परमात्मा ही मेरा वास्तविक स्वरूप है ---
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योग के साथ भोग की कामना -- जीवन का सबसे बड़ा भटकाव है। "राम" और "काम" कभी साथ-साथ नहीं रह सकते, वैसे ही जैसे प्रकाश और अंधकार। आत्म-साक्षात्कार -- हमारे इस मनुष्य जीवन का प्रथम, अंतिम, और एकमात्र उद्देश्य है। हमारा लक्ष्य भगवत्-प्राप्ति है, उस से कम कुछ भी नहीं। इस मार्ग में कोई भी नीति, नियम या सिद्धांत यदि बाधक हो तो उसका उसी क्षण परित्याग कर दो। कोई भी नीति, नियम या सिद्धांत -- परमात्मा से बड़ा नहीं है।
धर्म और अधर्म से भी ऊपर हमें उठना होगा। अंततः ये भी बंधन हैं। परमात्मा सब तरह के धर्म और अधर्म से परे है।
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भगवान ने गीता में जिस ब्राह्मी-स्थिति की बात की है, उस ब्राह्मी स्थिति में हम सब प्रकार के बंधनों से ऊपर होते हैं। कूटस्थ-चैतन्य में रहने का अभ्यास करते करते हमें ब्राह्मी-स्थिति प्राप्त हो जाती है। गीता में भगवान कहते हैं --
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२:७२॥"
अर्थात् - हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है॥
(O Arjuna! This is the state of the Self, the Supreme Spirit, to which if a man once attains, it shall never be taken from him. Even at the time of leaving the body, he will remain firmly enthroned there, and will become one with the Eternal.)
कूटस्थ सूर्यमंडल में पुरुषोत्तम/परमशिव का ध्यान मेरे विचारों व आचरण को निरंतर परमात्मा की चेतना में रखता है। यही मेरी साधना और ब्रह्मविद्या का सार है।
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एक बड़े से बड़ा ब्रह्मज्ञान -- कृष्ण यजुर्वेद में श्वेताश्वतर उपनिषद के छठे अध्याय के पंद्रहवें -- इस महाचिन्मय हंसवती ऋक मंत्र में है। इस की एक विधि है जिसका संधान गुरु प्रदत्त विधि से उन्हीं के आदेशानुसार करना पड़ता है। "हंस" शब्द का अर्थ परमात्मा के लिए व्यवहृत हुआ है। परमात्मा को अपना स्वरूप जानने पर ही जीव -- मृत्यु का अतिक्रम कर पाता है। इसका अन्य कोई उपाय नहीं है।
"एको हंसो भुवनस्यास्य मध्ये स एवाग्निः सलिले संनिविष्टः।
तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥" (श्वेताश्वतरोपनिषद्-६/१५)
इस सम्पूर्ण विश्व के अन्तर में 'एक' 'हंसस्वरूपी आत्मसत्ता' है एवं 'वह' अग्निस्वरूप' है जो जल की अतल गहराई में स्थित है। 'उसका' ज्ञान प्राप्त करके व्यक्ति मृत्यु की पकड़ से परे चला जाता है तथा इस महद्-गति के लिए दूसरा कोई मार्ग नहीं है। (अस्य भुवनस्य मध्ये एकः हंसः। सः एव सलिले संनिविष्टः अग्निः। तम् एव विदित्वा मृत्युम् अत्येति अयनाय अन्यः पन्थाः न विद्यते॥)
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यह ब्रह्मविद्या का सार है। यह व्यावहारिक रूप से स्वयं पर हरिःकृपा से ही अवतृत होता है ।
हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ दिसंबर २०२५
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