Monday, 3 January 2022

साधक कौन है? ---

साधक कौन है? ---
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यदि हम स्वयं को साधक समझते हैं या साधना करने का भ्रम पालते हैं तो हम गहरे अज्ञान में हैं। साधक होने के अहंकार से मुक्त होना ही पड़ेगा। अनुभूतियाँ बदलती रहती हैं, भाव भी बदलते रहते हैं, तदनुसार समय के साथ साथ हमारा दृष्टिकोण भी बदल जाता है। भगवान स्वयं ही स्वयं की साधना करते हैं, हम तो उनके साक्षी निमित्त मात्र हैं। एक दिन मैंने पाया कि साधना करने का भाव मेरा अज्ञान था। अचानक ही ध्यान में अनुभूति हुई मैं तो कहीं हूँ ही नहीं। मेरे स्थान पर स्वयं भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण पद्मासन में बैठे है। उनके सिवाय कोई अन्य इस पूरी सृष्टि में नहीं था। वे शांभवी मुद्रा में थे। उनका नयनपथ भ्रूमध्य की ओर था लेकिन चेतना सारी सृष्टि में थी। वे सूक्ष्म जगत की अनंतता से भी परे अपनी ही एक सृष्टि का ध्यान कर रहे थे। यह अनुभूति बहुत देर तक चली और यह सिखा गई कि मेरा साधना करने का भाव एक अहंकार मात्र है। उनका विग्रह एक परम ज्योति और आनंद में परिवर्तित हो गया। वे ही एकमात्र कर्ता हैं, उनमें समर्पित होना ही वास्तविक साधना है। ॐ तत्सत् !!
. उपनिषदों में और श्रीमद्भगवद्गीता में सारा ब्रह्मज्ञान भरा पड़ा है, जिसका स्वाध्याय समर्पित होकर पूर्ण भक्ति के साथ करो। अपने कूटस्थ हृदय में बिराजित भगवान की निरंतर अनुभूति और दर्शन करो। भगवान हैं, इसी समय हैं, और यहीं पर हैं। वे सर्वदा सर्वत्र हैं। कहीं भी इधर-उधर भटकने की आवश्यकता नहीं है। जब से मैंने भगवान को पकड़ा है, तब से उन्होंने मुझे और भी अधिक ज़ोर से पकड़ लिया है, और अब तो कभी भी नहीं छोडते। जब मैं उन्हें भूल जाता हूँ, तब वे मुझे याद कर लेते हैं। भगवान की उपस्थिती से अधिक दिव्य अन्य कुछ भी नहीं है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ दिसंबर २०२१

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