Monday, 3 January 2022

मैं ईश्वर-प्रदत्त विवेक के प्रकाश में संकल्प कर के बिना किसी कर्मकांड और औपचारिकता के जीवित रहते हुए ही अपना पिंडदान करना चाहता हूँ ----

 

मैं ईश्वर-प्रदत्त विवेक के प्रकाश में संकल्प कर के बिना किसी कर्मकांड और औपचारिकता के जीवित रहते हुए ही अपना पिंडदान करना चाहता हूँ ----
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मेरा यह शरीर और अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) ही मेरे पिंड हैं। भगवान का ध्यान कर के, उनकी उपस्थिति में संकल्प लेकर इन्हें भगवान को सौंप दूंगा। यही मेरा पिंडदान होगा। कर्मकांड वाला विधान बहुत अधिक लंबा है, जिसे करवाने का धैर्य मुझमें नहीं है।
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सन्यास लेने की पात्रता भी मुझमें नहीं है लेकिन जब भी भगवान से प्रेरणा मिलेगी, तब अपने आप ही विवेक आर्त सन्यास ले लूँगा। गीता में भगवान कहते हैं --
"उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥६:५॥"
अर्थात् - अपने द्वारा अपना उद्धार करे, अपना पतन न करे; क्योंकि आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।
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कर्मकांड से किसी को मोक्ष नहीं मिलता। जब तक परमात्मा का साक्षात्कार न हो तब तक मुक्ति नहीं मिल सकती। कृष्ण यजुर्वेद के श्वेताश्वतरोपनिषद के तीसरे अध्याय का आठवाँ मंत्र कहता है --
"वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्‌।
तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥"
अर्थात् - "मैं उस परम पुरुष को जान गया हूँ जो सूर्य के समान देदीप्यमान है और समस्त अन्धकार से परे है। जो उसे अनुभूति द्वारा जान जाता है वह मृत्यु से मुक्त हो जाता है। जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा का कोई अन्य मार्ग नहीं है।"
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आत्म साक्षात्कार के द्वारा ईश्वर से जुड़कर ही हम मुक्त हो सकते हैं। मैं नहीं चाहता कि इस शरीर महाराज की मृत्यु के बाद मेरे लौकिक परिवार के लोग किसी भी तरह की परेशानी में पड़ें। यह शरीर तो भस्म हो जाएगा, लेकिन मेरा स्थायी निवास तो परमात्मा के हृदय में ही होगा। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ दिसंबर २०२१
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पुनश्च :-- पिंड दान --- हमें इस देह में जीवित रहते हुए ही अपना स्वयं का पिंडदान भी कर देना चाहिए। मृत्यु के बाद घर वालों को यह कष्ट न दें तो यह एक बहुत बड़ा परोपकार होगा। अपने अंतिम संस्कार के लिए भी स्वयं का कमाया हुआ ही पर्याप्त धन, घर वालों के पास छोड़ देना चाहिए ताकि उन पर कोई भार न पड़े। केवल श्राद्ध करने से कोई मुक्ति नहीं मिलती है, अपना स्वयं का किया हुआ सत्कर्म ही अंततः काम आयेगा। अपना अंतःकरण भगवान को सौंप दें, यही सबसे बड़ा पिंडदान है, यही सच्चा श्राद्ध है।
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पुनश्च : -- गुरु कृपा से आज एक बात और समझ में आई है। कितनी बार भी भागवत सुन लो, कितना भी पिंडदान कर लो, इससे मुक्ति मिलेगी इसकी कोई सुनिश्चितता नहीं है। भागवत में बताई हुई सात गाँठें -- मेरुदंड के सात चक्र हैं। श्वास रूपी साधना द्वारा प्राण-तत्व को इन सातों चक्रों का भेदन कर सहस्त्रार में स्थिर करने के उपरांत ही मुक्ति संभव है। ब्रह्मरंध्र के ऊपर भी एक चक्र है जिसका भी भेदन करना पड़ता है। उससे भी बहुत ऊपर एक आलोकमय लोक है, जहाँ स्वयं परमशिव हैं, उसके बारे में अनेक बार लिख चुका हूँ, और लिखने का साहस व धैर्य नहीं है। उन परमशिव में स्थिति ही मुक्ति है।
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पुनश्च :--- श्वेताश्वतरोपनिषद के छठे अध्याय का पंद्रहवाँ मंत्र कहता है --
"एको हंसो भुवनस्यास्य मध्ये स एवाग्निः सलिले संनिविष्टः।
तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥"
यह मंत्र 'हंसस्वरूपी आत्मसत्ता' का ज्ञान प्राप्त करने को कहता है। यह ज्ञान गुरुकृपा से ही प्राप्त हो सकता है, बुद्धि द्वारा नहीं। यह ज्ञान ही मुक्त करा सकता है, उससे कम कुछ भी नहीं।

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