत लेख)

 

२५ दिसंबर के दिन ही घटी एक महान घटना --- (संपादित व पुनर्प्रस्तुत लेख)
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२५ दिसंबर १८९२ को एक ऐसी घटना घटी जिसने भारत की चिंतन धारा को बदलना आरंभ कर दिया था। २९ वर्ष से भी कुछ कम आयु के स्वामी विवेकानंद देश का भ्रमण करते हुए कन्याकुमारी गए हुए थे। भारत माता की तत्कालीन दशा से अत्यधिक क्षुब्ध और व्यथित थे। उन्हें बहुत अधिक पीड़ा हो रही थी। ईश्वर से बस यही जानना चाहते कि पुण्यभूमि भारत का पुनः उत्थान कैसे हो। एक प्रचंड अग्नि उनके ह्रदय में जल रही थी। सामने समुद्र में उन्होने देवीपादम् शिलाखंड को देखा। उनसे और रहा नहीं गया और उन्होंने समुद्र में छलांग लगा ली, व प्राणों की बाजी लगाकर उथल-पुथल भरे समुद्र की लहरों में तैरते हुए दूर उस शिलाखंड पर चढ़ गए। उनके ह्रदय में बस एक ही भाव था कि भारत का उत्थान कैसे हो।
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उस शिलाखंड पर तीन दिन और तीन रात वे समाधिस्थ रहे। उसके पश्चात उन्हें ईश्वर से मार्गदर्शन मिला और उनका कार्य आरम्भ हुआ। उस समय भारत के लोगों में इतनी हीन भावना व्याप्त थी कि लोग कहते कि चाहे मुझे गधा कह दो पर हिंदू मत कहो। उन्होंने ही सबको गर्व से हिंदू कहना सिखाया। उन्हीं का प्रयास और भारत के मनीषियों का पुण्यप्रताप था कि आज हम गर्व से सिर ऊँचा कर के बैठे हैं।
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आज फिर हमारे धर्म और राष्ट्र पर संकट के बादल छाये हुए हैं। उसकी रक्षा करने के लिये हमारे युवकों में वो ही उत्साह, तड़प और अभीप्सा चाहिए। ईश्वर से जुड़कर ही हम कुछ अच्छा कार्य कर सकते हैं। मैं सभी से प्रार्थना करता हूँ कि सनातन धर्म व भारत की रक्षा के लिये ईश्वर को जीवन का केंद्र बिंदु बनाएँ। आगे का मार्ग ईश्वर स्वयं दिखाएँगे|
वंदे मातरम ! भारत माता की जय ! सनातन हिंदू धर्म की जय !
कृपा शंकर
२६ दिसंबर २०२१

काम की बात एक ही है >>>

 

आज २५दिसंबर के दिन की बहुत सारी स्मृतियाँ मेरे मानस पटल पर हैं। और भी अनेक बहुत सारी बातें हैं, लेकिन काम की बात एक ही है >>>
रात्री को सोने से पूर्व बिस्तर पर ही सीधे बैठकर कम से कम आधे या एक घंटे तक परमात्मा का ध्यान या जप करें, और निश्चिन्त होकर जगन्माता की गोद में ऐसे सो जाएँ जैसे एक छोटा बालक अपनी माँ की गोद में सोता है। प्रातःकाल उठते ही थोड़ा जल पीएँ और लघुशंकादि से निवृत होकर फिर आधे या एक घंटे तक जैसा ऊपर बताया है वैसे ही परमात्मा का ध्यान या जप करें। पूरे दिन परमात्मा की स्मृति अपने चित्त में बनाए रखें। यदि भूल जाएँ तो याद आते ही फिर उस स्मृति को अपनी चेतना में स्थापित करें। एक बात याद रखें कि हम जो कुछ भी कर रहे हैं वह परमात्मा की प्रसन्नता के लिए ही कर रहे हैं। ऐसा कोई काम न करें जो भगवान को प्रिय न हो। धीरे धीरे भगवान स्वयं ही हमारे माध्यम से कार्य करना आरम्भ कर देंगे। यह बात मैं समय समय पर लिखता रहता हूँ, और लिखता ही रहूँगा। कोई करे या न करे यह उसकी समस्या है।
कृपा शंकर
२५ दिसंबर २०२१
पुनश्च:
इस राष्ट्र में हम सब की साधना से एक ब्रह्मतेज जागृत हो।
हमें सब दैवीय शक्तियाँ, सिद्धियाँ, देवत्व, व दिव्यास्त्र चाहिएँ, -- अपने अहम् के लिए नहीं, बल्कि भारत और धर्म की रक्षा के लिए।
सज्जनों की व धर्म की रक्षा हो, और दुर्जनों व अधर्म का नाश हो। ॐ ॐ ॐ !!

भगवान से प्रेम कोई "आत्ममुग्धता" या "आत्मप्रवंचना" नहीं है ---

 

भगवान से प्रेम कोई "आत्ममुग्धता" या "आत्मप्रवंचना" नहीं है ---
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जो लोग भगवान के प्रति प्रेम को नहीं समझ सकते, वे लोग इसे आत्ममुग्धता या आत्मप्रवंचना कहते हैं। मुझे कुछ लोग आत्ममुग्ध समझते हैं, व कुछ लोग आत्मप्रवंचक कहते हैं। ये दोनों ही शब्द विपरीत अर्थ वाले हैं। मैं इन में से कोई सा भी नहीं हूँ। आत्मप्रवंचना का अर्थ खुद को छलना या खुद को धोखा देना होता है। इस से विपरीत आत्ममुग्धता का अर्थ स्वयं पर मुग्ध या मोहित होना है। मैं न तो स्वयं को छल रहा हूँ, न स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ मानता हूँ, और न ही इस भौतिक अस्तित्व को अधिक महत्व देता हूँ। मैं स्वयं को यह शरीर नहीं मानता। मेरे ऊपर परमात्मा की एक शक्ति है जिसका प्रत्यक्ष आभास मुझे समय समय पर होता है। मैं उस में समर्पित होना चाहता हूँ। सारा मार्गदर्शन मुझे भगवान श्रीकृष्ण से मिलता है। किसी भी तरह का कोई संशय या संदेह मुझे नहीं है। यह बताने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि उनकी कृपा से ही मुझे परमशिव की अनुभूतियाँ होती हैं, जो इस जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। "परमशिव" एक अनुभूति है जो भगवान की परमकृपा का प्रसाद है। इसे कोई किसी को न तो समझा सकता है, और न ही दे सकता है। मैं इस लौकिक अस्तित्व को न तो दूसरों से श्रेष्ठतर समझता हूँ, और न ही मुझे दूसरों के आकर्षण का केंद्र बनना पसंद है। कोई अज्ञात शक्ति ही मुझे यह सब लिखने की प्रेरणा देती है, अन्यथा मुझे तो एकांत ही पसंद है।
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मैं जो भी हूँ, वह परमात्मा के मन का एक विचार मात्र है। उससे अधिक या कम कुछ भी नहीं। परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ आप सब में परमात्मा को नमन!! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२५ दिसंबर २०२१

भगवत्-प्राप्ति ही हमारा स्वधर्म, और सनातन धर्म का सार है ---

 

भगवत्-प्राप्ति ही हमारा स्वधर्म, और सनातन धर्म का सार है। भारत को सबसे बड़ा खतरा अधर्मियों से है। आज के दिन भारत और सनातन धर्म की रक्षा के लिए अधिकाधिक साधना करें।
दूसरे दिनों में भी रात्री के सन्नाटे में जब घर के सब लोग सोए हुए हों तब चुपचाप शांति से भगवान का ध्यान/जप आदि करें। न तो किसी को बताएँ और न किसी से इस बारे में कोई चर्चा करें। निश्चित रूप से आपको परमात्मा की अनुभूति होगी। किसी भी तरह के वाद-विवाद आदि में न पड़ें। हमारा लक्ष्य वाद-विवाद नहीं, परमात्मा की प्राप्ति है। भगवान का ध्यान हमें चिन्ता मुक्त कर देता है| तत्पश्चात हम केवल निमित्त मात्र बन जाते हैं| हमारे माध्यम से भगवान ही सारे कार्य करते हैं।
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भारतवर्ष में मनुष्य देह में जन्म लेकर भी यदि कोई भगवान की भक्ति ना करे तो वह अभागा है| भगवान के प्रति परम प्रेम, समर्पण और समष्टि के कल्याण की अवधारणा सिर्फ भारत की ही देन है| सनातन धर्म का आधार भी यही है|
पहले निज जीवन में परमात्मा को व्यक्त करो, फिर जीवन के सारे कार्य श्रेष्ठतम ही होंगे| परमात्मा को पूर्ण ह्रदय से प्रेम करो, फिर सब कुछ प्राप्त हो जाएगा|
कृपा शंकर
२४ दिसंबर २०२१

ईसाई मज़हब एक चर्चवाद है, जिसका जीसस क्राइस्ट से कोई संबंध नहीं है ---

 

ईसाई मज़हब एक चर्चवाद है, जिसका जीसस क्राइस्ट से कोई संबंध नहीं है ---
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हे ईसाई मज़हब के प्रचारको, तुम लोग पूरे विश्व में एक असत्य का अंधकार फैला रहे हो। तुम लोग चाहो तो अपने मत में आस्था रखो, पर हमारे गरीब और लाचार हिंदुओं का धर्मांतरण मत करो। हमारे सनातन धर्म की निंदा और हम पर झूठे दोषारोपण मत करो। तुम लोगों ने भारत में सबसे अधिक अत्याचार और नरसंहार किए हैं। भारत का सबसे अधिक अहित तुम लोगों ने किया है। ईश्वर को प्राप्त करना हम सब का जन्मसिद्ध अधिकार है। सभी प्राणी ईश्वर की संतान हैं। जन्म से कोई भी पापी नहीं है। सभी अमृतपुत्र हैं परमात्मा के। मनुष्य को पापी कहना सबसे बड़ा पाप है। अपने पूर्ण ह्रदय से परमात्मा को प्यार करो। यह झूठ है कि जीसस क्राइस्ट में आस्था वालों को ही मुक्ति मिलेगी और अन्य सब नर्क की अग्नि में अनंत काल तक तड़पाये जाएँगे। तुम्हारा तथाकथित परमेश्वर झूठा और दूसरों को दुःखदायी है।
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हे हिन्दुओ, यह सांता क्लॉज़ नाम का फर्जी बूढ़ा जिसका जिक्र बाइबिल में कहीं भी नहीं है, भारत में कभी भी घुस नहीं सकता। वह अपनी स्लेज गाड़ी पर आता है जिसे रेनडियर खींचते हैं। भारत में इतनी बर्फ ही नहीं पड़ती जहाँ स्लेज गाड़ी चल सके। भारत में रेनडियर भी नहीं होते। अतः अपने बच्चों को सांता क्लॉज न बनाएँ। यदि उनके स्कूल वाले बनाते हैं तो सख्ती से उन्हें मना कर दें।
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यह जीसस क्राइस्ट का सबसे बड़ा उपदेश है जिसकी उपेक्षा कर ईसाईयों ने सिर्फ मारकाट और नर संहार ही किये हैं ....
Sermon on the Mount ..... He said ..... "But seek ye first the kingdom of God and His righteousness, and all these things shall be added unto you." Matthew 6:33 KJV.
अर्थात् .... पहिले परमात्मा के राज्य को ढूंढो, फिर अन्य सब कुछ तुम्हें स्वतः ही प्राप्त हो जाएगा.
ईसाईयत में कर्मफलों का सिद्धांत .....
"He that leadeth into captivity shall go into captivity: he that killeth with the sword must be killed with the sword.
Revelation 13:10 KJV."
उपरोक्त उद्धरण प्राचीन लैटिन बाइबल की Revelation नामक पुस्तक के किंग जेम्स वर्ज़न से लिया गया है| एक धर्मगुरु अपने एक नौकर के कान अपनी तलवार से काट देता है जिस पर जीसस क्राइस्ट ने उसे तलवार लौटाने को कहा और उपरोक्त बात कही|
(विडम्बना है कि उसी जीसस क्राइस्ट के अनुयायियों ने पूरे विश्व में सबसे अधिक अत्याचार और नर-संहार किये).
All who will take up the sword will die by the sword.
Live by the sword, die by the sword.
जो दूसरों को तलवार से काटते हैं वे स्वयं भी तलवार से ही काटे जाते हैं ....
प्रकृति किसी को क्षमा नहीं करती| कर्मों का फल मिले बिना नहीं रहता।
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अपने कर्मों का फल सब को अवश्य मिलेगा। कोई इस से बच नहीं सकता। विश्व में अनेक अति गुप्त ईसाई संस्थाएँ हैं जो घोर कुटिलता और हिंसा से अभी भी पूरे विश्व पर अपना साम्राज्य स्थापित करना चाहती हैं| ऐसी संस्थाओं से हमें अति सचेत रहना है| भारत की रक्षा तो भगवान ने ही की है, अन्यथा भारत तो उनके द्वारा अब तक नष्ट हो चुका होता।
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पुनश्च : -- मेरे कई ईसाई मित्र थे (रोमन कैथोलिक भी और प्रोटोस्टेंट भी) जिनके साथ मैं कई बार उनके चर्चों में गया हूँ और वहाँ की प्रार्थना सभाओं में भी भाग लिया है| दो बार इटली में वेनिस और कुछ अन्य नगरों में भी गया हूँ जहाँ खूब बड़े बड़े चर्च हैं जिनमें उपस्थिति नगण्य ही रहती है| यूरोप व अमेरिका के कई ईसाई पादरियों से भी मेरी मित्रता रही है| कुल मिलाकर मेरा अनुभवजन्य मत यही है कि जो जिज्ञासु ईसाई हैं उनको अपनी जिज्ञासाओं का समाधान सनातन हिन्दू धर्म में ही मिलता है, और इस बात की पूरी संभावना है कि विश्व के सारे समझदार ईसाई एक न एक दिन हिन्दू धर्म को ही अपना लेंगे|

मैं ईश्वर-प्रदत्त विवेक के प्रकाश में संकल्प कर के बिना किसी कर्मकांड और औपचारिकता के जीवित रहते हुए ही अपना पिंडदान करना चाहता हूँ ----

 

मैं ईश्वर-प्रदत्त विवेक के प्रकाश में संकल्प कर के बिना किसी कर्मकांड और औपचारिकता के जीवित रहते हुए ही अपना पिंडदान करना चाहता हूँ ----
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मेरा यह शरीर और अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) ही मेरे पिंड हैं। भगवान का ध्यान कर के, उनकी उपस्थिति में संकल्प लेकर इन्हें भगवान को सौंप दूंगा। यही मेरा पिंडदान होगा। कर्मकांड वाला विधान बहुत अधिक लंबा है, जिसे करवाने का धैर्य मुझमें नहीं है।
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सन्यास लेने की पात्रता भी मुझमें नहीं है लेकिन जब भी भगवान से प्रेरणा मिलेगी, तब अपने आप ही विवेक आर्त सन्यास ले लूँगा। गीता में भगवान कहते हैं --
"उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥६:५॥"
अर्थात् - अपने द्वारा अपना उद्धार करे, अपना पतन न करे; क्योंकि आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।
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कर्मकांड से किसी को मोक्ष नहीं मिलता। जब तक परमात्मा का साक्षात्कार न हो तब तक मुक्ति नहीं मिल सकती। कृष्ण यजुर्वेद के श्वेताश्वतरोपनिषद के तीसरे अध्याय का आठवाँ मंत्र कहता है --
"वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्‌।
तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥"
अर्थात् - "मैं उस परम पुरुष को जान गया हूँ जो सूर्य के समान देदीप्यमान है और समस्त अन्धकार से परे है। जो उसे अनुभूति द्वारा जान जाता है वह मृत्यु से मुक्त हो जाता है। जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा का कोई अन्य मार्ग नहीं है।"
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आत्म साक्षात्कार के द्वारा ईश्वर से जुड़कर ही हम मुक्त हो सकते हैं। मैं नहीं चाहता कि इस शरीर महाराज की मृत्यु के बाद मेरे लौकिक परिवार के लोग किसी भी तरह की परेशानी में पड़ें। यह शरीर तो भस्म हो जाएगा, लेकिन मेरा स्थायी निवास तो परमात्मा के हृदय में ही होगा। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ दिसंबर २०२१
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पुनश्च :-- पिंड दान --- हमें इस देह में जीवित रहते हुए ही अपना स्वयं का पिंडदान भी कर देना चाहिए। मृत्यु के बाद घर वालों को यह कष्ट न दें तो यह एक बहुत बड़ा परोपकार होगा। अपने अंतिम संस्कार के लिए भी स्वयं का कमाया हुआ ही पर्याप्त धन, घर वालों के पास छोड़ देना चाहिए ताकि उन पर कोई भार न पड़े। केवल श्राद्ध करने से कोई मुक्ति नहीं मिलती है, अपना स्वयं का किया हुआ सत्कर्म ही अंततः काम आयेगा। अपना अंतःकरण भगवान को सौंप दें, यही सबसे बड़ा पिंडदान है, यही सच्चा श्राद्ध है।
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पुनश्च : -- गुरु कृपा से आज एक बात और समझ में आई है। कितनी बार भी भागवत सुन लो, कितना भी पिंडदान कर लो, इससे मुक्ति मिलेगी इसकी कोई सुनिश्चितता नहीं है। भागवत में बताई हुई सात गाँठें -- मेरुदंड के सात चक्र हैं। श्वास रूपी साधना द्वारा प्राण-तत्व को इन सातों चक्रों का भेदन कर सहस्त्रार में स्थिर करने के उपरांत ही मुक्ति संभव है। ब्रह्मरंध्र के ऊपर भी एक चक्र है जिसका भी भेदन करना पड़ता है। उससे भी बहुत ऊपर एक आलोकमय लोक है, जहाँ स्वयं परमशिव हैं, उसके बारे में अनेक बार लिख चुका हूँ, और लिखने का साहस व धैर्य नहीं है। उन परमशिव में स्थिति ही मुक्ति है।
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पुनश्च :--- श्वेताश्वतरोपनिषद के छठे अध्याय का पंद्रहवाँ मंत्र कहता है --
"एको हंसो भुवनस्यास्य मध्ये स एवाग्निः सलिले संनिविष्टः।
तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥"
यह मंत्र 'हंसस्वरूपी आत्मसत्ता' का ज्ञान प्राप्त करने को कहता है। यह ज्ञान गुरुकृपा से ही प्राप्त हो सकता है, बुद्धि द्वारा नहीं। यह ज्ञान ही मुक्त करा सकता है, उससे कम कुछ भी नहीं।

हरियाणा की खाप पंचायतों द्वारा तैमूर लंग को हराकर भारत से भागने को बाध्य करना ---

 

हरियाणा की खाप पंचायतों द्वारा तैमूर लंग को हराकर भारत से भागने को बाध्य करना ---
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"तैमूर लंग" नाम के एक दुर्दांत मंगोल लुटेरे और हत्यारे के बारे में काफी कुछ लिखा जाता है, लेकिन हरियाणा की खाप पंचायतों के शूरवीरों के बारे में नहीं बताया जाता जिन्होने उस हत्यारे को हराकर भारत से भगाया था। हरियाणा की उन खाप पंचायतों के इतिहास को अंग्रेज़ और भारतीय वामपंथी इतिहासकारों ने हम से छिपाया है। हरियाणा की खाप पंचायतों ने उसकी अधिकांश सेना को मार डाला था और उसे भारत से भागने को विवश कर दिया।
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तैमूर लंग ने मार्च सन् १३९८ ई० में भारत पर ९२,००० घुड़सवारों की सेना के साथ तूफानी आक्रमण किया। उसका आदेश था कि जिधर से मैं गुजरूँ, उधर का हर गाँव जला हुआ होना चाहिए और हर तरफ पेड़ों पर लाशें लटकी हुई होनी चाहिए। सार्वजनिक कत्लेआम, लूट-खसोट और अत्याचारों से उसने पूरे भारत को आतंकित कर दिया। उसका लक्ष्य हरिद्वार का विध्वंश था।
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हरियाणा की खाप पंचायतों ने संगठित होकर उसका सामना करने का निर्णय लिया। राजा देवपाल जाट और हरबीर सिंह गुलिया के नेतृत्व में इन्होनें स्वयं को संगठित किया। हरबीरसिंह गुलिया ने अपनी खाप पंचायती सेना के २५,००० वीर योद्धा सैनिकों के साथ तैमूर के घुड़सवारों पर हमला बोला और शेर की तरह दहाड़ कर तैमूर की छाती में भाला मारा जिससे वह बच तो गया पर उसी घाव से बापस समरकंद उज्बेकिस्तान जाकर मर गया।
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पंचायती सेना में लगभग अस्सी हज़ार पुरुष और चालीस हज़ार महिलाओं ने शस्त्र उठाये। इस सेना को एकत्र करने में धर्मपालदेव जाट योद्धा जिसकी आयु ९५ वर्ष की थी, ने बड़ा सहयोग दिया था। उसने घोड़े पर चढ़कर दिन रात दूर-दूर तक जाकर नर-नारियों को उत्साहित करके इस सेना को एकत्र किया। उसने तथा उसके भाई करणपाल ने इस सेना के लिए अन्न, धन तथा वस्त्र आदि का प्रबन्ध किया। वीर योद्धा जोगराजसिंह गुर्जर को प्रधान सेनापति बनाया गया। पाँच महिला वीरांगनाएं सेनापती भी चुनी गईं जिनके नाम थे -- रामप्यारी गुर्जर, हरदेई जाट, देवीकौर राजपूत, चन्द्रो ब्राह्मण और रामदेई त्यागी। धूला बाल्मिकी और हरबीर गुलिया उप प्रधान सेनापति चुने गए। विभिन्न जातियों के बीस सहायक सेनापति चुने गये।
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तैमूरी सेना को पंचायती सेना ने दम नहीं लेने दिया। दिन भर युद्ध होते रहते थे। रात्रि को जहां तैमूरी सेना ठहरती थी वहीं पर पंचायती सेना धावा बोलकर उनको उखाड़ देती थीं। वीर देवियां अपने सैनिकों को खाद्य सामग्री एवं युद्ध सामग्री बड़े उत्साह से स्थान-स्थान पर पहुंचाती थीं। शत्रु की रसद को ये वीरांगनाएं छापा मारकर लूटतीं थीं। आपसी मिलाप रखवाने तथा सूचना पहुंचाने के लिए ५०० घुड़सवार अपने कर्त्तव्य का पालन करते थे। रसद न पहुंचने से तैमूरी सेना भूखी मरने लगी। उसके मार्ग में जो गांव आता उसी को नष्ट करती जाती थी। मेरठ से मुज़फ्फरनगर और सहारनपुर के मध्य पंचायती सेना ने तैमूरी सेना पर बड़े भयानक आक्रमण किये।
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हरिद्वार से पांच कोस पहिले तक तैमूरी सेना मार्ग में आने वाले हर गाँव को जलाती हुई और हर आदमी को मारते हुए पहुँच गयी थी। सेनापति जोगराजसिंह गुर्जर ने अपने २२,००० योद्धाओं के साथ शत्रु की सेना पर धावा बोलकर उस के ५,००० घुड़सवारों को काट डाला। हरिद्वार के जंगलों में तैमूरी सेना के २८०५ सैनिकों के रक्षादल पर बाल्मीकि उपप्रधान सेनापति धूला धाड़ी ने अपने १९० सैनिकों के साथ धावा बोला और लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ। प्रधान सेनापति जोगराजसिंह ने अपने वीर योद्धाओं के साथ तैमूरी सेना पर भयंकर धावा करके उसे अम्बाला की ओर भागने पर मजबूर कर दिया। तैमूरी सेना हरिद्वार तक नहीं पहुँच सकी और भाग खड़ी हुई।
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सेनापति दुर्जनपाल अहीर मेरठ युद्ध में अपने २०० वीर सैनिकों के साथ वीर गति को प्राप्त हुये। इन युद्धों में तैमूर के ढ़ाई लाख सैनिकों में से खाप पंचायती वीर योद्धाओं ने लगभग एक लाख साठ हज़ार को मौत के घाट उतार कर तैमूर की आशाओं पर पानी फेर दिया। पंचायती सेना के लगभग पैंतीस हज़ार वीर-वीरांगनाएं इस युद्ध में वीर गति को प्राप्त हुए।
इस युद्ध के अभिलेख खाप पंचायतों के भाटों ने लिखे जो अभी तक सुरक्षित हैं|
जय जननी !! जय भारत !!
(साभार : श्री अक्षय त्यागी रासना के मूल लेख से संकलित).

"मेरा एकमात्र संबंध भगवान से है, अन्य किसी से भी नहीं; अन्य सब मात्र एक औपचारिक लोकाचार है" --

 

"मेरा एकमात्र संबंध भगवान से है, अन्य किसी से भी नहीं;
अन्य सब मात्र एक औपचारिक लोकाचार है" --
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हे भगवान, "मैं आपको नमन करता हूँ, और स्वयं को भी नमन करता हूँ। जो आप हैं वह ही मैं हूँ, और जो मैं हूँ वह ही आप हैं। यह सारी सृष्टि, सारा चराचार जगत व इससे परे जो कुछ भी है, वह आप और मैं ही हूँ। मैं यह शरीर नहीं, आप के साथ एक हूँ, आपकी पूर्णता हूँ। आप स्वयं को इसी क्षण मुझमें व्यक्त करो। एक क्षण भी अब और मैं आपके बिना जीवित नहीं रह सकता। आपके बिना जो नारकीय जीवन मैं जी रहा हूँ, उसका एक क्षण भी और जीने की मेरी इच्छा नहीं है। मुझे इस नारकीय जीवन से इसी क्षण तुरंत मुक्त करो। आपकी प्रत्यक्ष व्यक्त उपस्थिति से कम अन्य कुछ भी मुझे नहीं चाहिए।"
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गीता में अर्जुन द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति जो मेरे जीवन का अटूट भाग है ---
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥११:३९॥
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥११:४०॥"
भावार्थ जैसा मैं समझता हूँ :---
आप ही यम (मूलाधार चक्र), वरुण (स्वाधिष्ठान चक्र), अग्नि (मणिपुर चक्र), वायु (अनाहत चक्र), शशांक (विशुद्धि चक्र), प्रजापति (आज्ञा चक्र), और प्रपितामह (सहस्त्रार चक्र) हैं| आपको हजारों बार नमस्कार है।
पुनश्च: आपको "क्रिया" (क्रियायोग के अभ्यास और आवृतियों) के द्वारा अनेकों बार नमस्कार (मैं नहीं, आप ही हैं, यानि कर्ता मैं नहीं आप ही हैं) हो।
(यह अतिशय श्रद्धा, भक्ति और अभीप्सा का भाव है)
आप को आगे से और पीछे से (इन साँसों से जो दोनों नासिका छिद्रों से प्रवाहित हो रहे हैं) भी नमस्कार है (ये साँसें आप ही हो, ये साँसें मैं नहीं, आप ही ले रहे हो)। सर्वत्र स्थित हुए आप को सब दिशाओं में (सर्वव्यापकता में) नमस्कार है। आप अनन्तवीर्य (अनंत सामर्थ्यशाली) और अमित विक्रम (अपार पराक्रम वाले) हैं, जो सारे जगत में, और सारे जगत को व्याप्त किये हुए सर्वरूप हैं। आपसे अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
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यह मैं और मेरा होने का भाव मिथ्या है। जो भी हैं, वह आप ही हैं। जो मैं हूँ वह भी आप ही हैं। हे प्रभु , आप को बारंबार नमन है !!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ दिसंबर २०२१
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पुनश्च :-- जो इस लेख को पढ़ रहे हैं, उन सब को भी मैं नमन करता हूँ॥

सत्य की अनुभूति तो स्वयं को ही करनी होगी ---

 

सत्य की अनुभूति तो स्वयं को ही करनी होगी ---
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मैं भगवान को धन्यवाद देना चाहता हूँ कि उन्होंने सगे-संबंधियों, शत्रु-मित्रों, व परिचितों-अपरिचितों के रूप में आकर मेरा सदा मार्गदर्शन, प्रोत्साहन, प्रेरणा, शक्ति, और बहुत ही अच्छा साथ दिया है। जीवन में अच्छे-बुरे जो भी लोग मिले, वे सब भगवान के ही रूप थे। अच्छे-बुरे सारे अनुभव भी भगवान का ही प्रसाद था। मुझे सही मार्ग पर चलने का प्रोत्साहन और प्रेरणा सदा मिलती रही है। कोई कमी थी तो मुझ में ही थी, दूसरों में नहीं। मैं सभी का कृतज्ञ हूँ।
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भगवान की पूरी कृपा मुझ अकिंचन पर सदा बनी रही है। जितनी मेरी पात्रता थी, उससे बहुत ही अधिक आध्यात्मिक अनुभूतियाँ, ज्ञान और भक्ति भगवान ने मुझे प्रदान की हैं। आध्यात्मिक भावभूमि पर किसी भी तरह का कोई संशय और शंका मुझे नहीं है, सारी अवधारणाएँ स्पष्ट हैं। मेरी हिमालय से भी बड़ी-बड़ी भूलों की भी भगवान ने उपेक्षा की है। उनके कृपासिंधु में वे छोटे-मोटे कंकर-पत्थर से अधिक नहीं हैं, जो वहाँ भी शोभा दे रहे हैं। अब पूरा जीवन भगवान को समर्पित है, जो भगवान के साथ ही बीत जाएगा। कोई कामना अवशिष्ट नहीं है। भगवान हैं, अभी है, इसी समय हैं, यहीं पर हैं, सर्वत्र और सर्वदा मेरे साथ हैं। मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए।
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हमें नित्य कम से कम तीन घंटे तक पूरी सत्यनिष्ठा से आध्यात्मिक साधना करनी ही होगी, तभी हम भगवान के उपकरण बन सकेंगे। तभी हम राष्ट्र और धर्म की रक्षा कर सकेंगे। बड़ी बड़ी बातों में कुछ नहीं रखा है। धर्म का पालन ही धर्म की रक्षा है। जो धर्म की रक्षा करेगा, धर्म उसी की रक्षा करेगा।
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आध्यात्म में कमाई स्वयं की ही काम आएगी, दूसरों की नहीं। साधना के उत्तुंग शिखरों पर चढ़ कर उनके पार देखने और बाधाओं के विशाल महासागरों को पार करने वाले ही आगे के दृश्य देख पायेंगे और विजयी होंगे। सुनी-सुनाई बातों और दूसरों के अनुभवों में कुछ नहीं रखा है; इनसे हमें सिर्फ प्रेरणा ही मिल सकती है। सत्य की अनुभूति तो स्वयं को ही करनी होगी। जितना परिश्रम करोगे, भगवान से उतना ही अधिक पारिश्रमिक मिलेगा। बिना परिश्रम के कुछ भी नहीं मिलेगा। भगवान भी अपना अनुग्रह उन्हीं पर करते हैं जो परमप्रेममय होकर उनके लिए परिश्रम करते हैं। मेहनत करोगे तो मजदूरी भी मिलेगी। संसार भी हमें मेहनत के बदले मजदूरी देता है, तो फिर भगवान क्यों नहीं देंगे? संत तुलसीदास जी ने कहा है --
"तुलसी विलम्ब न कीजिए भजिये नाम सुजान।
जगत मजूरी देत है क्यों राखे भगवान॥"
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अधिकांश लोग संत-महात्माओं के पीछे पीछे इसलिए भागते हैं कि संभवतः संत-महात्मा अपनी कमाई में से कुछ दे देंगे, पर ऐसा होता नहीं है। संत-महात्मा अधिक से अधिक हमें प्रेरणा दे सकते हैं, मार्गदर्शन कर सकते हैं, और सहायता कर सकते हैं, इस से अधिक नहीं। वे अपनी कमाई यानि अपना पुण्य किसी को क्यों देंगे? पुण्यार्जन के लिए परिश्रम तो स्वयं को ही करना होगा।
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सभी को मंगलमय शुभ कामना और नमन !! भगवान की परम कृपा आप सब पर बनी रहे।
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ नमः शिवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ दिसंबर २०२१

सौ बात की एक बात ---

 

सौ बात की एक बात ---
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पिछले दस वर्षों से अब तक भगवान की भक्ति के बारे में जो कुछ भी लिखा है, वह सब एक तरफ, और आज जो लिखने जा रहा हूँ वह एक तरफ है। इधर उधर की बड़ी-बड़ी बातों से कोई लाभ नहीं है, सबसे बड़ी काम की बात सीधे ही कहना चाहता हूँ। इसके बाद मेरे पास भी समय नहीं है, क्योंकि भगवान से उधार मांगे हुये समय में जी रहा हूँ।
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मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य भगवत्-प्राप्ति है, यही हमारा स्वधर्म है, और यही सत्य-सनातन-धर्म का सार है। यदि कोई व्यक्ति अपने निज जीवन में भगवत्-प्राप्ति के लिए गंभीर और निष्ठावान है, तो उसे प्रतिदिन पूरी सत्यनिष्ठा से कम कम तीन घंटे तो भगवान का ध्यान करना ही होगा। उससे कम में काम नहीं चलेगा। इससे अधिक की कोई सीमा नहीं है। भगवान ने हमें दिन में २४ घंटे दिये हैं, उसके आठवें भाग पर तो भगवान का पूरा अधिकार है। अतः वह भाग भगवान को बापस दें।
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यदि ध्यान नहीं कर सकते तो नित्य कम से कम एकसौ माला अपने इष्ट देवी/देवता के बीज मंत्र की जपें। बीजमंत्र की एकसौ माला जपने में कम से कम ढाई से तीन घंटे लगेंगे। जो शक्ति साधक हैं, वे कमलगट्टे की, शिव साधक रुद्राक्ष की, और वैष्णव तुलसी माला का प्रयोग करें। निष्काम साधना में नियमों के अधिक बंधन नहीं हैं। अतः तीन घंटे तक पूरी सत्यनिष्ठा से यानि ईमानदारी से जपयोग करें। तीन घंटे तक सत्यनिष्ठा से बीज मंत्र के जप करने को एक सौ माला के बराबर मान लीजिये।
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यदि आप बीजमंत्र के स्थान पर अपने इष्ट देवी/देवता के पूरे मंत्र का जप करते हैं तो भी कम से कम तीन घंटे तक जप करना चाहिए। इसे दिन में दो टुकड़ों में भी कर सकते हैं। जो द्विज हैं उन्हें दिन में कम से कम से कम संख्या में दस बार गायत्री जप अनिवार्य हैं। यदि वे एक बार भी नहीं करते तो द्विजत्व से च्युत हो जाते है, और प्रायश्चित करना पड़ता है। अधिक से अधिक वे जितना भी जप कर सकते हैं करें, फिर भी वह कम ही रहेगा।
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जपयज्ञ सबसे बड़ा यज्ञ है क्योंकि श्रीमद्भवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं --
"महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः॥१०:२५॥"
अर्थात् -- महर्षियों में भृगु और वाणियों-(शब्दों-) में एक अक्षर अर्थात् प्रणव मैं हूँ। सम्पूर्ण यज्ञों में जपयज्ञ और स्थिर रहनेवालों में हिमालय मैं हूँ।
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वैसे मानसिक रूप से हमें हर समय चौबीस घंटे निरंतर भगवान के नाम का मानसिक जप करते रहना चाहिए। यह संसार एक युद्धभूमि है जहाँ हम निरंतर एक युद्ध लड़ रहे हैं। वह युद्ध अधर्म के विरुद्ध है। भगवान का निरंतर अनुस्मरण करते हुए हम यह युद्ध करें। भगवान कहते हैं --
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् -- इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो। मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
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इतना ही लिखने की प्रेरणा भगवान से मिली थी, सो लिख दिया। मैं आप सब का एक सेवक मात्र हूँ। समष्टि के कल्याण हेतु ही मेरे माध्यम साधना होती है। समष्टि का हित ही मेरा हित है। मेरी कोई कामना नहीं है। मैं सदा आपके साथ हूँ।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० दिसंबर २०२१

हमारी सबसे बड़ी समस्या और उसका समाधान क्या है?

 

(प्रश्न). हमारी सबसे बड़ी समस्या क्या है? और उसका समाधान क्या है?
(उत्तर). हमारी कोई समस्या नहीं है। हम स्वयं ही समस्या हैं।
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इसका समाधान है - "आत्म-साक्षात्कार", यानि परमात्मा में पूर्ण समर्पण और पृथकता के बोध की समाप्ती। आत्म-साक्षात्कार -- सबसे बड़ी सेवा है जो हम समष्टि के लिए कर सकते हैं। यही आत्माराम होना है, यही कूटस्थ-चैतन्य है, यही ब्राह्मी स्थिति है, और यही ईश्वर की प्राप्ति है। परमात्मा से जुड़कर हमें धर्म और अधर्म से भी ऊपर उठना ही होगा। ये भी अंतत एक बंधन हैं।
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इस विषय पर और कुछ भी नहीं लिखूंगा। श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों व रामचरितमानस, सम्पूर्ण महाभारत, भागवत पुराण आदि का स्वाध्याय करें; संत-महात्माओं का सत्संग करें, भगवान को अपना प्रेम दें, और भगवान की उपासना करें। भगवान स्वयं ही सब कुछ समझा देंगे। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१७ दिसंबर २०२१

सनातन धर्म ही इस देश का भविष्य है, हम अपनी उपासना भगवत्-प्राप्ति के लिए ही करें ---

 

सनातन धर्म ही इस देश का भविष्य है ---
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यहाँ की राजनीति, शिक्षा-व्यवस्था, कृषि-व्यवस्था, और अन्य सारी व्यवस्थाएं सनातन धर्म पर ही आधारित होंगी। एक आध्यात्मिक शक्ति इस दिशा में कार्य कर रही है जिसे रोकने का सामर्थ्य किसी में भी नहीं है। यह कार्य धीरे धीरे हो रहा है। असत्य का अंधकार भारत से दूर चला जाएगा। भारत विजयी होगा। हमारा कार्य स्वधर्म पर दृढ़ रहना है। स्वधर्म और परधर्म क्या है, यह मैं अनेक बार लिख चुका हूँ। यह युग-परिवर्तन का समय है। आने वाले समय में अनेक परिवर्तन होंगे। भयावह विनाश भी होगा और नवनिर्माण भी होंगे।
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जिनके जीवन में सदाचार है और जिन्होंने भगवान का आश्रय लिया है, भगवान उनकी रक्षा करेंगे। हम अपनी सारी आध्यात्मिक उपासना "भगवत्-प्राप्ति" के लिए ही करें। हमारे जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य यही है। यही "सत्य-सनातन-धर्म" है और यही हमारा "स्वधर्म" है। इसका दृढ़ता से पालन ही हमारी रक्षा कर सकता है। अन्यथा विनाश सुनिश्चित है। हर दृष्टिकोण से शक्तिशाली और संगठित बनें। हमारे चरित्र और आचरण में कोई कमी नहीं हो। नित्य ईश्वर का ध्यान करें, और ईश्वर-प्रदत्त विवेक के प्रकाश में ही निमित्तमात्र होकर हर कार्य करें। जीवन में मंगल ही मंगल और शुभ ही शुभ होगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ दिसंबर २०२१

आज "विजय दिवस" है, सभी देशवासियों का अभिनंदन, बधाई और मंगलमय शुभ कामनायें ---

 

आज "विजय दिवस" है, सभी देशवासियों का अभिनंदन, बधाई और मंगलमय शुभ कामनायें ---
(हम युद्ध में तो विजयी रहे पर कूटनीति में हार गए। अन्यथा हम विजयी हैं, और सदा विजयी ही रहेंगे)
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आज एक स्वाभिमान और आत्म-गौरव का दिवस है। ५० वर्ष पूर्व १६ दिसंबर १९७१ को भारत ने एक दुष्ट और अत्याचारी देश पाकिस्तान को पूर्ण रूप से युद्ध में हराकर, पाकिस्तान के ९३,००० से अधिक सैनिकों को युद्धबंदी बनाया और बांग्लादेश का निर्माण किया। हम युद्ध में जीते तो अवश्य पर वार्ता की मेज पर पाकिस्तान की कूटनीति से हार गए। पाकिस्तान से हम उसके सैनिकों के बदले कुछ भी ले सकते थे। हम उनके बदले पाक-अधिकृत कश्मीर का सौदा कर सकते थे, लाहौर भी ले सकते थे। पर अपने भोलेपन (या मूर्खता) के कारण अपने लगभग ५५ युद्धबंदियों को भी पाकिस्तान से नहीं छुड़ा पाये, और पाकिस्तान के ९३,००० से अधिक सैनिकों को सही सलामत बिना एक भी खरौंच भी आए छोड़कर पाकिस्तान पहुंचा दिया। भारतीय युद्धबंदियों को दुष्ट देश पाकिस्तान ने बहुत ही यातना दे देकर मार दिया। यह हमारी कूटनीतिक पराजय थी। फिर भी यह हमारी एक महान सैनिक विजय थी जिस पर हमें गर्व है।
उस युद्ध में मारे गए सभी भारतीय सैनिकों को श्रद्धांजलि। जो भी उस समय के पूर्व सैनिक जीवित हैं, उन सब को नमन!! भारत माता की जय!!
कृपा शंकर
१६ दिसंबर २०२१
पुनश्च :---
हम लोग 1971 की लड़ाई में इंदिरा गांधी की पीठ थपथपाते हैं लेकिन हम लोगों को बेनजीर भुट्टो के पति आसिफ अली जरदारी का पाकिस्तान के संसद में दिया गया यह बयान जरूर पढ़ना चाहिए-----
जब पाकिस्तान के 90000 से ज्यादा सैनिक भारत की कैद में थे उनके तीन हजार से ज्यादा सैनिक अधिकारी हमारी हिरासत में थे ..पाकिस्तान की सेना आत्मसमर्पण कर चुकी थी
भारतीय सेना सिंध के जिले थारपारकर को भारत में मिला शामिल कर चुकी थी और उसे गुजरात का एक नया जिला घोषित कर दिया गया था और मुजफ्फराबाद पार्लियामेंट पर तिरंगा झंडा फहरा दिया गया था
जुल्फिकार अली भुट्टो जब इंदिरा गांधी से शिमला समझौता करने आया तब वह अपनी बेटी बेनजीर भुट्टो को भी साथ में लाया था।
जुल्फिकार अली भुट्टो अपनी बेटी को राजनीति सिखा रहा था।
इंदिरा गांधी ने जुल्फिकार अली भुट्टो के सामने शर्त रखी यदि आपको अपने 93000 सैनिक वापस चाहिए तब आप कश्मीर हमें दे दीजिए, जुल्फिकार अली भुट्टो ने इंदिरा गांधी से कहा कि हम आपको कश्मीर नहीं देंगे, मैं कोई दस्तखत नहीं करूंगा, आप यह 93000 सैनिकों को अपने पास ही रखो।
इंदिरा गांधी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि जुल्फिकार अली भुट्टो उनसे भी बड़ा खिलाड़ी है। वह जानता है कि सीमाओं पर हारी हुई युद्ध को टेबल पर कैसे जीता जाता है।
इंदिरा गांधी की हालत ऐसी हो गई थी जैसे कोई नमाज़ पढ़ने जाए और उसके गले रोजे पड़ जाएं।
पुपुल जयकर और कुलदीप नैयर दोनों ने अपनी किताब में लिखा है, इंदिरा गांधी उस मौके पर चूक गई, उनके और उनके सलाहकारों के पास कोई ऐसा कूटनीतिक ज्ञान नहीं था कि ऐसी स्थिति को कैसे संभाला जाए।
जिनेवा समझौते के तहत यदि कोई देश किसी युद्ध बंदी को पकड़ता है तब उसे युद्ध बंदी की डिग्निटी का पूरा ख्याल रखना होता है।
जुल्फिकार अली भुट्टो ने शाम को होटल में अपनी बेटी बेनजीर भुट्टो से कहा इस युद्ध में भारत की कमर टूट चुकी है, हमने युद्ध पूरी बहादुरी से लड़ा हमने भारत की अर्थव्यवस्था को बहुत करारी चोट दिया है। भारत पहले ही बांग्लादेशी शरणार्थियों का बोझ झेल चुका है अब भारत 93000 पाकिस्तानी सैनिकों को कैसे पालेगा और अगर भारत 93000 पाकिस्तानी सैनिकों को अपने पास बसाना चाहता है तो बसाए और उन कायर सैनिकों को हम वापस लेकर भी क्या करेंगे? मैंने इंदिरा गांधी की हालत सांप के गले में पड़ी छछूंदर जैसी कर दी है।
और अंत में इंदिरा गांधी की हालत ऐसी हो गई जैसे कोई सौ जूते भी खाए और सौ प्याज भी खाए।
इंदिरा गांधी ने कश्मीर भी पाकिस्तान को दे दिया 93000 सैनिक भी वापस कर दिए और अपने 56 सैनिकों को पाकिस्तान की जेल में मरने को छोड़ दिया, और 8 महीने के बाद नोबेल पुरस्कार की इच्छा में भारत के गुजरात राज्य में शामिल जिला थारपारकर को भी पाकिस्तान को वापस कर दिया जबकि थारपारकर की उस वक्त 98% आबादी हिंदू थी।
शिमला समझौते के बाद उस वक्त के सेना प्रमुख ने रिटायरमेंट के बाद जो किताब लिखी थी उसमें कहा था इस युद्ध को हमने लड़ाई के मैदान में तो जीत लिया लेकिन टेबल पर राजनेताओं ने भारत को हरा दिया।
और वो राजनेता इंदिरा गांधी थी।
कांग्रेस का इतिहास बताता है की इन्होंने भारत को बर्बाद ही किया
 

हमारे हृदय के एकमात्र राजा श्रीराम हैं ---

 

इस राष्ट्र में धर्म रूपी बैल पर बैठकर भगवान शिव ही विचरण करेंगे, भगवान श्रीराम के धनुष की ही टंकार सुनेगी, और नवचेतना को जागृत करने हेतु भगवान श्रीकृष्ण की ही बांसुरी बजेगी।
हमारे हृदय के एकमात्र राजा श्रीराम हैं। उन्होंने ही सदा हमारी हृदय-भूमि पर राज्य किया है, और सदा वे ही हमारेे राजा रहेंगे। हमारे हृदय की एकमात्र महारानी भगवती सीता जी हैं। वे ही हमारी गति हैं। अन्य किसी का राज्य हमें स्वीकार्य नहीं है।
राम से एकाकार होने तक हमारे हृदय में प्रज्ज्वलित अभीप्सा की प्रचंड अग्नि का दाह नहीं मिटेगा। राम से पृथक होने की यह घनीभूत पीड़ा हर समय हमें निरंतर दग्ध करती रहेगी। राम ही हमारे अस्तित्व हैं, और उनसे एक हुए बिना इस भटकाव का अंत नहीं होगा।
ॐ तत्सत् !!
१५ दिसंबर २०२१

पुत्र के लिए पिता ही कष्ट उठा सकता है (हृदय की एक घनीभूत पीड़ा) ---

पुत्र के लिए पिता ही कष्ट उठा सकता है (हृदय की एक घनीभूत पीड़ा) ---
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भगवान मेरे हृदय में हैं, मुझसे बिल्कुल भी दूर नहीं हैं। उनमें और मुझमें कोई दूरी नहीं है। उनकी उपस्थिति का पूर्ण आनंद मुझे होना चाहिए, लेकिन मेरे हृदय में एक घनीभूत पीड़ा है। यह पीड़ा मेरी नहीं, बल्कि सारी सृष्टि की है। सारे संसार का दुःख, वेदना और असह्य घनीभूत पीड़ा मुझे अनुभूत हो रही है, उससे मैं बच नहीं सकता। इस पीड़ा को मैं बापस भगवान को लौटा रहा हूँ। यह संसार भगवान की रचना है जिसके अच्छे-बुरे सभी कर्मों के लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं, मैं नहीं।
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अपनी व्यथा भगवान के समक्ष व्यक्त की तो उन्होंने उसका समाधान भी बता दिया है। भगवान कहते हैं कि मुझे अपनी निज चेतना में उनकी इस सृष्टि की अनंतता से भी ऊपर उठना होगा। इसके लिए उन्होंने मुझे सूक्ष्म जगत में उनकी अनंतता यानि दहराकाश से भी परे परमशिव का गहन ध्यान करने को कहा है। भगवान कहते हैं कि जब तक तुम इस अनंतता की सीमा में हो, तब तक तुम्हें सुख के साथ-साथ, दुःख भी भोगना ही पड़ेगा। तुम्हें इस अनंत विराटता से परे जाना होगा जहाँ आनंद ही आनंद है, कोई विषाद नहीं।
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मेरी अंतर्चेतना कह रही है कि इस शरीर की भौतिक मृत्यु से पूर्व ही मुझे निर्विकल्प समाधि की अवस्था को प्राप्त कर उस से भी परे जाना होगा। यहाँ भी मैं भगवान की सहायता पर ही निर्भर हूँ। मुझ अकिंचन में इतनी शक्ति, सामर्थ्य और क्षमता नहीं है। मेरी जगह स्वयं भगवान को ही साधना करनी होगी। हे भगवन्, जब इतनी दूर ले ही आये हो तो अब मुझे अधर में छोड़ नहीं सकते। पार तो आपको ही लगाना पड़ेगा। पुत्र के लिए पिता ही कष्ट उठा सकता है। ॐ तत्सत्॥
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कृपा शंकर
१४ दिसंबर २०२१