Monday, 17 October 2016

सृष्टि बीज, संहार बीज और अजपा गायत्री ........

सृष्टि बीज, संहार बीज और अजपा गायत्री ........
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जब हम सामान्यतः साँस लेते हैं तब स्वाभाविक रूप से "हं" की ध्वनी उत्पन्न होती है, यह ध्वनी संहार बीज है| और जब साँस छोड़ते हैं तब "सः" की ध्वनी उत्पन्न होती है, यह सृष्टि बीज है| जब हम निरंतर चल रही इन ध्वनियों को सजग होकर सुनते हैं तब "हं सः " मन्त्र बनता है| यह एक बहुत उन्नत साधना है जो "अजपा- जप" कहलाती है| साँस लेते समय "हं" का मानसिक जाप, और छोड़ते समय "सः" का मानसिक जाप "अजपा गायत्री" कहलाता है| अचेतन रूप से हर मनुष्य इस मन्त्र का दिन में लगभग २१,६०० बार जाप करता है| अति उन्नत साधकों का क्रम स्वतः बदल जाता है, और यह मन्त्र "हंसः" से "सोहं" हो जाता है|
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इस साधना में साधक भ्रूमध्य में एक प्रकाश की कल्पना करता है जिसे वह समस्त ब्रह्मांड में फैला देता है और यह भाव रखता है की मैं सर्वव्यापी ज्योतिर्मय हूँ, यह देह नहीं| धीरे धीरे यह प्रकाश निरंतर दिखाई देने लगता है और कूटस्थ में ओंकार की ध्वनी सुनाई देने लगती है|
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यह एक बहुत उन्नत साधना है अतः जिज्ञासु को साधना से पूर्व किसी श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य से मार्गदर्शन और आशीर्वाद ले लेना चाहिए|
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ॐ तत्सत् ! ॐ शिव ! तत्वमसि ! सोsहं | ॐ ॐ ॐ ||

शाश्वत् मित्र .......

शाश्वत् मित्र .......
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जब इस आत्मा का इस देह रूप में अवतरण हुआ उस से पूर्व एक मित्र परमात्मा ही था जो सदा साथ में था| जन्म के पश्चात माँ बाप के रूप में उस मित्र परमात्मा ने ही पालन पोषण किया| उस मित्र परमात्मा ने ही भाई, बहिनों, काका, काकी, ताऊ, ताई, दादी, भुआ, भाभी और अन्य सभी सम्बन्धियों के रूप में प्रेम किया| सभी मित्रों, सहपाठियों और सहकर्मियों के रूप में भी उस मित्र परमात्मा ने ही साथ दिया|
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शांति में, युद्धों में, देश-विदेशों में और महासागरों में, प्रकृति के सौम्यतम और विकरालतम रूपों में, पृथ्वी के हर भाग में, अपरिचित, अजनबी और अनजान लोगों के मध्य सदा मैंने एक अदृश्य मित्र को साथ पाया जो मेरा साथ देता था व निरंतर मेरी रक्षा करता था|
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अब जब मेरे कई सम्बन्धी, मित्र और अधिकांश सहकर्मी तो पता नहीं कहाँ अज्ञात अनंतता में चले गए हैं, मैं उस अदृश्य मित्र को ही सदा साथ में पाता हूँ जो निरंतर मेरे सुख दुःख का साथी है| वह दिखता नहीं है पर सदा मेरे साथ है| वह ही उपरोक्त सभी रूपों में छलिया बन कर आया था| लगता है उसका काम ही छलने का है| जीवन में आनंद और पीड़ाएँ दोनों उसी ने दीं और साथ साथ भुगती भी|
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वह मित्र ही है जो इस ह्रदय में धड़क रहा है, इन आँखों से देख रहा है, और इस देह की समस्त क्रियाओं का संचालन कर रहा है| एक दिन जब वह इस देह के ह्रदय में धड़कना बंद कर देगा तब मेरे लिए सब कुछ, यहाँ तक कि यह पृथ्वी भी छूट जायेगी और पता नहीं कहाँ अज्ञात में जाना होगा तब वह मित्र ही सदा मेरे साथ में रहेगा|
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मैं सार्थकता इसी में पाता हूँ कि उस परम शिव शाश्वत मित्र से मित्रता और भी प्रगाढ़ हो जाये और उसके साथ कोई भेद ना रहे| मेरा प्रथम, अंतिम और एकमात्र प्रेम अब उसके साथ ही है जो कहीं भी दिखाई नहीं देता पर सब रूपों में वही है|

ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

पूर्णता शिव में है, जीव में नहीं .....

पूर्णता शिव में है, जीव में नहीं .....
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हर व्यक्ति में परमात्मा का अंश तो होता ही है, पर साथ साथ पशुता भी होती है|
अति अल्प मात्रा में ही सही जब तक व्यक्ति में अहंकार है, पशुता का अंश भी उसमें है| व्यक्ति का कभी भी पतन हो सकता है, उसे पता भी नहीं चलता|
हमारी यह बहुत बड़ी भूल है कि हम अपने राष्ट्रनायकों, महात्माओं और धर्मगुरुओं को पूर्ण समझते हैं; उनकी हर बात को आदर्श और परम सत्य मानते है, जो एक भटकाव है| उनके कहे हुए असत्य को भी सत्य मान लेते हैं| पर वे भी भूल कर सकते हैं और उनका भी आंशिक या गहन पतन हो सकता है|
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पूर्णता और सत्य को परमात्मा में ढूंढें , मनुष्य में नहीं, चाहे उसका व्यक्तित्व कितना भी महान क्यों ना हो| सत्य एक अनुभूति है, जो प्रत्येक को अनुभूत करनी पडती है| एक व्यक्ति का सत्य दुसरे के काम नहीं आ सकता, मात्र प्रेरणा दे सकता है| दुसरे लोग हमें प्रेरणा दे सकते हैं पर सत्य का बोध तो परमात्मा के प्रत्यक्ष साक्षात्कार से ही हो सकता है| और जहाँ तक हमारा प्रश्न है हमें दूसरों के उज्जवल पक्ष से ही प्रेरणा लेनी चाहिए, ना कि उनके अंधकारमय पक्ष से|
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हमारा निरंतर प्रयास हो कि हम प्रेममय बनें और उतरोत्तर प्रगति करते रहें| किसी गेंद को सीढियों पर गिरा दें तो वह नीचे की ओर ही जायेगी| किसी बर्तन को नियमित न माँजें तो उसकी चमक भी कम होती जायेगी| जीवन में स्थिरता नहीं है| या तो उत्थान है या पतन| निरतर उत्थान का प्रयत्न न करते रहेंगे तो पतन निश्चित है| हमारे भीतर एक देवता भी है और एक असुर भी| हमारा लक्ष्य इन दोनों से ऊपर उठ कर शिवत्व को उपलब्ध होना है| शुभ कामनाएँ|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

सदा ह्रदय की ही सुननी चाहिए, मन की नहीं .....

(1) सदा ह्रदय की ही सुननी चाहिए, मन की नहीं .
(2) ह्रदय कहाँ है ?
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(1) मनुष्य का मन और उसका ह्रदय कभी एक नहीं हो सकते| मन पर पूर्ण नियंत्रण हो जाए तो बात दूसरी है| मन गणना करता है, हित-अहित की सोचता है और झूठ भी बोलता है, जब कि ह्रदय सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म का बोध कराता है और कभी झूठ नहीं बोलता| ह्रदय में सदा परमात्मा का निवास होता है, सारे अच्छे विचार और प्रेरणाएँ वहीं से आती हैं| मन एक झरने सा उच्छशृंखल है, ह्रदय शांत सरोवर है| ह्रदय को अभिलाष है ..... सच्चे प्रेम की, कर्त्तव्य की, धर्म की, सम्मान की, पर मन इच्छुक है हर क्षण शरीर के सुख का| अतः हमें सदा ह्रदय की ही सुननी चाहिए, मन की नहीं| ह्रदय की भाषा मन के शब्दों और भावनाओं के परे है|
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(2) ह्रदय कहाँ है ? .....
जो योग मार्ग के साधक हैं उनके चैतन्य में ह्रदय का केंद्र भौतिक ह्रदय न रहकर, आज्ञाचक्र व सहस्त्रार के मध्य हो जाता है| वे प्रयासपूर्वक अपनी चेतना को आज्ञाचक्र से ऊपर रखते हैं जो कुछ समय पश्चात स्वभाविक हो जाता है| उसी क्षेत्र में उन्हें नाद यानि प्रणव की ध्वनी सुनाई देती है, और ज्योति का प्राकट्य भी वहीँ होता है जो कूटस्थ में प्रतिबिम्बित होती है|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ ||

स्वयंभु ब्रह्मणे नमः .....

स्वयंभु ब्रह्मणे नमः .....
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क्या महासागर की एक लहर महासागर को देख सकती है ?
क्या एक मिट्टी का एक घड़ा मिट्टी को देख सकता है ?
हमारा वास्तविक स्वरुप परमात्मा है, उससे परे अन्य कुछ है ही नहीं|
हमारा वास्तविक रूप ही आनंदमय है और हम आनंद को ढूंढ रहे हैं|
अज्ञान तो ज्ञान से ही दूर हो सकता है|
अपनी आनन्दरूपता को न जानने के कारण ही हम सुख के पीछे भटक रहे हैं|
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अजपा-जप और प्रणव पर ध्यान के द्वारा परमात्मा पर चित्त स्थिर करना चाहिये|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!

लोगों से मित्रता की कामना ..... निजात्मा की परमात्मा को पाने की तड़फ की ही अभिव्यक्ति है ....

लोगों से मित्रता की कामना ..... निजात्मा की परमात्मा को पाने की तड़फ की ही अभिव्यक्ति है|
सांसारिक लोगों से अत्यधिक घनिष्ठता अंततः वितृष्णा यानि घृणा को जन्म देती है| अत्यधिक घनिष्ठता से अंततः निराशा ही मिलती है| मित्रता वहीं सफल होती है जहां मित्रता का आधार परमात्मा के प्रति प्रेम होता है| अन्य आधार बेचैनी और असंतोष को जन्म देते हैं| वास्तव में हमारा सच्चा और एकमात्र मित्र परमात्मा ही है|
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सुख ..... मन की एक अस्थायी अवस्था मात्र है|
जीवन में सुख पाने की कामना भी वास्तव में निजात्मा की सच्चिदानंद को पाने की तड़फ की ही अभिव्यक्ती मात्र है| यह एक अभीप्सा ही है जो सिर्फ परमात्मा से ही तृप्त हो सकती है| संसार में सुख की खोज में आज तक तो कोई सुखी नहीं हुआ| जिन को हम सुखी समझते हैं, उनसे पूछ कर देख लीजिये, तब पता चल जाएगा कि कौन सुखी है| सुख वास्तव में मन की एक अस्थायी अवस्था मात्र है| वास्तविक सुख तो सच्चिदानंद परमात्मा की भक्ति से प्राप्त आनंद ही है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||