Sunday, 12 January 2025

अंतिम बात :---

आध्यात्म और प्रभु-प्रेम पर लिखते लिखते अनेक वर्ष हो गए हैं, अब अंतिम बात कहना चाहता हूँ। इसके बाद जो भी लिखूंगा वह पुरानी बातों की पुनरावृति ही होगी,उसमें कोई नयापन नहीं होगा।

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अंतिम बात यह है कि जब तक पूर्ण सत्यनिष्ठा से हमारा समर्पण पूर्ण नहीं होता, तब तक हमें भगवत्-प्राप्ति किसी भी परिस्थिति में नहीं हो सकती। हमें तब तक न तो किसी का आशीर्वाद, न किसी की मेहरवानी, न कोई पूजा-पाठ या जप-तप -- भगवान की प्राप्ति करा सकता है, जब तक पूर्ण सत्य-निष्ठा से हम पूरी तरह से भगवान के प्रति समर्पित नहीं होते।
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श्रीमद्भगवद्गीता के चरम श्लोक में भगवान कहते हैं --
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
अर्थात् -- सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥
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अभिप्राय यह है कि एक परमात्मा के अतिरिक्त कुछ अन्य है ही नहीं। हमें अपनी पृथकता के बोध को भूलकर केवल परमात्मा में समर्पित होना पड़ेगा, तभी हम समस्त धर्माधर्मबन्धनरूप कर्मफलों से मुक्त हो सकते हैं।
इस भाव की प्राप्ति और कर्ताभाव से मुक्ति हमें केवल संकल्प और इच्छामात्र से नहीं हो सकती, इसके लिए भी तप और साधना करनी पड़ेगी। एक बार समर्पण का भाव आ जाये तो भगवान स्वयं हमारा मार्गदर्शन करते हैं। फिर कर्ता भी वे ही बन जाते हैं।
हमें भगवान की प्राप्ति इसलिए नहीं होती क्योंकि हमारे में सत्यनिष्ठा का अभाव है, अन्य कोई कारण नहीं है। सत्यनिष्ठा होगी तभी भक्ति यानि परमप्रेम जागृत होगा। भगवान सत्यनारायण हैं। आपने मेरी बात को बहुत ध्यान से पढ़ा है इसके लिए मैं आपका आभारी हूँ। हमें सब तरह की कामनाओं से मुक्त होकर भगवान में स्थित होना होगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ जनवरी २०२४