Friday, 11 May 2018

स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी के १० मई २०१८ के दिव्य सत्संग से संकलित .....

स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी के १० मई २०१८ के दिव्य सत्संग से संकलित .....
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इच्छाएँ ही बन्धन हैं और उनका अभाव ही मोक्ष| तत्त्वज्ञानी केवल अपने स्वरूप में स्थित रहता है| अन्तःकरण का इच्छा रहित हो जाना शान्ति प्रदान करता है| मनुष्य के अन्तःकरण में जितनी इच्छाएँ उत्पन्न होती हैं, उतने ही उसके दुःख बढ़ जाते हैं| विवेक विचार से जैसे-जैसे इच्छाएँ शान्त हो जाती है, वैसे-वैसे दुःख की मात्रा कम होती जाती है तथा शान्ति की अनुभूति बढ़ने लगती है| यदि एक ही साथ सम्पूर्ण इच्छाओं का त्याग न किया जा सके तो धीरे-धीरे, थोड़ा-थोड़ा करके ही उसका त्याग करते रहना चाहिए| जो पुरुष अपनी इच्छाओं को क्षीण करने का प्रयास नहीं करता है, वह अपने आप को दिन पर दिन दुःख के गड्ढ़े में फेंक रहा है| तत्त्वज्ञानी की इच्छा ब्रह्म स्वरूप ही होती है| ब्रह्म के अतिरिक्त यहाँ कोई दूसरी वस्तु विद्यमान हो तो उसे प्राप्त करने की चेष्टा की जाए|
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यह संसार जीवात्मा को बन्धन में डालने वाला है, इसलिए इन सांसारिक इच्छाओं को योग के अभ्यास द्वारा भस्म कर देना चाहिए| इन सांसारिक इच्छाओं के भस्म होते ही धीरे-धीरे तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होने लगती है| जब तत्त्वज्ञान का उदय होने लगता है तब इच्छाएँ समाप्त होने लगती है तथा द्वैत की शान्ति व वासना का विनाश होने लगता है| सम्पूर्ण दृश्य पदार्थों से वैराग्य हो जाने के कारण उस अभ्यासी की अविद्या भी शान्त हो जाती है, तब मोक्ष का उदय होता है| मोक्ष के उदय होने पर वैराग्य और अनुराग दोनों नष्ट हो जाते हैं|
तत्त्वज्ञानी की इच्छा और अनिच्छा दोनों ही ब्रह्मस्वरूप हो जाती है, जैसे प्रकाश और अन्धकार दोनों एक साथ नहीं रह सकते हैं| इच्छाओं के अत्यन्त क्षीण हो जाने पर आत्मानन्द का अनुभव होने लगता है|
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अद्वैत की भावना से इस जगत् का स्वरूप नष्ट हो जाता है| विशुद्ध आत्मा में द्वैत नहीं रहता है| जो वस्तु अपने संकल्प से बनाई गई है वह वस्तु संकल्प के अभाव में नष्ट हो जाती है| जीवात्मा को जो दुःख प्राप्त हुआ है, उसका कारण स्वयं का संकल्प ही है| जब समाधि के अभ्यास द्वारा उसमें संकल्प का अभाव होने लगता है, तब उसका सांसारिक दुःख भी कम होने लगता है| जितना दुःख कम होगा उतनी ही ज्यादा सुख की प्राप्ति होगी| मनुष्य मोह और तृष्णा के कारण सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति हेतु संकल्प करता रहता है, इसलिए मोह और तृष्णा रूपी संकल्प को निरूद्ध कर देना चाहिए| जीवात्मा अज्ञान के कारण ही अपने संकल्पों के द्वारा सांसारिक बन्धन में फँस गया है, वास्तव में वह ब्रह्म से अभिन्न है| अभ्यास के द्वारा परमात्म-स्वरूप की अनुभूति करके संसार रूपी बन्धन से सदैव के लिए मुक्त हो जाता है|
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जब चित्त से वृत्ति स्पन्दित होकर प्रकट होती है, तब संसार का स्वरूप धारण कर लेती है| अपने निजस्वरूप में स्थित होने के लिए चित्त का विनाश करना आवश्य है| चित्त के विनाश के लिए दो प्रकार का उपाय है| इनमें से एक उपाय है ....अभ्यास के द्वारा प्राणों का स्पन्दन रोक दिया जाए तो चित्त का विनाश हो जाएगा| प्राण के स्पन्दन से चित्त का स्पन्दन होता है| चित्त के स्पन्दन से ही सांसारिक पदार्थों की अनुभूतियाँ होती हैं, अर्थात् चित्त का स्पंदन प्राण के स्पन्दन के अधीन है| अभ्यास के द्वारा प्राण का स्पन्दन रोक दिया जाए तो चित्त पर स्थित वृत्तियाँ {मन} अवश्य निरूद्ध हो जाएँगी| मन अथवा संकल्प के अभाव में संसार की अनुभूति नहीं होगी, फिर यह संसार नष्ट हुए के समान हो जाएगा|
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प्राणायाम के अभ्यास से प्राण वायु निरूद्ध होने लगती है| किसी योग्य अनुभवी पुरुष के मार्गदर्शन में ही प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए| प्राणों का स्पंदन समाधि द्वारा रुक जाता है| जब साधक का ब्रह्मरन्ध्र खुल जाता है, तब प्राण और मन दोनों एक साथ ब्रह्मरन्ध्र के अन्दर चले जाते हैं| उस समय निर्विकल्प समाधि लगती है और प्राणों का स्पन्दन रुक जाता है| संकल्प विकल्प रहित होने पर कोई नाम रूप नहीं रहता है| अत्यन्त सूक्ष्म चिन्मय आकाश स्वरूप ब्रह्म का ध्यान करने पर सारे विषय विलीन हो जाते हैं, तब प्राणवायु का स्पन्दन निरूद्ध होने लगता है|
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नारायण ! इस जगत् का निर्माण प्राण तत्त्व से हुआ है| प्राण तत्त्व से बना हुआ जगत् आकाश तत्त्व में अधिष्ठित है| प्रलय के अन्त में यह जगत् आकाश तत्त्व में विलीन हो जाता है| प्राण तत्त्व आकाश तत्त्व को अधिष्ठित कर जगत् की रचना करता है| आकाश सर्वव्यापक अभिव्यञ्जिका शक्ति है| जगत् में जो गुरुत्व शक्ति, आकर्षण शक्ति, संकल्प शक्ति, नाड़ी प्रवाह आदि जितनी भी शक्तियाँ हैं, वे सब की सब प्राण नामक शक्ति की भिन्न - भिन्न अभिव्यञ्जिका शक्तियाँ हैं| प्राण, विश्व की मानसिक और शारीरिक तथा सभी प्रकार की शक्तियों की समष्टि है| प्राण ही प्रत्येक जीव की जीवन शक्ति है तथा वह विचारों के प्रवाह में, नाड़ियों के प्रवाह में, श्वाँस के आवागमन में, शारीरिक क्रिया के रूप में व्यक्त हो रहा है| जो मनुष्य सारे दुःख से छुटकारा प्राप्त करना चाहते हैं तथा आनन्द की अनुभूति करना चाहते हैं, उन्हें प्राणों को अपने अधीन करना होगा| प्राणों को अपने अधीन करने से चित्त के आवरण व मल नष्ट हो जाएँगे| चित्त के निर्मल होने पर अलौकिक ज्ञान की प्राप्ति होती है तथा सारे दुःखों से निवृत्ति मिल जाती है|
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ॐ नमो नारायण ! स्वामी जी को साष्टांग दण्डवत् प्रणाम ! ॐ ॐ ॐ !!