Monday 3 January 2022

धर्म ही भारत की विराट एकता का आधार और मर्म है: (भाग १ और २) लेखक: प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

धर्म ही भारत की विराट एकता का आधार और मर्म है: 1

-प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
आधारभूत तत्व है धर्म।
धर्म का अर्थ है ‘कॉस्मिक लॉज’ जो ‘कॉस्मिक आर्डर’ को ‘मेन्टेन’ रखते हैं। सृष्टि चक्र को अबाधित प्रवर्तित होने देना ही मानव धर्म है। भगवद्गीता में अध्याय 3 में इसे ही यज्ञ कहा गया है। यज्ञार्थ कर्म ही धर्म चक्र को प्रवर्तित रखते हैं। प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में ही प्रजाओं को यज्ञ के साथ सृजा है और कहा है कि इस यज्ञ के द्वारा ही तुम समृद्ध रहोगे तथा श्रेष्ठ कामनाएँ पूरी होंगी। यज्ञार्थ कर्म से दैव-शक्तियाँ प्रसन्न होती हैं और कर्त्ता को श्रेष्ठ भाव से भरती हैं। इससे परम श्रेय की प्राप्ति होती है और प्रेय की भी।
धर्म-बोध से उत्पन्न काम-बोध एवं अर्थ-बोध हमें शक्तिवान और समृद्ध बनाता है। ऐश्वर्य, विपुलता, प्रचुरता देता है। भारत अनादिकाल से विश्व का सर्वाधिक ऐश्वर्यशाली, समृद्ध, महिमावान राष्ट्र है। वह भारत जो इजराइल से जापान तक विस्तृत रहा है और समस्त हिमालय क्षेत्र जिसका अंग है, जिसमें तिब्बत, चीन, मंगोलिया से लेकर साइबेरिया (शिविरा) तक का समस्त क्षेत्र आता है और हिन्द महासागर तथा केस्पियन सागर जिसकी दक्षिणी सीमाएं हैं। इतना ऐश्वर्य विश्व के किसी भी राष्ट्र में कभी नहीं रहा।
इस हमारी समृद्धि के प्रचुर प्रमाण वेदों में, रामायण में, महाभारत में, जातक कथाओं एवं जैन सािहत्य में भरे पड़े हैं। हमारे अद्वितीय भव्य मंदिर, मूर्तियों का अद्वितीय सौंदर्य, देवताओं और उनके वाहनों के शरीर में सजे आभूषणों की प्रचुरता, मंदिरों में चित्रित घोड़ों-हाथियों, वृषभों तक के शरीर में शोभित आभूषणों की अपार विपुलता, प्राचीनतम काल में पाए जाने वाले अद्वितीय महल एवं भवन, 10 हजार वर्ष पूर्व समृद्ध नगर-वास्तु एवं ‘ड्रेनेज सिस्टम’ के प्रमाण, महाभारत में वन में चल रहे ऋषियों के साथ सैकड़ों ब्राह्मणों एवं ऋषियों का वर्णन तथा उनके साथ बैलगाड़ियों में लदी पुस्तकों का वर्णन, रामायण एवं महाभारत में सैकड़ों प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का वर्णन, वैदिक काल से उद्योग, शिल्प एवं वाणिज्य का तथा समृद्ध नगरों का वर्णन, देश भर में स्थल मार्ग में भव्य सड़कों के जाल बिछे होनेे के प्राचीन वर्णन, उनमें पहिये पर चलने वाले रथों, शकटों आदि का प्रभावी वर्णन, 19वीं शती ईस्वी तक देश में सैकड़ों जगत सेठ होने के स्वयं अंगेजों, जर्मनों, फ्रेंचों एवं अन्य यूरोपीयों के वर्णन, हर नगर में नगर सेठ होने का 20वीं शती ईस्वी तक का रिकार्ड, ये सब अति प्राचीनकाल से हमारी समृद्धि के साक्ष्य हैं। अत्यंत प्राचीन काल से हमारे यहां समुद्रमार्ग से व्यापार होता रहा है। इसीलिए हमारे महासागर का नाम हिंद महासागर है। अन्य किसी भी महासागर का नाम किसी देश के नाम से नहीं है। समुद्र हमारे लिए आत्मीय है, प्रिय है, हमारा क्रीड़ा क्षेत्र है।
हमारे भव्य मंदिर हजारों शिल्पियों की तपस्या से वर्षों में बनते थे। उसके लिए कितना समय, कितना धन, कितनी फुरसत, कैसी दक्षता, कौशल, तन्मयता, तल्लीनता, निपुणता चाहिए, कितनी शांति चाहिए, ये सब बताता है कि कितने आराम से, प्रचुरता और समृद्धि से राष्ट्र जीवन चलता रहा है। यह समृद्ध जीवन संभालने वाली हमारी राज्य व्यवस्था रही है, जिसका वर्णन हमारे राजशास्त्रों में विस्तार से है। भौतिक समृद्धि में भी हम अत्यंत उन्नत रहे हैं और आंतरिक वैभव में भी। यह जो भारतीय वैभव है इसका संरक्षण एक प्रबल बुद्धि-सम्पन्न राज्य व्यवस्था से ही संभव हुआ है। जिसके कारण मानवीय जीवन में विपुलता, समृद्धि, ऐश्वर्य का ऐसा विराट प्रवाह लाखों वर्षों से है।
दान की ऐसी महान परम्परा हमारे यहाँ रही है कि ग्रहण आदि दान-पर्वों पर भिक्षुक भी (दान लेने के साथ ही पर्व-स्नान के बाद) दान देते हैं। उसी महान परम्परा में हमारे यहां चलने वाले भंडारों और लंगरों में प्रतिदिन करोड़ों लोगों को भोजन मिलता है। उसी परम्परा के उत्तराधिकारी हमारे नरेन्द्र श्री नरेन्द्र मोदी ने कोरोना काल में 80 करोड़ लोगों को 6 महीने तक मुफ्त में अन्न दिया। यह भारत में ही सम्भव है। संयुक्त राज्य अमेरिका में तो सूप-किचन चले जिनमें सब्जियों आदि का रस देकर किसी तरह लोगों को जीवित रखा गया।
यह महान वैभवशाली समृद्धि परम्परा एक श्रेष्ठ राज्य व्यवस्था में ही संरक्षित रहती है। जो राज्य विचारों या आस्थाओं के आधार पर या जाति, वर्ग आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता अपितु सार्वभौम नियमों की मर्यादा में सबको अपनी-अपनी परम्परा के अनुसार जीवन जीने का अधिकार मानता है और तदनुसार वर्णाश्रम-धर्म प्रतिपालन जिसका सर्वोच्च लक्ष्य है। समाज को राज्यकर्ताओं की योजना के अनुसार बदलना, रूपांतरित करना अधर्म और पाप कहा गया है। सार्वभौम नियमों एवं मर्यादाओं का पालन सुनिश्चित करना ही राजधर्म है।
75 वर्षों से यह राजधर्म उपेक्षित, तिरस्कृत है। इसके कारण राज्य कर्ता प्रजा के मध्य स्पष्ट भेदभाव करते रहे हैं और उसके लिए काल्पनिक कहानियां फैलाई जाती रही हैं। जो मुख्यतः ईसाई मिशनरियों ने और उनकी प्रेरणा से कतिपय मुसलमान मौलवियों आदि ने रची फैलाई हैं। बाद में, कम्युनिस्टों ने उन गप्पों को पराकाष्ठा तक पहुँचा दिया और उसे ही हिन्दू समाज का सत्य बता दिया। जिनका हिन्दुओं के सत्य से कोई सम्बन्ध नहीं है।
अपने सच्चे इतिहास की स्मृति के लिए सत्यनिष्ठ इतिहास एवं धर्मनिष्ठ राज्यशासन पढ़ाने वाले उच्च विद्या केन्द्र अति आवश्यक हैं।
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धर्म ही भारत की विराट एकता का आधार और मर्म है: 2
-प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
सर्वप्रथम तो यह जानना चाहिए कि विश्व में वर्तमान में जितने भी समाज हैं, उनमें विराट एकता का सत्व, मर्म और आधार केवल हिन्दू समाज के पास शेष है। प्राचीन समाजों के पास भी यह सब था। परंतु शौर्य एवं सजगता में थोड़ी सी कमी से आततायियों ने उन्हें मार डाला, नष्ट कर दिया।
भारत में इसका सबसे बड़ा दृष्टांत है - पुर्तगाल द्वारा पोप के निर्देश पर ईसाइयत की सेवा के लिए 1539 ईस्वी में सोसाइटी आफ जीसस के संस्थापक तथा स्पेन के जेवियर में उत्पन्न जेसुइट पादरी फ्रांसिस्को को गोवा के लोगों को ईसाई बनाने के लिए भेजा जाना। पोप ने उससे गहरी मंत्रणा की और विदा किया। 13 महीने की समुद्री यात्रा कर 6 मार्च 1542 ईस्वी को वह गोवा पहुँचा, जिसे पुर्तगाली लोग भारत की राजधानी कहते-लिखते थे। जैसे अंग्रेज लोग 20वीं शताब्दी ईस्वी में दिल्ली को भारत की राजधानी कहते-लिखते थे। पुर्तगाल की जेलों से छोड़े गए खूंखार अपराधियों को ‘डिस्कवरर’ घोषित कर गोवा भेजा गया था ईसाइयत की सेवा के लिए। फ्रांसिस ने उन सबकी क्लासेस लीं और हिन्दुओं के भयंकर उत्पीड़न के लिए ‘रेलिजस’ आदेश दिये।
अनन्त प्रिआलकर ने ‘दि गोवा इनक्विजिशन’ के 2 भागों में विशेषतः पहले भाग के तीसरे अध्याय से आगे के सभी अध्यायों में ये विवरण दिए हैं। पुर्तगालियों ने 1812 ईस्वी में वे सारे रिकार्ड जला दिए जो गोवा में किए गए पापों, हत्याओं, उत्पीड़नों के विवरण थे। परंतु कुछ अन्य लोगों ने उसी समय रिकार्ड सुरक्षित कर लिए थे। जिनसे तत्कालीन प्रामाणिक विवरण मिलते हैं।
17वीं शताब्दी ईस्वी में पुर्तगालियों के कब्जे वाले गोवा में कुल हिन्दू जनसंख्या 2 लाख 50 हजार थी। जिनमें से केवल 20 हजार हिन्दू किसी प्रकार छिपकर बच सके। 2 लाख तीस हजार में से 1 लाख से अधिक मार डाले गए। शेष को डराकर, मारपीट कर ईसाई बना लिया गया। हिन्दू पूजा प्रतिबंधित कर दी। हिन्दू पुजारी का गोवा में प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया। जो पुजारी थे उन सबको मार डाला गया। गांव-गांव में एक-एक ईसाई मुखिया बना दिया, जिसे गांव के विषय में सब निर्णय लेने के अधिकार थे। हिन्दुओं को कोई अधिकार नहीं रहा।
अगर कोई स्त्री पादरियों के ललचाने पर या किसी भी भय अथवा प्रलोभन से ईसाई बन जाये तो उसे उसके पिता और पति की संपूर्ण सम्पत्ति पर अधिकार मिल जाता है, यह कानून लागू किया गया। यदि कोई अविवाहित कन्या ईसाई बन जाये तो वह पिता की सम्पत्ति की स्वामिनी हो जायेगी। इसे ही न्याय कहा गया।
हिन्दू शास्त्रांे - गीता, भागवत, रामायण, पुराण, वेद, उपनिषद आदि के पढ़ने को अपराध घोषित किया गया और कोई व्यक्ति शास्त्र पढ़ता पाया जाये तो उसे 100 कोड़ों की मार तथा अर्थदण्ड लगाया जाता था। संस्कृत और मराठी की सभी पुस्तकें जला दी गईं। पुस्तकालयों की पुस्तकों में आग लगा दी गई। इस सबकी खबर यूरोप में फैली तो ईसाइयत विरोधी प्रसिद्ध फ्रेंच दार्शनिक ‘वाल्तेयर’ (फ्रेंका मेरी आरो) ने इसकी घोर निंदा की तथा हिन्दू देवी-देवताओं को पादरियों द्वारा शैतान बताये जाने को अपराध कहा। परन्तु पादरियों पर इसका कोई असर न होना था, न हुआ। इस प्रकार राज्य-बल के कठोर क्रूर प्रयोग पूर्वक तथा राज्य के इन लक्ष्यांे के अनुरूप कानून बनाकर ही लोगों को हिन्दू से ईसाई योजनापूर्वक बनाया गया। इस पापकर्म को ही कानून का शासन कहा गया। यही कथित ‘रूल ऑफ लॉ’ की ईसाई-परम्परा इतिहास में रही है।
गोवा में 13वीं शती ईस्वी तक कदम्ब वंशी क्षत्रियों का राज्य था। बाद में, वहां विजयनगर साम्राज्य का शासन रहा, परंतु जब वास्कोडिगामा कालीकट (कोजिमेड) पहुँचा तो वहाँ बीजापुर के आदिल शाह का शासन था। डिगामा की जासूसी से खबरें पाकर पुर्तगाल के सैनिकों का एक बड़ा जत्था गोवा पहुँचा और विजयनगर साम्राज्य से संधि कर आदिलशाह को मार भगाया। फिर वह हिन्दू मुस्लिम राजाओं को लड़ाने के खेल में दक्ष हो गया। इसी बीच फ्रांसिस गोवा आया और हिन्दुओं को क्रूर बल प्रयोग एवं पापपूर्ण कानूनों के द्वारा ईसाई बनाने की पूरी रणनीति बनाकर म्यांमार एवं जापान में भी वही करने चला गया। उसके बाद अन्य अनेक मिशनरी गोवा भेजे गए जिन्होंने भीषण हत्याकांड किये और अत्याचार किए तथा बलपूर्वक लोगों को ईसाई बनाया। पादरियों ने पुर्तगाल में उदार हिन्दुओं को नपुंसक, कमजोर, अंधविश्वासी, लालची, टुकड़खोर प्रचारित किया और उन्हें ‘सभ्य’ बनाने के लिए ईसाई बनाना जरूरी बताया। हिन्दुओं को बाध्य किया कि वे ‘गॉड’ के इकलौते बेटे जीसस की सेवा के लिये समर्पित जीसस की दुलहिन रूपी ‘चर्च’ के लिए भवनों को बनाने तथा उसके सेवक सभ्य पादरियों को वेतन आदि के लिये आवश्यक धन दें। उनसे इसके लिये विशेष टैक्स लिया गया।
तथाकथित न्याय समिति बनाकर हिंदुओं को पकड़ पकड़कर लाया जाता। वे यदि ईसाइयत अपनाना स्वीकार नहीं करें तो उन्हें अन्यायी, दुष्ट घोषित कर हाथ काटना, पैर काटना, कोड़ो से पीटना और फांसी देना-ये .दंड दिए जाते और इसे न्याय कहा जाता। अगर कोई भी व्यक्ति मर जाता तो उसके सब बच्चे चर्च भेजने होते थे क्योंकि चर्च का दयालु पादरी (यानी नरपिशाच) ही अब उनका ‘फादर’ है।
इस भयंकर संहार एवं जातिनाश के पैशाचिक कर्म से गोवा हिन्दुओं की किसी शांतिप्रियता, अन्याय के प्रति धैर्य, मौन कष्ट सहन आदि कथित गांधीवादी नीतियों से नहीं बचा है। ना ही हिन्दुओं का विशेष गुण बताये जाने वाली परन्तु वस्तुतः झूठी और परिकल्पित ‘स्पिरिचुअलिटी’ से बचा है। अपितु वह वीरता और शौर्य से ही बचा है।
मराठों ने गोवा का एक अंश पुर्तगालियों से युद्ध में छीन लिया। वहीं हिन्दू धर्म एवं संस्कृति बच सकी। पुर्तगालियों ने शुरू में स्वयं छत्रपति शिवाजी के साथ छल-कपट किया और उन्हें बार-बार झांसा देने की कोशिश की। परंतु छत्रपति शिवाजी महाराज ने शीघ्र ही उनकी सच्चाई जान ली और पिटाई शुरू कर दी। तब पुर्तगाली लोग उस क्षेत्र में बसे मुस्लिम जागीरदारों से दोस्ती बढ़ाकर अपनी शक्ति बढ़ाने लगे। आदिलशाही के संरक्षण में पल रहे मुस्लिम जागीरदारों ने अपनी महत्वाकांक्षा के चलते उनका साथ दिया। यद्यपि पुर्तगाली ईसाई घोषित रूप से इस्लाम विरोधी थे और इस्लाम को नष्ट कर डालने को अपना पवित्र कर्तव्य बताते थे। पर हिन्दू-द्वेष से उन्मत्त मुसलमान उनके झांसे में आ गए।
शिवाजी के बाद भी मराठों ने उस क्षेत्र पर अपना नियंत्रण रखा। अगर वीर मराठों ने गोवा का एक अंश छीना नहीं होता और आततायी पादरियों का वध नहीं किया होता तो गोवा आज भी भारत के बाहर एक सम्प्रभुता सम्पन्न पुर्तगाली नेशन स्टेट होता।
इस प्रकार वीरता से और दुष्टों के वध से ही संस्कृति और समाज बचे हैं। हिन्दू समाज आज भी फल-फूल रहा है तो केवल शौर्य और वीरता के कारण। मैक्सिको की मय सभ्यता और पेरू की इन्का सभ्यता तथा अफ्रीका की अनेक सभ्यतायें हमारे ही जैसी थीं। उदार, उदात्त एवं श्रेष्ठ। यूरोपीय ईसाइयों ने इन्का और मय सभ्यता तथा अनेक अफ्रीकी सभ्यताओं को नष्ट कर डाला और उन्मत्त मुस्लिम समूहों ने अफ्रीका की अन्य सभ्यताओं को नष्ट कर डाला। दोनों ने ही हत्या, डकैती, छिनैती और नृशंसता के बल पर ही यह काम किया। आज वे सभ्यतायें केवल नामशेष हैं।
इसलिये जो भी व्यक्ति या समूह भारत में वीरता की प्रतिष्ठा और गौरव पर बल न दें तथा आततायियों के वध एवं निर्मूलन को हिन्दू शासकों का कर्तव्य नहीं बताएं, वे सभी व्यक्ति एवं समूह हिन्दू कुलों में उत्पन्न होने पर भी निश्चित रूप से हिन्दू द्रोही हैं और पापिष्ठ समूहों के एजेंट हैं। इस दलाली को सद्गुण विकृति या अतिशय उदारता आदि कहना गलत है। यह स्पष्ट रूप से धर्मद्रोह है तथा विधर्मियांे और राक्षसों की सेवा एवं दलाली है तथा दंडनीय पाप है। इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। उदारता आदि बिल्कुल नहीं।
हिंदुओं ने इतने अत्याचार झेले हैं और उन अत्याचारों की कथा हिन्दू जनमन में इतनी व्यापक है कि किसी भी हिन्दू को मूर्खतापूर्ण उदारता सूझ ही नहीं सकती। जिसे सूझे, वह हिन्दू नहीं रह गया है। वह हिन्दुओं के शत्रुओं का दलाल बन चुका है। यह सुनिश्चित है एवं स्पष्ट है।
वस्तुतः हिन्दू समाज की एकता के लिये वैश्विक एवं राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर बोध एवं सजगता आवश्यक है। एक तो वैश्विक परिवेश की वर्तमान स्थिति को जानना चाहिये। यद्यपि भारत के सभी मुसलमान मूलतः भारत के निवासी हिन्दू पूर्वजों की ही संततियां हैं, तथापि वे भारत के भीतर से उभरे किसी भी विचार या आस्था या महापुरूष के प्रभाव से मुसलमान नहीं बने हैं। वे अरब से उभरे और तुर्की के जरिये पारसीक क्षेत्र में फैलने वाले मजहब के असर से लालच, डर और निर्बाध या अनुचित कामाचार को वैधता मिलने के आकर्षण से मुसलमान बने, यह ऐतिहासिक तथ्य है। इसी प्रकार भारत के ईसाई भी मुख्यतः हिन्दू पूर्वजों की ही संतान हैं। परन्तु वे भी अंग्रेजों तथा अन्य यूरोपीय ईसाइयों के छल-बल पूर्वक भारत में फैलने के बाद ही भय और प्रलोभन तथा छल कपट की चपेट में आकर ईसाई बन जाने वाले हिन्दुओं की ही संततियां हैं। इस प्रकार पाप एवं अधर्म के प्रति आकर्षण या विवशता से ही हिन्दू पूर्वजों की संततियां मुसलमान या ईसाई बनी हैं। अतः धर्मनिष्ठ हिन्दू और धर्मच्युत एवं अधर्मरत हिन्दू - ये 2 अलग-अलग श्रेणियां हैं, जिनके गुणधर्म अलग-अलग हैं।
वैश्विक परिवेश को जाने बिना हिन्दुओं का इस तरह बड़ी संख्या में मुसलमान अथवा ईसाई बन जाना किसी हिन्दू को समझ में नहीं आएगा। क्योंकि रिलीजन और मजहब के नाम से प्रचारित इन पंथों के अनुयायी भारत में सामान्य मानवधर्म का भी पालन नहीं करते जबकि मनु आदि ऋषियों ने समस्त मानवांे के लिये मानवधर्म अनिवार्य बताया है। अतः सनातन धर्म या बौद्ध अथवा जैन मत के किसी भी अनुयायी को इस्लाम और ईसाइयत के नाम पर की जाने वाली दावेदारियां विचित्र ही लगेंगी। कोई व्यक्ति या समूह या शासक अचानक यह कहने लगे कि हमको गॉड या अल्लाह ने तुम सब पर शासन के लिये भेजा है और तुम्हारा देश, क्षेत्र तथा तुम्हारी समस्त सम्पत्ति एवं संसाधन इसलिये हमारे हो गये क्योंकि हम गॉड या अल्लाह की किसी विचित्र सी या अतिविशिष्ट अवधारणा पर आस्था व्यक्त करते हैं और वस्तुतः उन आस्थाओं के स्रोत कुरान एवं बाईबिल पर भी अमल नहीं करते, उन अपने ही द्वारा पवित्र कहे जा रहे ग्रंथों से भी केवल वे अंश अपनाते हैं जो उन्हें ऐसी मनमानी दावेदारियां और अत्याचार करने के पक्ष में उद्धृत करने योग्य लगें। परन्तु उन ग्रंथांे में भी वर्णित अनिवार्य कर्तव्यों का पालन बिल्कुल नहीं करते दिखें, तो यह किसी भी हिन्दू को (जिनमें सिख, बौद्ध, जैन सभी शामिल हैं तथा विगत 100 वर्षों में यूरोप में उभरा मानवतावाद भी शामिल है) यह नितांत विचित्र, पापपूर्ण, दंडनीय प्रलाप ही लगेगा।
अतः भारत की वर्तमान महत्वपूर्ण राजनैतिक घटनाओं को जानने के लिये अंतर्राष्ट्रीय परिवेश का ज्ञान भी आवश्यक है और उसकी व्यापक चर्चा भी आवश्यक है। अन्यथा सारी चर्चायें अबूझ ही रहेंगी। इसके लिये यह भी आवश्यक है कि दो-दो महायुद्धों में संयोगवश मिली सफलता के बाद (जिस सफलता में वस्तुतः भारतीय सेनाओं का निर्णायक योगदान है परन्तु उस योगदान का तथ्यात्मक उल्लेख कर अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर आवश्यक दावेदारियां करने वाला कोई नेतृत्व न उभरे, यह विजेताओं ने सुनिश्चित किया) जो भी अंतर्राष्ट्रीय संस्थायें और मंच बने तथा उनके जो भी नियम बने हैं और प्रतिमान बने हैं, वे सब युद्ध के लक्ष्यों को शांतिपूर्वक प्राप्त करने के लिये ही बने हैं। अतः उन संस्थाओं का भारी दबाव विश्व के सभी राष्ट्रराज्यों पर है, जिनमें भारत भी शामिल है। यह जानकारी होने पर ही यह स्पष्ट समझ में आ जायेगा कि भीषण अत्याचार करने वालों की धारा की प्रशंसा करना स्वयं माननीय श्री नरेन्द्र मोदी की भी विवशता क्यों है?
इसी प्रकार अनेक समूह जो इन दिनांे मोदी जी के विरोध में किसी भी सीमा तक जा रहे हैं, उनका भी रहस्य अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों को जानने पर ही प्रकट होगा। क्योंकि वे स्पष्ट एजेंडे पर काम कर रहे हैं।
दूसरी ओर हिन्दू समाज की विराट एकता के सनातन आधारों का भी ज्ञान आवश्यक है। जिनके कारण 100 करोड़ हिन्दू आत्मगौरव के साथ एक ही राष्ट्र राज्य में शांतिपूर्वक रह रहे हैं। उस संदर्भ में इस्लाम, ईसाइयत और कम्युनिज्म की राजनीति के आधारों को भी जानना आवश्यक है।
इस्लाम वस्तुतः अरब के बद्दू लोगों के लिये प्रवर्तित हुआ था। परंतु उसमें अन्यों पर अत्याचार के कतिपय प्रावधान लोगों को लुभावने लगे और तुर्कों एवं पारसीकों के कतिपय समूहों ने इस्लाम के नाम पर बस उन प्रावधानों को अपना लिया तथा उसमें अपनी परंपरागत संस्कृति के अनेक तत्व मिला दिये। इस प्रकार दूसरों की सम्पत्ति, संसाधन तथा राज्य और क्षेत्र छीनने की एक आड़ मजहब को बना लिया गया। इसी प्रकार ईसाइयत के नाम पर भी ऐसी ही दावेदारियां प्रस्तुत की र्गइं। परन्तु इसमें एक विशेष बात यह है कि यूरोप के संसार की सभ्यताओं के संपर्क में आने के बाद, विशेषकर भारत की अति उन्नत सभ्यता के संपर्क में आने पर यूरोप में एक प्रबुद्ध मानस का विकास हुआ और वाल्तेयर, रूसो आदि से लेकर बर्टेªंड रसेल तक प्रबुद्ध मनीषियों की पूरी श्रृखंला ने ईसाइयत का विरोध किया और आज प्रबुद्ध यूरोप ईसाई नहीं रह गया है। यद्यपि वह चर्च की जकड़न को केवल शिथिल कर सका है, समाप्त नहीं।
मध्य युगीन ईसाइयत के एक परिशिष्ट के रूप में, उसके द्वारा किये गये अत्याचारों का विरोध करते हुये परन्तु विश्व में अपने मतवाद की दावेदारियां प्रस्तुत करने के मामले में उसकी नकल करते हुये मार्क्स ने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की अवधारणा प्रस्तुत की। जिसका केवल नाममात्र का सहारा लेकर लेनिन और स्तालिन जैसे दुष्टों ने सोवियत संघ में कम्युनिस्ट शासन स्थापित किया और फिर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को भी द्वितीय महायुद्ध के बाद बहुत बड़े हिस्से पर कब्जा कराया तथा भारत में अपने शिष्य श्री जवाहरलाल नेहरू से चीन को तिब्बत दिलवाया और भारत का एक बड़ा महत्वपूर्ण हिस्सा (सिक्यांग) भी चीन को सौंपने के लिये निर्देशित किया। इसमें इंग्लैंड की पूर्ण सहमति थी क्योंकि जापान की शक्ति से घबराकर उसे रोकने के लिये ही इंग्लैंड, फ्रांस और अमेरिका ने अपने अभिन्न सहयोगी रहे च्यांग काई शैक और ईसाई चीनी सन यात सेन की पार्टी को धोखा देकर, वचन भंग कर, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को अचानक मदद दी थी और उसे बड़े इलाके पर कब्जा करने दिया था। क्यों कि तृतीय कम्युनिस्ट इंटरनेशनल में यह निर्णय लिया गया था कि केवल सोवियत संघ को सैनिक दृष्टि से सशक्त रहना है, शेष इलाके सैनिक दृष्टि से कमजोर रहें और सोवियत संघ पर निर्भर रहेें। इसलिए भारत को कमजोर करने के मुद्दे पर इंग्लैंड, फ्रांस और सोवियत संध एकमत थे।
वस्तुतः प्रथम एवं द्वितीय महायुद्ध में भारतीय सैनिकों की अद्वितीय वीरता देखकर भारत की शक्ति का अनुमान हो जाने के बाद इंग्लैंड ने भारत राष्ट्र के भीतर शत्रु राज्य (एनिमी स्टेट) खड़े करने का निर्णय लिया और भारत को कमजोर बनाये रखने के लिये ही नकली शांतिवादियों को सत्ता का हस्तांतरण किया गया। सत्ता हस्तांतरण की एक शर्त यह भी थी कि इंग्लैंड के अत्याचारों को अधिक नहीं पढ़ाया जाये तथा इंग्लैंड और भारत की साझा संस्कृति विकसित करने के लिये साझा इतिहास पढ़ाया जाये। नेहरू और उनके वंशजों ने यह काम भली-भांति किया। अंतिम चरण में यह काम इतनी ढिठाई और निर्लज्जता से किया जाने लगा कि हिन्दू मानस ने कांग्रेस शासन को उखाड़ फेकना आवश्यक माना। परंतु बाहरी शक्तियों के राजनैतिक एजेंट अनेक रूपों में पूरी शक्ति से सक्रिय हैं।
अतः भारत का राष्ट्र राज्य के रूप में सुदृढ़ रहना आवश्यक है। इसके लिये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और श्री नरेन्द्र मोदी दोनों का नेतृत्व आवश्यक है। सभी प्रकार से उनका शासन सुनिश्चित किया जाना राष्ट्र के हित में है।
परंतु 75 वर्षों से विशेषकर मानविकी विद्याओं के क्षेत्र में शासन के नियंत्रण और संरक्षण में जो कुशिक्षा योजनापूर्वक फैलाई है, उसका प्रभाव संघ और भाजपा के मन और बुद्धि पर भी पड़ा है। इसके कारण वे राष्ट्रराज्य को ही राष्ट्र मान बैठे हैं, यद्यपि ऐसा कहते कभी नहीं हैं। इतना संस्कार अभी शेष है। यह संस्कार ही मूल पूंजी है। इसके आधार पर भारत के सनातन सत्य को पुनः प्रतिष्ठित करना संभव है। क्योंकि उसके बिना राष्ट्र का एक रहे आना संभव नहीं होगा।
वस्तुतः लोगों का मन औपचारिक और अनौपचारिक शिक्षा से ही बनता है। हिन्दुओं के लिये सुलभ औपचारिक शिक्षा से हिन्दू धर्म और इतिहास पूरी तरह बाहर कर दिये गये हैं। ईसाइयों तथा अलगाववादी मुसलमानों और भारतद्वेषी कम्युनिस्टों के द्वारा गढ़ी गई गप्पों को ही इतिहास कहकर चार-चार पीढ़ियों से जबरन पढ़ाया जाता रहा है। इसके कारण नवशिक्षित हिन्दू पूरी तरह राष्ट्र-राज्यवादी बन गये हैं। हिन्दू परंपरा के अन्य तत्वों की विस्मृति हो गई है। यह विस्मृति बिखराव का कारण बनेगी।
अतः एक ओर तो राष्ट्रराज्य को सुदृढ़ रखने के लिये प्रत्येक धर्मनिष्ठ, सदाचारी व्यक्ति को सजग रहना है परंतु दूसरी ओर अपनी आधारभूत ज्ञान परंपरा और व्यवहार परंपरा को भी पुनः प्रतिष्ठित करना होगा। अन्यथा एकता भंगुर ही सिद्ध होगी। इस विषय पर निम्नांकित महत्वपूर्ण तथ्यों को स्मरण रखना आवश्यक है:-
1 भारत रूस को छोड़कर शेष संपूर्ण यूरोप के बराबर है।
2 इसलिये यूरोपीय राष्ट्र-राज्य की संरचना का अनुसरण भारत को एक नहीं रख सकता है। अपितु अनेक राष्ट्र-राज्यों के उभार का कारण बनेगा।
3 यूरोप के प्रत्येक राष्ट्र-राज्य के मूल में एक ही बड़े नृवंश की एकता तथा आस्थागत एकता है। उदाहरण के लिये इंग्लैंड मुख्यतः एंग्लो-सेक्सन नृवंश तथा प्रोटेस्टेंट ख्रीस्त आस्था से एकीकृत है। वहां का सम्राट या साम्राज्ञी इसी आस्था के विशेष एवं प्रधान सरंक्षक हैं तथा शिक्षा, न्याय एवं विविध प्रथाओं का आधार भी यही है। उन सभी को इसी कारण वैधता एवं विधिक महत्व प्राप्त है। ऐसे ही फ्रांस में फ्रेंक नृवंश तथा ख्रीस्त आस्था ही एकता का आधार है। जर्मनी में हूण नृवंश और जर्मन भाषा तथा कैथोलिक ख्रीस्त पंथ ही राष्ट्रीय एकता का आधार है। ये सभी राष्ट्र-राज्य केवल 150 वर्ष पुराने ही हैं। उसके पहले ये अनेक राज्यों में विभक्त क्षेत्र थे।
4 ऐसी स्थिति में भारत में किसी एक आस्था के आधार पर इतने विशाल क्षेत्र में एकता की आशा ही काल्पनिक है। जवाहरलाल नेहरू ने भौतिकतावादी आस्था को इसका राष्ट्रीय आधार बनाने का नियोजित प्रयास किया। इसमें सर्वाधिक अवरोध मुसलमानों और ईसाइयों की ओर से आया तो कांग्रेस ने धीरे-धीरे उन्हें संविधान की गलत व्याख्या करते हुये अल्पसंख्यक नामक एक अपरिभाषित श्रेणी उनके लिये रच दी, जैसा विश्व में कहीं भी करोड़ों की जनसंख्या वाले समूहों के लिये नहीं है। इस आड़ में उसने इस्लाम और ईसाइयत की आस्था को विशेष संरक्षण दिया और हिन्दू धर्म को पूरी तरह राज्य द्वारा उपेक्षित कर दिया। बाद में उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाकर धर्मनिरपेक्षता को राज्य का आदर्श ही बता दिया। परंतु उसकी परिभाषा आज तक नहीं की। स्पष्ट रूप से यह आस्था राष्ट्र को एक रखने में असमर्थ है।
5 भाजपा बौद्धिक रूप से हिन्दू मध्यवर्ग की राजनैतिक संस्था है जो बौद्धिक तेजस्विता को अपने लिये असुरक्षा का कारण समझती है।
6 हिन्दू समाज की एकता का आधार यह सनातन सत्य रहा है कि प्रत्येक मनुष्य के लिये मानवधर्म का पालन आवश्यक है और मानव धर्म सार्वभौम दैवी नियम है जो कि सत्य, संयम, अस्तेय, इंद्रियनिग्रह, धृति, आंतरिक और बाहरी पवित्रता, बुद्धि की निरंतर सजगता और साधना तथा शांतचित्त से विचार कर व्यवहार करना आदि दस लक्षणों के रूप में शास्त्रों द्वारा व्याख्यायित हैं। इसके साथ ही, प्रत्येक मानव समुदाय को अपने कुल समूह, अपने क्षेत्र और अपने व्यवसाय में चली आ रही उन परंपराओं का पालन करना है, जो मानव धर्म के अनुकूल है। राज्य का कार्य केवल यह देखना है कि कोई भी मानव समुदाय मानव धर्म का उल्लंघन नहीं करे और अपनी-अपनी परंपराओं का पालन करते हुये धर्मपरंपरा को सुदृढ़ रखे।
7 भारतीय राजशास्त्र परंपरा में लोकव्यवहार के नियम विस्तार से बनाना राज्य का कभी भी काम नहीं रहा है। ऐसा करने वाले राज्य को राक्षसी एवं अधर्ममय कहा गया है।
8 ईसाई मिशनरियों ने और कम्युनिस्टों ने हिन्दू समाज और हिन्दू धर्म को नष्ट करने के सुनिश्चित प्रयोजन से हिन्दू इतिहास के नाम पर गप्पें और झूठ गढे़ हैं तथा हिन्दू धर्म को लांछित करने के लिये नित्य नये शिगूफे छोड़ते रहते हैं। इसका एक प्रयोजन स्वयं अपनी पैशाचिकता, नीचता और अपनी पोलों को छिपाना भी है। क्योंकि ईसाइयत और कम्युनिज्म - दोनों का इतिहास कलंक से भरा हुआ, अमानवीय और रक्तरंजित है। परंतु नवशिक्षित हिन्दू इनकी चपेट में है। इनमें से जिनमें हिन्दू संस्कार हैं, वे उन प्रचारों की काट में समय नष्ट करने को कोई सार्थक काम मानते हैं परंतु हिन्दू पक्ष का और हिन्दू सत्य का ज्ञान प्राप्त करने और उसकी ही चर्चा करने में कोई समय नहीं लगाते। उसका महत्व भी नहीं समझते। इस प्रकार वातावरण में यानी राष्ट्रीय चिदाकाश में केवल मुस्लिम, ईसाई और कम्युनिस्ट प्रचार छाया रहता है। हिन्दुओं के सत्य का सूर्य उनसे ढँका रहता है।
9 राष्ट्र-राज्य की वर्तमान संरचना को कांग्रेसी सोशलिस्ट निरंतरता में बनाये रखने के परिणामस्वरूप सत्ता में आने वाली पार्टियां राष्ट्रीय संसाधनों का हस्तांतरण स्वपक्ष में करती रहती हैं।
10 सोवियत मॉडल का अनुसरण करते हुये भारत में दार्शनिक अनुसंधान परिषद, इतिहास अनुसंधान परिषद, सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद और साहित्य परिषद जैसी संस्थाओं में मुख्यतः शासकीय गुट के लोगों को रखने का एक कौशल विकसित किया गया है जो एक परोक्ष प्रक्रिया से चलता है। इस कारण समाज में विद्वान या इतिहासकार या दार्शनिक के रूप में प्रतिष्ठा पाने के लिये इन परिषदों की मुहर आवश्यक है। इस तरह विद्या और कला तथा दर्शन और इतिहास के क्षेत्र में भी शासन का नियंत्रण है, समाज का नहीं। इस कारण इन पदों पर जाने के लिये शासकों की अनुकूलता का अधिक महत्व है, योग्यता का उस तुलना में बहुत कम महत्व है। इनसे बाहर योग्यता की कोई और कसौटी मान्य नहीं रह गई है। इस तरह ज्ञान, विद्या, कला और शिल्प में भारतीय शास्त्रों के प्रतिमानों और निकषों का कोई भी संदर्भ मान्य नहीं रह गया है।
11 इसका परिणाम एक बौद्धिक अराजकता के रूप में सामने है। ज्ञान की परंपराओं की कोई स्वतंत्र प्रतिष्ठा विधिक स्तर पर नहीं है। शासन ही ज्ञान के विषय में भी निर्णायक बना हुआ है।
इन स्थितियों के कारण सदा ही राष्ट्र की कुछ प्रतिभाओं को भले कार्य के अवसर सुलभ हों परंतु शेष के जीवन में केवल बाधायें और अवरोध ही रहते हैं। इसके कारण विक्षोभ और विद्रोह स्वाभाविक है जो राष्ट्रीय एकता के नारे की आड़ में राष्ट्र को कमजोर करने वाली विविध गतिविधियों के रूप में व्यक्त होता है तथा असंतुष्ट समूह उन गतिविधियों से जुड़ते रहते हैं। ज्ञान और परंपरा तथा न्याय की अवधारणा पर राज्यकर्ताओं का एकाधिकार राष्ट्र की एकता के लिये एक गहरी समस्या बनने वाला है।
इसलिए राज्य की भारतीय रचना आवश्यक है। भारतीय धर्मशास्त्रों एवं राजशास्त्रों के ज्ञान द्वारा ही इसकी प्रेरणा जगेगी। अन्यथा यूरोईसाई राष्ट्र-राज्य की अनुकृति को ही भारतीय राज्य मानते रहने पर विक्षोभ, विद्रोह एवं संकट- नित नए रूपों में उभरेंगे। क्योंकि यूरोपीय राष्ट्र-राज्य की रचना इतने विशाल आकार के प्रबंधन में सक्षम नही है। सोवियत संघ इसीलिए बिखर गया। संयुक्त राज्य अमेरिका का अनुसरण एक सीमा तक उपादेय है पर वह भारतीय संविधान में प्रारंभ से किया नहीं गया है। अब उसकी नकल से क्षेत्रवाद और प्रांतवाद की नई समस्याएं उठ खड़ी हांेगी। 1947 में राष्ट्रीय एकता की भावना बहुत गहरी थी। तब प्रांतों की स्वायत्तता की सार्थक भूमिका संभव थी। चार पीढ़ियों को कुशिक्षा द्वारा संकीर्ण बुद्धि बना देने के बाद अब उसका अनुसरण प्रांतवाद एवं अलगाववाद को जन्म देगा।
इसलिए अब हिन्दू धर्मशास्त्रों से प्रेरणा लेकर विविध समुदायों को, व्यापक सार्वभौम धर्म (कॉस्मिक लॉ एंड कॉस्मिक आर्डर) के अनुशासन में अपनी-अपनी परम्पराओं के पालन की शक्ति तथा स्वाधीनता देनी होगी और राज्य का यानी विधायिका एवं विधिपालिका (ज्यूडिशियरी जिसे गलत अनुवाद में न्यायपालिका कह दिया जाता है) का कार्य उन परम्पराओं का पालन सुनिश्चित करना ही रह जाएगा।
समाज को रूपांतरित करना, बदलना राज्य का कार्य नहीं है। वह तो समाज के शत्रुओं का कार्य होता है। ईसाई मिशनरियों ने एवं मौलवियों ने हिन्दू समाज को रूपांतरित करना राज्य का लक्ष्य निश्चित किया था। भारतीय राजशास्त्रों के अनुसार वर्णाश्रम धर्म प्रतिपालन ही राजधर्म है। जिसका अर्थ है - सनातन धर्म रूपी सार्वभौम नियमों - सत्य, अहिंसा, संयम, मर्यादित भोग एवं अस्तेय आदि के अनुगमन में विविध क्षेत्रों की अपनी परम्पराओं को मान्यता देना और उनके प्रकाश में ही न्याय करना। अभी 75 वर्षों से भारतीय राज्यकर्ताओं ने मुसलमानों और ईसाइयों की परम्पराओं को विधिक मान्यता दे रखी है जबकि हिन्दू परम्परा को दबाना, कुचलना, उनकी निंदा करना और हिन्दू समाज को रूपांतरित करना - भारत के राज्य का लक्ष्य मान लिया गया है। यह स्थिति विश्व में अपवाद है। यह राष्ट्र की वास्तविक एकता में बहुत बड़ी बाधा है। शासन को शासन करना चाहिए, रूपांतरण नहीं। वह भी केवल हिन्दू समाज का रूपांतरण करना और मुस्लिम तथा ईसाई परम्परा की रक्षा करना राजनैतिक भेदभाव है।
भारत के राज्य को हिन्दू समाज के साथ, उसकी महान परम्परा एवं समाज व्यवस्था के साथ भेदभाव नहीं करना चाहिए। अब यह भेदभाव समाप्त होना चाहिए। हिन्दू धर्मशास्त्रों, राजशास्त्रों (महाभारत, विशेषतः राजधर्मानुशासन पर्व, अर्थशास्त्र, शुक्रनीति आदि) एवं दर्शन की उच्चतम शिक्षा हिन्दुओं को शासकीय कोष से संचालित एवं पोषित शिक्षा केन्द्रों में भी सुलभ हो, यह प्रबंध करना चाहिए। तभी आत्मगौरव सम्पन्न नई पीढ़ी उभरेगी और अपने योगदान से भारत को पुनः प्राचीन समृद्धि की परम्परा में समृद्ध करेगी।
-प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

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