Monday, 29 December 2025

इस जन्म में मैं स्वाभिमान और गर्व सहित सनातनी हिन्दू हूँ ---

 इस जन्म में मैं स्वाभिमान और गर्व सहित सनातनी हिन्दू हूँ। हिन्दू का अर्थ है जो हिंसा से दूर है। मनुष्य में हिंसा का जन्म लोभ व अहंकार से होता है। लोभ व अहंकार ही राग-द्वेष है। राग-द्वेष से मुक्ति ही वीतरागता है। वीतराग व्यक्ति ही महत् तत्व से जुड़कर महात्मा बनता है। वीतराग व्यक्ति ही स्थितप्रज्ञता को प्राप्त होता है जो ईश्वर प्राप्ति की अवस्था है। स्थितप्रज्ञता ही कैवल्य/ब्राह्मी-स्थिति/कूटस्थ-चैतन्य आदि है। हम शाश्वत आत्मा हैं, इसलिए हमारा स्वधर्म परमात्मा से परमप्रेम और समर्पण है। इस पृथ्वी पर वह हर व्यक्ति हिन्दू है जिसे परमात्मा से प्रेम है, व जो परमात्मा को उपलब्ध होना चाहता है। हिन्दुत्व ही हमें आत्मा की शाश्वतता, पुनर्जन्म और कर्मफलों की शिक्षा देता है। घृणा व क्रोध से मुक्त होकर, ईश्वर की चेतना में रहते हुए हम अपने शत्रुओं का संहार करें। हमारे मन में शत्रुभाव का अभाव तो सदा रहे, लेकिन शत्रुबोध सदा बना रहे।

ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ दिसंबर २०२५

कांग्रेस के नेताओं को अपनी हार के लिए अपने अलावा सब जिम्मेदार लगते हैं ---

 कांग्रेस के नेताओं को अपनी हार के लिए अपने अलावा सब जिम्मेदार लगते हैं

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अंग्रेज भारत से इसलिए गये थे कि द्वितीय विश्वयुद्ध में उनकी कमर टूट गयी थी, और भारतीय सैनिकों ने उनके आदेश मानने बंद कर दिये थे। लेकिन अंग्रेजों को भगाने का झूठा श्रेय लेने वाली कांग्रेस मानती है कि उसने देश को आज़ाद करवाया है, इसलिए सिर्फ उसे ही इस देश पर शासन करने का अधिकार है। इसी झूठ को फैलाकर कांग्रेस ने देश पर शासन किया है।
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कांग्रेस के नेताओं को अपनी हार के लिए अपने अलावा सब जिम्मेदार लगते हैं। वे सोचते हैं कि उनके जैसे योग्य और समझदार नेताओं के होते हुए जनता किसी दूसरे को कैसे चुन सकती है? यही कारण है कि वे कभी तो चुनाव आयोग को, कभी ईवीएम को और कभी मतदाता सूची को दोष देते हैं। कांग्रेस और उसके नेता स्वयं को देश का मालिक समझते हैं। वे यह स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि देश की जनता उन्हें ठुकरा चुकी है। उन्हें अब पूरी व्यवस्था ही खराब नजर आने लगी है। अब वे भारतीय सेना का जिस तरह से अपमान कर रहे हैं, वह अस्वीकार्य है। एक तरह से कांग्रेस देश के विरुद्ध पाकिस्तानी झूठ ही फैला रही है। देश को अब कांग्रेस की आवश्यकता नहीं है।
कृपा शंकर
२० दिसम्बर २०२५

"राम" नाम पर सबका जन्मसिद्ध अधिकार है ---

"राम" नाम पर सबका जन्मसिद्ध अधिकार है। इसने पता नहीं अब तक कितने असंख्य लोगों को तारा है और कितनों को तारेगा। यह हमें परमात्मा का सबसे बड़ा उपहार है। ध्यानमुद्रा शांभवी में तो इसका विधिवत जप करें ही, लेकिन चलते-फिरते, उठते-बैठते, शौच-अशौच और देश-काल आदि के सब बंधनों से स्वयं को मुक्त कर इसका हर समय मानसिक जप कर सकते हैं।

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मंदिरों के बाहर द्वार पर एक घंटा लटका रहता है, जिसके अंदर लटकते हुए लौहदंड से जब इस पर प्रहार किया जाता है तब एक ध्वनि गूँजती है। वह ध्वनि हमारे सूक्ष्मदेह में मेरुदण्ड के अनाहतचक्र पर प्रहार करती है जिससे भक्तिभाव जागृत होता है। वैसे ही कल्पना कीजिये कि अन्तरिक्ष में एक घंटा लटका हुआ जिसमें से एक ध्वनि निकल रही है। उस ध्वनि को सुनते रहिए और "रां" बीज का मानसिक जप करते रहिये। आपके जीवन में एक चमत्कार घटित हो जायेगा।
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इसकी महिमा इतनी अधिक महान है कि शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती।
"राम नाम मणि दीप धरु, जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहिरौ, जो चाहसी उजियार॥"
इसमें रूपक अलंकार और भक्ति रस है। यहाँ 'राम नाम' को 'मणि-दीप' (रत्न-दीपक) के समान बताया गया है, जो उपमेय और उपमान का भेद मिटाकर एक रूप कर देता है, जिससे भीतर और बाहर ज्ञान और पवित्रता फैल सके।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२० दिसंबर २०२५

रहस्यों का रहस्य ---

रहस्यों का रहस्य --- यह एक अनमोल बात है -- रात्री के सन्नाटे में जब घर के सब लोग सोये हुए हों तब चुपचाप शांति से भगवान का ध्यान/जप आदि करें। न तो किसी को बताएँ और न किसी से इस बारे में कोई चर्चा करें। निश्चित रूप से आपको परमात्मा की अनुभूति होगी। किसी भी तरह के वाद-विवाद आदि में न पड़ें। हमारा लक्ष्य वाद-विवाद नहीं है, हमारा लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति है। परमात्मा को समर्पण हमें चिन्ता मुक्त कर देता है। तत्पश्चात हम केवल एक निमित्त मात्र बन जाते हैं। हमारे माध्यम से भगवान ही सारे कार्य करते हैं।
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हे प्रभु इतनी तो कृपा करो। स्वयं को मुझमें पूर्णतः व्यक्त करो। मुझे अपने साथ एक करो। हे प्रभु, राष्ट्र की अस्मिता -- धर्म की रक्षा करो। हमारे में ज्ञान, भक्ति, वैराग्य और आप स्वयं की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हो॥ हमें भगवान नहीं मिलते, इसका एकमात्र कारण है --"सत्यनिष्ठा का अभाव"। हमारे पतन का एकमात्र कारण है हमारा --"लोभ और अहंकार"। हम स्वयं पानी पीयेंगे तभी हमारी प्यास बुझेगी, स्वयं भोजन करेंगे तभी हमें तृप्ति होगी, और स्वयं साधना करेंगे तभी हमें भगवत्-प्राप्ति होगी। दूसरों के पीछे पीछे भागने से कुछ नहीं मिलेगा। हम जहां हैं, वहीं परमात्मा हैं।
हरिः ॐ तत्सत् !! कृपा शंकर
२४ दिसंबर २०२५

हमारा कार्य केवल परमात्मा के प्रकाश का विस्तार करना है ---

 हमारा कार्य केवल परमात्मा के प्रकाश का विस्तार करना है, अन्य सब उनकी यानि परमात्मा की समस्या है।

मेरे चारों ओर अनेक प्रकार की शक्तियाँ कार्य कर रही हैं, कुछ सकारात्मक हैं जो मुझे परमात्मा के मार्ग पर धकेल रही हैं। कुछ नकारात्मक शक्तियाँ हैं जिनका वश चले तो वे मुझे अभी इसी समय जलाकर भस्म कर दें। वे नकारात्मक शक्तियाँ मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ पा रही हैं। मैं निरपेक्ष भाव में हूँ। यह सृष्टि परमात्मा की है, मेरी नहीं। उनकी इच्छा कि वे स्वयं को कैसे व्यक्त करें। सकारात्मक हो या नकारात्मक सब में परमात्मा हैं। मुझे एक महापुरुष के वचन याद हैं। उन्होने कहा था कि हमारा कार्य केवल परमात्मा के प्रकाश का विस्तार करना है, अन्य सब उनकी यानि परमात्मा की समस्या है। मेरा भी आदर्श यही है। मेरे साथ क्या होता है, उसका महत्व नहीं है। उस अनुभव से मैं क्या बनता हूँ, महत्व सिर्फ इसी बात का है। जीवन का हर अनुभव कुछ नया सीखने का अवसर है। क्रियायोग व कूटस्थ में ज्योतिर्मय ब्रह्म का अनन्य भाव से ध्यान -- ईश्वरीय प्रेरणा से यही मेरी आध्यात्मिक साधना है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ दिसंबर २०२५

यह वृद्धावस्था बड़ी खराब चीज है --

 यह वृद्धावस्था बड़ी खराब चीज है -- (भगवान के भजन करने के इस मौसम में यह शरीर महाराज पूरा सहयोग नहीं करता। बड़ा धोखेबाज़ मित्र है)

"दुनिया भी अजब सराय फानी देखी, हर चीज यहां की आनी जानी देखी।
जो आके ना जाये वो बुढ़ापा देखा, जो जा के ना आये वो जवानी देखी॥"
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दिन-रात भगवान का चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करने का मौसम आ गया है। ध्यान हमें ज्योतिर्मय ब्रह्म का करना चाहिये। जो ब्रह्म शब्द का अर्थ नहीं समझते उन्हें किसी ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय महात्मा से मार्गदर्शन लेना होगा। "ब्रह्म" शब्द में सब समाहित हो जाते हैं। वे ही पुरुषोत्तम, वे ही परमशिव, और वे ही परमात्मा हैं। यह निरंतर हो रहा अनंत विस्तार, प्राण, ऊर्जा, और सम्पूर्ण अस्तित्व वे ही हैं। ऊर्जा के खंड व कण, उनकी गति, प्रवाह और विभिन्न आवृतियों पर उनके स्पंदनों से ही इस भौतिक सृष्टि का निर्माण हुआ है। प्राण तत्व से ही समस्त चैतन्य है। इन सब के पीछे जो अनंत सत्य और ज्ञान है, वह ब्रह्म है।
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नदियों का प्रवाह महासागर की ओर होता है। लेकिन एक बार महासागर में समर्पित होने के पश्चात नदियों का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो जाता है। फिर महासागर का ही अवशेष रहता है। जो जलराशि महासागर में समर्पित हो गयी है, वह बापस नदियों में नहीं जाना चाहती। ऐसे ही हम स्वयं का समर्पण ब्रह्म में करें। इसकी विधि किसी सद्गुरु आचार्य से सीखनी होगी।
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आध्यात्मिक साधना में महत्व "परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूतियों" का है जो प्रेम और आनंद के रूप में अनुभूत और व्यक्त हो रही हैं। जिस साधना से परमात्मा की अनुभूति होती है, और हम परमात्मा को उपलब्ध होते हैं, केवल वही सार्थक है। परमात्मा को सदा अपने समक्ष रखो और उनमें स्वयं का विलय कर दो।
हमारे जीवन का प्रथम, अंतिम और एकमात्र लक्ष्य/उद्देश्य -- "ईश्वर की प्राप्ति" है। इसके लिए कोई से भी साधन हों -- भक्ति, योग, तंत्र आदि सब स्वीकार्य हैं। भगवान हैं, इसी समय है, यही पर हैं, हर समय और सर्वत्र हैं। वे हैं, बस यही महत्वपूर्ण है। भगवान की आनंद रूपी जलराशि में हम तैर रहे हैं, उनकी जलराशि बन कर उनके महासागर में विलीन हो गये हैं। यही भाव सदा बना रहे।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ दिसंबर २०२५

आजकल मुझे निमित्त बनाकर भगवान श्रीकृष्ण अपनी साधना स्वयं कर रहे हैं ---

आजकल मुझे निमित्त बनाकर भगवान श्रीकृष्ण अपनी साधना स्वयं कर रहे हैं। मैं जहां भी हूँ, आप सब के हृदय में हूँ। आप सबसे मिले प्रेम के कारण मैं अभिभूत हूँ। आप सब कृतकृत्य हों, और आपका जीवन कृतार्थ हो।

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जब भी समय मिले अपनी साँसों पर ध्यान दें और अजपाजप करें। इसे हंसयोग और हंसवतीऋक भी कहते हैं। इसका वर्णन कृष्णयजुर्वेद का श्वेताश्वरोपनिषद करता है। प्रणव का मूर्धा में मानसिक जप भी कीजिये। सारे उपनिषद इसकी महिमा करते हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने भी इसे बहुत अच्छी तरह समझाया है। इसे खेचरी या अर्धखेचरी मुद्रा में करेंगे तो लाभ बहुत अधिक होगा।
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यह हमारा भ्रम है कि हम सांसें ले रहे हैं। हमारे माध्यम से भगवान स्वयं साँस ले रहे हैं। वे ही हमारे हृदय में धडक रहे हैं, वे ही इन आँखों से देख रहे हैं, इन पैरों से वे ही चल रहे हैं, और इस मष्तिष्क से वे ही सोच रहे हैं। इन कानों से मंत्र-श्रवण भी वे ही कर रहे हैं, और जप भी वे ही कर रहे हैं। हम अपना मन उनमें लगा देंगे तो हमारा काम बड़ा आसान हो जाएगा। मन को भगवान में लगाना -- इस सृष्टि में सबसे अधिक कठिन काम है। मन -- भगवान में लग गया तो मान लीजिये कि आधे से अधिक युद्ध हम जीत चुके हैं।
शुभाशीर्वाद !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२६ दिसंबर २०२५

सद्गुरु कौन हो सकता है? गुरु की आवश्यकता क्यों है? --- (Amended & Re-Posted)

 सद्गुरु कौन हो सकता है? गुरु की आवश्यकता क्यों है? --- (Amended & Re-Posted)

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वेदों के निर्देशानुसार एक श्रौत्रीय (जिसे श्रुतियों यानि वेदों का ज्ञान हो) ब्रहमनिष्ठ (ब्रह्म में स्थित) आचार्य ही सद्गुरु हो सकता है ---
"परीक्ष्य लोकान्‌ कर्मचितान्‌ ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन।
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्‌ समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्‌ ॥"
(मुण्डक. १:२:१२)
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ऐसे सद्गुरु का आज के युग में मिलना बड़ा कठिन है, इसलिए दक्षिणामूर्ति भगवान शिव, या जगतगुरु भगवान श्रीकृष्ण, को ही गुरु रूप में मानना चाहिए। या फिर गुरु का वरण ऐसे आचार्य को करें जिसने ईश्वर का साक्षात्कार किया हो।
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गुरु की आवश्यकता हमें इसलिए है कि साधनाएँ अनेक हैं, मार्ग अनेक हैं, अनेक मंत्र हैं, अनेक विद्याएँ हैं, लेकिन परमात्मा की प्राप्ति के लिए हमें एक ही मार्ग चाहिए। कौन सा मार्ग हमारे लिए उपयुक्त और सर्वश्रेष्ठ है इसका निर्णय जब हम नहीं कर पाते तब किसी आचार्य सद्गुरु की शरण लेते हैं। हमारी अब तक की आध्यात्मिक उपलब्धियों का आंकलन कर के एक सद्गुरु ही बता सकता है कि कौन सा मार्ग हमारे लिए सर्वश्रेष्ठ है। ऐसे गुरु ही हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं। हमें मार्गदर्शन उन्हीं से लेना चाहिए। गुरु की शिक्षा भी तभी फलदायी होगी जब हम सत्यनिष्ठ होंगे।
"अखंडमंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरं।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मे श्रीगुरवेनमः॥"
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२७ दिसंबर २०२५ . कल लिखा गया था ---
किसी भी आध्यात्मिक साधना को आरंभ करने से पूर्व एक ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय (जिसे श्रुतियों यानि वेदों का ज्ञान हो) आचार्य का मार्गदर्शन अनिवार्य है।
जिनको पूर्व जन्मों में सिद्धि मिल चुकी है, ऐसे मुमुक्षुओं को उनके पूर्व जन्मों के आचार्य उन्हें ढूंढ कर उनका मार्गदर्शन करते हैं।
केवल पुस्तकों से पढ़कर किसी साधना का आरंभ न करें। किसी ब्रहमनिष्ठ आचार्य से मार्गदर्शन अवश्य लें। आपका मंगल हो।
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !!
कृपा शंकर
२६ दिसंबर २०२५

जो वेदान्त के ब्रह्म हैं, वे ही साकार रूप में भगवान श्रीकृष्ण हैं। यह अनुभूतिजन्य सत्य है ---

निज जीवन में बहुत अधिक भटकाव के पश्चात मैं अब अपने विचारों पर दृढ़ हूँ। जो वेदान्त के ब्रह्म हैं, वे ही साकार रूप में भगवान श्रीकृष्ण हैं। यह अनुभूतिजन्य सत्य है। किसी भी तरह का कोई संशय नहीं है। द्वैत-अद्वैत / साकार-निराकार ये सब मन की अवस्थाएँ हैं। किसी भी रूप में भगवान अपनी साधना करें, यह उनकी इच्छा है। भगवान अपनी ज्योतिर्मय अनंतता व उससे भी परे की अनुभूतियाँ करा रहे हैं, यह उनकी कृपा है। उनकी कृपा से ही ये साँसे चल रही हैं, और उन्हीं की कृपा से यह शरीर जीवित है। अपनी साधना भी वे स्वयं ही कर रहे हैं।

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आज मेरा भौतिक स्वास्थ्य बिलकुल भी ठीक नहीं है। कल रात को बहुत अधिक उल्टियाँ हुईं और दस्त लगे। इस शरीर में बिलकुल भी जान नहीं है, लेकिन अपनी संकल्प शक्ति से मैं बिलकुल स्वस्थ (स्व+स्थ) हूँ। असत्य और अंधकार की शक्तियों का प्रतिकार करते हुए परमशिव में स्थित हूँ।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ दिसंबर २०२५

३१ दिसंबर की रात्रि "निशाचर रात्रि" होती है। निशाचर लोग अभिसारिकाओं की खोज में रहते हैं, और अभिसारिकायें निशाचरों की खोज में ---

 ३१ दिसंबर की रात्रि "निशाचर रात्रि" होती है। निशाचर लोग अभिसारिकाओं की खोज में रहते हैं, और अभिसारिकायें निशाचरों की खोज में। वहाँ धोखा ही धोखा है। मद्यपान, नाचगाना और हो-हुल्लड़ के सिवाय और कुछ भी नहीं होता। जिस रात भगवान का भजन नहीं होता वह राक्षस-रात्रि है, और जिस रात भगवान का भजन हो जाए वह देव-रात्रि है। मेरी बात की लोग हंसी उड़ायेंगे, लेकिन मुझ पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं वही कहूँगा जिससे आपका कल्याण हो।

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काम वही करें जिससे आत्म-शक्ति में वृद्धि हो। सर्वश्रेष्ठ कार्य है -- "ज्योतिर्मय पारब्रह्म/पुरुषोत्तम/परमशिव का ध्यान और जपयज्ञ"। इससे असत्य और अंधकार की शक्तियाँ क्षीण होंगी। अपनी बुद्धिमत्ता और ओजस्विता को मत लुटायें। परमशिव की आसक्ति का आलम्बन करें। ईश्वर और संतपुरुषों के अनुग्रह के लिए प्रार्थना करें, ताकि राष्ट्र शक्तिशाली हो, और हम वीर्यवान बनें।
ॐ तत्सत् !! महादेव महादेव महादेव !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ दिसंबर २०२५

परमात्मा ही मेरा वास्तविक स्वरूप है ---

 परमात्मा ही मेरा वास्तविक स्वरूप है ---

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योग के साथ भोग की कामना -- जीवन का सबसे बड़ा भटकाव है। "राम" और "काम" कभी साथ-साथ नहीं रह सकते, वैसे ही जैसे प्रकाश और अंधकार। आत्म-साक्षात्कार -- हमारे इस मनुष्य जीवन का प्रथम, अंतिम, और एकमात्र उद्देश्य है। हमारा लक्ष्य भगवत्-प्राप्ति है, उस से कम कुछ भी नहीं। इस मार्ग में कोई भी नीति, नियम या सिद्धांत यदि बाधक हो तो उसका उसी क्षण परित्याग कर दो। कोई भी नीति, नियम या सिद्धांत -- परमात्मा से बड़ा नहीं है।
धर्म और अधर्म से भी ऊपर हमें उठना होगा। अंततः ये भी बंधन हैं। परमात्मा सब तरह के धर्म और अधर्म से परे है।
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भगवान ने गीता में जिस ब्राह्मी-स्थिति की बात की है, उस ब्राह्मी स्थिति में हम सब प्रकार के बंधनों से ऊपर होते हैं। कूटस्थ-चैतन्य में रहने का अभ्यास करते करते हमें ब्राह्मी-स्थिति प्राप्त हो जाती है। गीता में भगवान कहते हैं --
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२:७२॥"
अर्थात् - हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है॥
(O Arjuna! This is the state of the Self, the Supreme Spirit, to which if a man once attains, it shall never be taken from him. Even at the time of leaving the body, he will remain firmly enthroned there, and will become one with the Eternal.)
कूटस्थ सूर्यमंडल में पुरुषोत्तम/परमशिव का ध्यान मेरे विचारों व आचरण को निरंतर परमात्मा की चेतना में रखता है। यही मेरी साधना और ब्रह्मविद्या का सार है।
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एक बड़े से बड़ा ब्रह्मज्ञान -- कृष्ण यजुर्वेद में श्वेताश्वतर उपनिषद के छठे अध्याय के पंद्रहवें -- इस महाचिन्मय हंसवती ऋक मंत्र में है। इस की एक विधि है जिसका संधान गुरु प्रदत्त विधि से उन्हीं के आदेशानुसार करना पड़ता है। "हंस" शब्द का अर्थ परमात्मा के लिए व्यवहृत हुआ है। परमात्मा को अपना स्वरूप जानने पर ही जीव -- मृत्यु का अतिक्रम कर पाता है। इसका अन्य कोई उपाय नहीं है।
"एको हंसो भुवनस्यास्य मध्ये स एवाग्निः सलिले संनिविष्टः।
तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥" (श्वेताश्वतरोपनिषद्-६/१५)
इस सम्पूर्ण विश्व के अन्तर में 'एक' 'हंसस्वरूपी आत्मसत्ता' है एवं 'वह' अग्निस्वरूप' है जो जल की अतल गहराई में स्थित है। 'उसका' ज्ञान प्राप्त करके व्यक्ति मृत्यु की पकड़ से परे चला जाता है तथा इस महद्-गति के लिए दूसरा कोई मार्ग नहीं है। (अस्य भुवनस्य मध्ये एकः हंसः। सः एव सलिले संनिविष्टः अग्निः। तम् एव विदित्वा मृत्युम् अत्येति अयनाय अन्यः पन्थाः न विद्यते॥)
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यह ब्रह्मविद्या का सार है। यह व्यावहारिक रूप से स्वयं पर हरिःकृपा से ही अवतृत होता है ।
हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ दिसंबर २०२५

मेरे द्वारा सबसे बड़ी सेवा क्या हो सकती है ??

 मेरे द्वारा सबसे बड़ी सेवा क्या हो सकती है ??

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प्रकृति ने अपने नियमानुसार जहाँ भी मुझे रखा है, उससे मुझे कोई शिकायत नहीं है। पूर्वजन्मों के कर्मानुसार मेरा यह जीवन निर्मित हुआ। भविष्य की कोई कामना नहीं है। हृदय में यह गहनतम और अति अति प्रबल अभीप्सा अवश्य है कि यदि पुनर्जन्म हो तो मैं इस योग्य तो हो सकूँ कि भगवान को पूर्णरूपेण समर्पित होकर, उनकी अनन्य-अव्यभिचारिणी-भक्ति सभी के हृदयों में जागृत कर सकूँ। भगवान की पूर्ण अभिव्यक्ति मुझ में हो। किसी भी कामना का जन्म न हो।
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विवक्तदेशसेवित्वरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ दिसंबर २०२३