Monday, 3 January 2022

भगवान से प्रेम कोई "आत्ममुग्धता" या "आत्मप्रवंचना" नहीं है ---

 

भगवान से प्रेम कोई "आत्ममुग्धता" या "आत्मप्रवंचना" नहीं है ---
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जो लोग भगवान के प्रति प्रेम को नहीं समझ सकते, वे लोग इसे आत्ममुग्धता या आत्मप्रवंचना कहते हैं। मुझे कुछ लोग आत्ममुग्ध समझते हैं, व कुछ लोग आत्मप्रवंचक कहते हैं। ये दोनों ही शब्द विपरीत अर्थ वाले हैं। मैं इन में से कोई सा भी नहीं हूँ। आत्मप्रवंचना का अर्थ खुद को छलना या खुद को धोखा देना होता है। इस से विपरीत आत्ममुग्धता का अर्थ स्वयं पर मुग्ध या मोहित होना है। मैं न तो स्वयं को छल रहा हूँ, न स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ मानता हूँ, और न ही इस भौतिक अस्तित्व को अधिक महत्व देता हूँ। मैं स्वयं को यह शरीर नहीं मानता। मेरे ऊपर परमात्मा की एक शक्ति है जिसका प्रत्यक्ष आभास मुझे समय समय पर होता है। मैं उस में समर्पित होना चाहता हूँ। सारा मार्गदर्शन मुझे भगवान श्रीकृष्ण से मिलता है। किसी भी तरह का कोई संशय या संदेह मुझे नहीं है। यह बताने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि उनकी कृपा से ही मुझे परमशिव की अनुभूतियाँ होती हैं, जो इस जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। "परमशिव" एक अनुभूति है जो भगवान की परमकृपा का प्रसाद है। इसे कोई किसी को न तो समझा सकता है, और न ही दे सकता है। मैं इस लौकिक अस्तित्व को न तो दूसरों से श्रेष्ठतर समझता हूँ, और न ही मुझे दूसरों के आकर्षण का केंद्र बनना पसंद है। कोई अज्ञात शक्ति ही मुझे यह सब लिखने की प्रेरणा देती है, अन्यथा मुझे तो एकांत ही पसंद है।
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मैं जो भी हूँ, वह परमात्मा के मन का एक विचार मात्र है। उससे अधिक या कम कुछ भी नहीं। परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ आप सब में परमात्मा को नमन!! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२५ दिसंबर २०२१

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