Tuesday, 31 December 2024

आध्यात्मिक साधना क्या होती है ?

 आध्यात्मिक साधना क्या होती है ?

आध्यात्मिक साधना का अर्थ है आत्म-साधना यानि स्वयं की अपनी आत्मा को जानना और अपनी सर्वोच्च क्षमताओं का विकास करना| मनुष्य के जब पापकर्मफल क्षीण होने लगते हैं और पुण्यकर्मफलों का उदय होता है तब परमात्मा को जानने की एक अभीप्सा जागृत होती है और करुणा व प्रेमवश परमात्मा स्वयं एक सद्गुरु के रूप में मार्गदर्शन करने आ जाते हैं| स्वयं के अंतर में इस सत्य का बोध तुरंत हो जाता है|

साधक को उसकी पात्रतानुसार ही मार्गदर्शन प्राप्त होता है जिसका अतिक्रमण नहीं हो सकता| ये पंक्तियाँ लिखने का मेरा उद्देश्य यही है कि साधना के मार्ग में किसी भी प्रकार का लालच व अहंकार .... पतन का कारण हो जाता है| परमात्मा के सिवाय अन्य किसी भी लाभ की आकांक्षा नहीं होनी चाहिए, अन्यथा पतन सुनिश्चित है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ जनवरी २०१९

जनवरी के महीने को "जनवरी" क्यों कहते है ?

 जनवरी के महीने को "जनवरी" क्यों कहते है?

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पूरे विश्व में भगवान श्रीगणेश की पूजा हुआ करती थी। रोम साम्राज्य में भगवान श्रीगणेश को "जेनस" कहते थे। वे सबसे बड़े रोमन देवता थे। अपने देवता जेनस के नाम पर रोमन साम्राज्य ने वर्ष के प्रथम माह का नाम "जनवरी" रखा। किसी भी शुभ कार्य के आरंभ से पूर्व बुद्धि के देवता "जेनस" की पूजा होती थी।
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जेनस से ही अंग्रेजी का "Genius" शब्द बना है।
आंग्ल कलेंडर में पहले १० महीने हुआ करते थे और वर्ष का आरंभ मार्च से होता था। भारतीयों की नकल कर के रोमन साम्राज्य ने दो माह और जोड़ दिए। जेनस देवता के नाम पर जनवरी, और फेबुआ देवता के नाम पर फरवरी नाम के दो महीने और जोड़कर आंग्ल वर्ष को १२ माह का कर दिया।
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अंग्रेजों की सबसे बड़ी संस्कृति है -- "धूर्तता"। उनसे बड़ा कोई अन्य धूर्त नहीं है। उन्होंने भी इसी कलेंडर को अपनाया और बड़ी धूर्तता और क्रूरता से भारत में और पूरे विश्व में अपना कलेंडर थोप दिया। परिस्थितियों के वश हम ग्रेगोरी नाम के पोप (Pope Gregory XIII) द्वारा बनाए हुए इस ईसाई ग्रेगोरियन कलेंडर को मानने को बाध्य हैं।
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१ जनवरी २०२३
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पुनश्च :-- ग्रेगोरियन कलेंडर से पूर्व जूलियन कलेंडर हुआ करता था। अक्टूबर १५८२ में पोप ग्रेगोरी XIII ने इसे लागू कराया।

भगवान ने हमारी रचना क्यों की? वे हम से क्या चाहते हैं? यह सारा प्रपंच क्यों?

 भगवान ने हमारी रचना क्यों की? वे हम से क्या चाहते हैं? यह सारा प्रपंच क्यों?

सृष्टिकर्ता को हम कैसे जान सकते हैं? क्या यह संभव है? कर्ता हम हैं या प्रकृति?
ये दुःख/सुख, अभाव/प्रचूरता, घृणा/प्रेम, राग/द्वेष, और भय/लोभ/अहंकार आदि क्यों? इस जीवन का क्या उद्देश्य है?
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उपरोक्त सारे प्रश्न शाश्वत हैं? इन पर भारत में जितनी चर्चा हुई है, उतनी तो अन्यत्र कहीं भी नहीं हुई हैं। उपनिषदों में इन सब के उत्तर मिल भी सकते हैं, और नहीं भी। आज हम इस संसार में हैं, कुछ समय पश्चात चले जाएँगे। संसारी व्यक्तियों से प्रश्न करो तो सबका उत्तर रटा-रटाया होता है, किसी का मौलिक उत्तर नहीं होता।
कोई कहता है गुरु करो। गुरु ही सब बात बताएगा। कोई कहता है हमारी विचारधारा में आ जाओ, तो ठीक है, तुम्हें ये ये लाभ मिलेंगे, अन्यथा नर्क की शाश्वत अग्नि मिलेगी। यहाँ यह भी भय पर आधारित एक व्यापार है।
श्रीमद्भगवद्गीता में और अन्य शास्त्रों में जिसे तमोगुण बताया है, लगता है वह तमोगुण ही इस संसार को चला रहा है। कहीं कहीं रजोगुण है। सतोगुण तो कहीं दिखाई ही नहीं देता।
फिर श्रीमद्भगवद्गीता के सांख्य योग में भगवान हमें तीनों गुणों से परे जाने को क्यों कहते हैं? --
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२:४५॥"
यहाँ भगवान हमें निस्त्रेगुण्य होने को कहते हैं, लेकिन साथ में चार शर्तें भी लगा देते हैं कि पहले निर्द्वंद्व, नित्यसत्वस्थ, निर्योगक्षेम, और आत्मवान बनो। फिर आगे की बात करो।
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ये सब बातें एक सामान्य मनुष्य के वश की बात नहीं है। यह संसार ऐसे ही चलता रहेगा, जैसा अब तक चलता आया है। थक-हार कर हम आत्म-संतुष्टि के लिए तरह तरह की बातें कहते हैं, जैसे --
"उमा दारु जोषित की नाईं। सबहि नचावत रामु गोसाईं॥"
यह कोई उत्तर नहीं है। प्रश्न यहाँ बना रहता है कि "क्यों?"
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१ जनवरी २०२४

हे अनंत, हे विराट, हे परमात्मा, तुम अब और अधिक छिप नहीं सकते ---

 हे अनंत, हे विराट, हे परमात्मा, तुम अब और अधिक छिप नहीं सकते ---

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तुम्हें इसी क्षण प्रकट होना ही पड़ेगा| तुमने हमें जहाँ भी रखा है वहीं तुम्हें आना ही पड़ेगा| अब शीघ्रातिशीघ्र स्वयं को प्रकट करो| तुम्हारे बिना अब और अधिक जीना संभव नहीं है| हमें प्रत्यक्ष साक्षात्कार चाहिए, कोई दार्शनिक अवधारणा या ज्ञान नहीं| अपनी माया के आवरण से बाहर आओ और विक्षेप उत्पन्न मत करो| अंततः हो तो तुम भक्त-वत्सल ही| अपनी संतानों की करुण पुकार सुनकर तुम को आना ही पड़ेगा|
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तुम्हीं साधक हो, तुम्हीं साधना हो और तुम्ही साध्य हो| तुम ही तुम हो, मैं नहीं| हे सच्चिदानंद, तुम्हें प्रणाम ! अब विलंब मत करो|
अन्यथा शरणं नास्ति, त्वमेव शरणं मम| तस्मात्कारुण्यभावेन, रक्षस्व परमेश्वर||
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ब्रह्मानंदं परम सुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं| द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम्||
एकं नित्यं विमलंचलं सर्वधीसाक्षीभूतम्| भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि||
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वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च ।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व ।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वंसर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ॥
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बाहर चाहे कितना भी अंधकार हो, मेरी चेतना में तो परम ज्योतिर्मय परमात्मा ही स्वयं हैं| आज की पूरी रात्रि ही नहीं, अवशिष्ट जीवन का हर पल उन्हीं को समर्पित है| उनके सिवाय अन्य कोई है ही नहीं, मैं भी नहीं|
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति| तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति||६:३०||
अर्थात् "जो पुरुष, मुझे सर्वत्र देखता है, और सब को मुझ में देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता, और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता||"
सारा जड़ और चेतन वे ही हैं| उनके सिवाय कोई अन्य है ही नहीं| यह मैं और मेरापन -- एक मिथ्या अहंकार है|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! हरिः ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !! .
हम जहाँ हैं, वहीं भगवान हैं, वहीं सारे तीर्थ हैं, वहीं सारे संत-महात्मा हैं, कहीं भी किसी के भी पीछे-पीछे नहीं भागना है| भगवान हैं, यहीं हैं, इसी समय हैं, और सर्वदा हैं| वे ही इन नासिकाओं से सांस ले रहे हैं, वे ही इस हृदय में धड़क रहे हैं, वे ही इन आँखों से देख रहे हैं, और इस शरीर-महाराज और मन, बुद्धि व चित्त के सारे कार्य वे ही संपादित कर रहे हैं| उनके सिवाय अन्य किसी का कोई अस्तित्व नहीं है| बाहर की भागदौड़ एक मृगतृष्णा है, बाहर कुछ भी नहीं मिलने वाला| परमात्मा की अनुभूति निज कूटस्थ-चैतन्य में ही होगी|
बाहर बहुत भयंकर ठंड का प्रकोप चल रहा है| विगत रात्री में तापमान -४ डिग्री सेल्सियस तक गिर गया था| अभी भी बर्फीली हवायें चल रही हैं| ऐसे मौसम में न तो कहीं जाना है और न किसी से मिलना-जुलना है| घर पर ही कुछ व्यायाम करेंगे और भगवान का यथासंभव अधिकाधिक ध्यान करेंगे| सभी को शुभ कामनायें व नमन !
हम चाहे कितने भी ग्रन्थ पढ़ लें, कितने भी प्रवचन और उपदेश सुन लें, कितने भी साधुओं का संग करते रहें, कितना भी दान-पुण्य करें; इनसे परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती| इनसे हम पुण्यवान तो होंगे, कुछ अच्छे कर्म भी हमारे खाते में जुड़ेंगे; और कुछ नहीं|

वीतरागता यानि राग-द्वेष रूपी द्वन्द्वों और अहंकार से मुक्त होना हमारी पहली आवश्यकता है| इसके लिए भगवान कहते हैं

"संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः| योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति||५:६||"
अर्थात् हे महाबाहो ! योग के बिना संन्यास प्राप्त होना कठिन है; योगयुक्त मननशील पुरुष परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त होता है|| (Without concentration, O Mighty Man, renunciation is difficult. But the sage who is always meditating on the Divine, before long shall attain the Absolute..)

सत्यनिष्ठा से भक्ति, समर्पण और ध्यान-साधना तो स्वयं को ही करनी होगी| भूख लगने पर भोजन स्वयं को ही करना पड़ता है| आज व कल इन दो दिनों में गीता के पांचवें अध्याय का स्वाध्याय और भगवान का खूब ध्यान करें|

ॐ नमः शम्भवाय च, मयोभवाय च, नमः शंकराय च, मयस्कराय च, नमः शिवाय च, शिवतराय च|| ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||कृपा शंकर ३१ दिसंबर २०२०

देवता पुरुष डॉ.जीवनचंद जैन को श्रद्धांजलि !

८३ वर्ष की आयु में हमारे यहाँ के गरीबों के मसीहा और हर दृष्टि से मनुष्य देह में देवता, डॉ.जीवनचंद जैन नहीं रहे|
३१ दिसंबर २०१८ को उनके निधन पर शोक में आज हमारे यहाँ के और आसपास के सारे बाजार और सारे शिक्षण संस्थान स्वतः ही बंद हो गए हैं|
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गरीबों की जितनी सेवा और कल्याण के कार्य उनके स्वयं के द्वारा और उन की प्रेरणा से औरों के द्वारा हुए, वैसे मैंने अपने पूरे जीवन काल में अन्यत्र कहीं भी किसी अन्य के द्वारा होते हुए नहीं देखे| अपनी सारी आय को वे परोपकार में लगा देते थे| वे अपने आप में एक संस्था और राजस्थान के पूरे शेखावाटी क्षेत्र में किसी भी परिचय के मोहताज नहीं थे|
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उनका जन्म राजस्थान के करौली में हुआ था पर कर्मभूमि झुंझुनू ही थी| उनकी धर्मपत्नी स्व.डॉ.कुन्दनबाला जैन पिलानी के डॉ.नंदलाल ध्रुव की पुत्री थीं| वे भी अपने जीवनकाल में एक देवी थीं| पुनश्चः श्रद्धांजलि !

३१ दिसंबर २०१८ . डॉ.जैन मनुष्य देह में हर दृष्टी से एक देवता थे| उनके स्वयं के द्वारा और उनकी प्रेरणा से सैंकड़ों अन्य व्यक्तियों द्वारा जो सेवा कार्य मैनें होते हुए देखे हैं, उनकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता| उनकी धर्मपत्नी स्व.डॉ.कुंदनबाला जैन भी एक दैवीय व्यक्तित्व की धनी थीं| डॉ.जैन अपने समय के एक विख्यात मेडिकल सर्जन थे| उनसे गरीबों का दुःख देखा नहीं गया और अपनी सरकारी नौकरी छोड़कर प्राइवेट प्रैक्टिस करने लगे| पहली बार कोई मरीज उनके पास आता तो वे मात्र दस रुपया फीस का लेते और बाद में सिर्फ पांच रुपया| किसी के पास में वह भी नहीं होता तो कोई बात नहीं, उसके निःशुल्क इलाज़ की व्यवस्था हो जाती| जटिल से जटिल ऑपरेशन भी सिर्फ लागत मूल्य पर ही कर देते| दवाइयाँ भी सिर्फ आवश्यक और कम से कम लिखते थे| बहुत सस्ते में इलाज करा देते थे| उनकी प्रेरणा से हर वर्ष सैंकड़ों गरीबों का निःशुल्क इलाज होता था| हर वर्ष गरीबों को सैंकड़ों कम्बल. रजाइयाँ, स्वेटर आदि दी जाती थीं| अनेक महिलाओं को सिलाई की मशीनें देकर स्वावलंबी बनाया गया| और भी अनगिनित सेवा कार्य उनकी प्रेरणा से हो रहे थे|
राजस्थान के झुंझुनू जिले की एक महान हस्ती अब इस दुनियाँ में नहीं रही| डॉ.जीवनचंद जैन साहब को नमन !

एक क्षण के लिए भी परमात्मा की विस्मृति न हो ---

जीवन का आरंभ जहाँ से हुआ था उसे तो मैं नहीं बदल सकता, लेकिन जीवन के अंत को बदल सकता हूँ। वर्तमान का यह क्षण ही मेरी यात्रा है जिसका अंत सुखद हो। मेरे हृदय में किसी के प्रति घृणा या दुर्भावना न हो। शत्रुओं का संहार भी प्रेमपूर्वक बिना घृणा या बिना क्रोध के किया जाना चाहिए। कर्ता तो परमात्मा हैं, मैं तो निमित्त मात्र हूँ। मेरे माध्यम से हरेक कार्य परमात्मा द्वारा संपादित हो रहे हैं। यह भाव सदा बना रहे।

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मैं स्वयं ही स्वयं का शत्रु और स्वयं ही स्वयं का मित्र हूँ। भगवान को समय नहीं देना स्वयं के प्रति मेरी शत्रुता है, और भगवान का गहरा ध्यान स्वयं के साथ मित्रता है। शास्त्रों को सिर्फ पढ़कर, प्रवचनों को सिर्फ सुनकर, और सिर्फ परोपकार मात्र से किसी को भगवान नहीं मिलते। उनकी अनुभूति सिर्फ गहरे ध्यान में ही होती है। अतः मुझे ध्यान-साधना में गंभीरता से नित्य नियमित होना चाहिए।
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जीवन में मैं चाहे कितनी भी बार पराजित हुआ, लेकिन अब और पराजय मुझे अस्वीकार्य है। यदि मेरी निष्ठा, श्रद्धा और विश्वास सही है तो मैं कभी पराजित नहीं हो सकता। अहं इंद्रो न पराजिग्ये॥ मैं इन्द्र हूँ, जिसे कोई पराजित नहीं कर सकता॥
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मेरा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) मेरी आज्ञा मानने के लिए बाध्य हैं, क्योंकि वे परमात्मा के आधीन हैं, जिनका नित्य निरंतर निवास मेरे हृदय में है।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ दिसंबर २०२२

मेरी चेतना इस समय परमशिव की अनंतता और सम्पूर्ण सृष्टि से भी परे है ---

 ॐ नमः शिवाय विष्णु रूपाय शिव रूपाय विष्णवे। शिवस्य हृदयं विष्णु विष्णोश्च हृदयं शिवः॥

कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने, प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः॥
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः। तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥
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प्रिय निजात्मागण, मेरी चेतना इस समय परमशिव की अनंतता और सम्पूर्ण सृष्टि से भी परे है। यह भौतिक देहरूपी वाहन -- लोकयात्रा के लिए मिला था। संसार मुझे इस वाहन के रूप में ही जानता है जिस की क्षमता और स्वास्थ्य का अब ह्रास होने लगा है, अतः परमशिव मुझे लौकिक चेतना से शनैः शनैःअपनी अनंत शाश्वतता की ओर मोड़ रहे हैं।
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मेरा स्वभाव आध्यात्मिक है, अतः बचा-खुचा सारा लौकिक जीवन परमशिव के स्मरण, चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान में ही बीत जायेगा। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने जिस वीतरागता, स्थितप्रज्ञता, ब्राह्मी-स्थिति, अव्यभिचारिणी भक्ति, और समर्पण की बात की है, वही मेरा आदर्श है। इस समय परमशिव की कैवल्यावस्था की ओर अग्रसर हूँ।
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परमशिव स्वयं ही यह जीवन जी रहे हैं। इस जन्म से पूर्व भी वे ही मेरे साथ थे, इस जन्म के उपरांत भी वे ही मेरे साथ रहेंगे। वे ही माता-पिता, भाई-बहिन, सब संबंधियों, मित्रों और गुरु के रूप में आये। परमशिव रूप आप सब को नमन करता हूँ, जिन्होंने जीवन में मेरा साथ और अपना प्रेम दिया।
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ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ दिसंबर २०२४

यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ---

ध्यान-साधना का एकमात्र उद्देश्य है -- आत्म-साक्षात्कार यानि Self-Realization। एक बार परमात्मा की अनुभूति हो जाये तो साधक को उनसे परमप्रेम हो जाता है, और वह इधर-उधर अन्यत्र कहीं भी नहीं भागता। इस समय मध्यरात्रि है, और परमात्मा की चेतना में जो भी भाव आ रहे हैं, उन्हें ही यहाँ व्यक्त कर रहा हूँ।

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"मैं अनंतानांत समस्त सृष्टि और उससे भी परे जो कुछ भी सृष्ट और असृष्ट है, वह हूँ, और अपने परम ज्योतिर्मय रूप में सर्वत्र व्याप्त हूँ। सब जीवों में मैं ही उपासना कर रहा हूँ। पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म और सब नियम मेरी ही रचना है। मैं अनन्य हूँ। उत्तरायण और दक्षिणायन दोनों ही मेरे मन की कल्पना हैं। मैं उनसे बहुत परे हूँ।"
(टिप्पणी :-- आंतरिक उत्तरायण और दक्षिणायण -- यह साधनाजन्य अनुभूति का विषय है, बुद्धि का नहीं। अतः इस विषय पर और कुछ भी नहीं लिख रहा।)
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भगवान कहते हैं --
"अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥८:२१॥"
अर्थात् -- जो अव्यक्त अक्षर कहा गया है, वही परम गति (लक्ष्य) है। जिसे प्राप्त होकर (साधकगण) पुनः (संसार को) नहीं लौटते, वह मेरा परम धाम है॥
The wise say that the Unmanifest and Indestructible is the highest goal of all; when once That is reached, there is no return. That is My Blessed Home.
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भगवान कहते हैं --
"वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्॥८:२८॥"
अर्थात् -- योगी पुरुष यह सब (दोनों मार्गों के तत्त्व को) जानकर वेदाध्ययन, यज्ञ, तप और दान करने में जो पुण्य फल कहा गया है, उस सबका उल्लंघन कर जाता है और आद्य (सनातन), परम स्थान को प्राप्त होता है॥
The sage who knows this, passes beyond all merit that comes from the study of the scriptures, from sacrifice, from austerities and charity, and reaches the Supreme Primeval Abode."
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भगवान हमें अनात्मा से तादात्म्य हटाकर, मन को आत्मस्वरूप में एकाग्र करना सिखा रहे हैं। संसार में रहते हुए, और सांसारिक कार्य करते हुए भी सदा अक्षरपुरुष ब्रह्म के साथ अनन्य-भाव से तादात्म्य स्थापित कर आत्मज्ञान में स्थिर रहने का प्रयत्न हमें करते रहना चाहिए।
(इसके लिए साधना करनी पड़ती है)
यहाँ भगवान कहते हैं कि हमें हमारे में थोड़ी-बहुत अत्यल्प मात्रा में जो भी योग्यता है, हमें ध्यान-साधना का अभ्यास करना चाहिये। इससे हम सब फलों का उल्लंघन कर सकते हैं। इसके नित्य नियमित अभ्यास से विवेक और वैराग्य दोनों ही जागृत होते हैं। बाकी सब भगवान की कृपा पर निर्भर है। हमारे ऊपर भगवान की कृपा बनी रहे, इसका उपाय निरंतर करना चाहिए।
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मैं भगवान श्रीकृष्ण को नमन करता हूँ कि उनकी परम कृपा से ही यह सब लिख पाया, अन्यथा मुझमें कोई योग्यता नहीं है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ दिसंबर २०२४

ध्यान किसका किया जाता है?

 (प्रश्न) : ध्यान किसका किया जाता है?

(उत्तर) : ध्यान -- परमात्मा की ज्योतिर्मय अनंतता का ही किया जाता है।
"ब्रह्म" शब्द में सब समाहित हो जाते हैं। वे ही पुरुषोत्तम, वे ही परमशिव, और वे ही परमात्मा हैं। यह अनंत विस्तार, प्राण, ऊर्जा, और सम्पूर्ण अस्तित्व वे ही हैं। (ऊर्जा के कण व खंड, उनकी गति, प्रवाह और विभिन्न आवृतियों पर उनके स्पंदनों से ही इस भौतिक सृष्टि का निर्माण हुआ है)

महत्व केवल "परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूतियों" का है ---

नदियों का प्रवाह महासागर की ओर होता है। लेकिन एक बार महासागर में मिलने के पश्चात नदियों का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो जाता है। फिर महासागर का ही अवशेष रहता है। जो जलराशि महासागर से मिल गई हैं, वह बापस नदियों में नहीं जाना चाहती।
आध्यात्मिक साधना में महत्व केवल "परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूतियों" का है जो प्रेम और आनंद के रूप में अनुभूत और व्यक्त हो रही हैं। जिस साधना से परमात्मा की अनुभूति होती है, और हम परमात्मा को उपलब्ध होते हैं, केवल वे ही सार्थक है। महत्व परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूतियों का ही है। भगवान को सदा अपने समक्ष रखो और उनमें स्वयं का विलय कर दो। ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ दिसंबर २०२४

कोई भी शुभ कर्म करने वाला दुर्गति को प्राप्त नहीं होता है ---

कोई भी शुभ कर्म करने वाला दुर्गति को प्राप्त नहीं होता है; हे मेरे मन, स्वयं को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन मत कर --

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अब यह शरीर रहे या न रहे, इसका कोई महत्व नहीं है, महत्व एक ही बात का है -- ईश्वर की हर पल स्वयं में अभिव्यक्ति हो। अब यही मेरा कर्तव्य-कर्म है।
भगवान कहते हैं --
"अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः॥६:१॥"
श्रीभगवान् ने कहा -- जो पुरुष कर्मफल पर आश्रित न होकर कर्तव्य कर्म करता है, वह संन्यासी और योगी है, न कि वह जिसने केवल अग्नि का और क्रियायों का त्याग किया है॥
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मैं कोई संकल्प नहीं करता, परमात्मा को स्वयं के माध्यम से प्रवाहित ही होने देता हूँ; और कुछ नहीं करता। कर्म और शम ही मेरे साधन हैं। इस समय भगवान से मेरी एक ही प्रार्थना है --
"इस लोभ और तृष्णा से मुक्त कर, आप मुझे नित्य प्राप्त हों। मुझे आपकी सहायता चाहिये। मुझे निरंतर कूटस्थ-चैतन्य में रखो, मेरा अंतःकरण सर्वदा आत्मा में स्थिर रहे। आप ही मेरे परम लक्ष्य हो। मेरा चित्त आप में स्थित होकर सदा निःस्पृह रहे।" ॥ ॐ ॐ ॐ॥
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भगवान कहते हैं --
"सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥६:२९॥"
योगयुक्त अन्त:करण वाला और सर्वत्र समदर्शी योगी आत्मा को सब भूतों में और भूतमात्र को आत्मा में देखता है।।
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भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
"सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥६:३१॥"
जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
जो पुरुष एकत्वभाव में स्थित हुआ सम्पूर्ण भूतों में स्थित मुझे भजता है, वह योगी सब प्रकार से वर्तता हुआ (रहता हुआ) मुझमें स्थित रहता है॥
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अभ्यास और वैराग्य -- भगवान इन दोनों की ही आवश्यकता बताते हैं। वैराग्य तो बहुत सारे पुण्य कर्मों के फलों से प्राप्त होता है। यह भगवान का एक विशेष अनुग्रह है। अब भगवान के बिना एक पल भी नहीं रह सकते। जीवन की सबसे बड़ी और तुरंत आवश्यकता भगवान स्वयं हैं। हम निरंतर भगवान का ही अनुसंधान करें और भगवान में ही स्थित रहें। हमारा हरेक कर्म भगवान को समर्पित हो। अंत में यही कहूँगा --
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥१८:७८॥"
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"ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्ण मुदच्यते| पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवा वशिष्यते|"
ॐ सहनाववतु सहनौभुनक्तु सहवीर्यंकरवावहै तेजस्वि नावधीतमस्तु माविद्विषावहै|| ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः||
हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ दिसंबर २०२४

जिस की आज्ञा से यह सारी सृष्टि चल रही है ---

 जिस की आज्ञा से यह सारी सृष्टि चल रही है, उसके साथ एक होकर ही हम असत्य और अंधकार की शक्तियों को पराभूत कर सकते हैं। बीच में कोई कामना नहीं आनी चाहिए।

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एक ही तड़प है मन में -- भगवान के निष्ठावान ज्ञानी भक्तों के दर्शन हों। परमात्मा में निजात्मा का विलय पूर्ण हो। हमारी अभीप्सा केवल परमात्मा को उपलब्ध होने की ही हो, उससे कम कुछ भी नहीं। यह मनुष्य जन्म तभी सार्थक होगा जब इसमें हम परमात्मा को उपलब्ध हो जायें। हमारा प्रथम लक्ष्य ईश्वर की उपलब्धि हो। ये सूर्य, चंद्र, तारे, वायु और सारी प्रकृति उनकी बात मानती है। जब हमारा अन्तःकरण (मन बुद्धि चित्त अहंकार) हमारी बात मानना आरंभ कर दे, तब यही मानिये कि ईश्वर भी मिलने ही वाले हैं।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ दिसंबर २०२४

पाकिस्तान का अंत समीप है ---

 पाकिस्तान का अंत समीप है। वर्तमान घटनाक्रम यदि चलता रहा तो एक-डेढ़ वर्ष के भीतर-भीतर पाकिस्तान टूट कर बिखर जायेगा। पाकिस्तान का विनाश भारत द्वारा नहीं, अफगानिस्तान और ईरान के द्वारा होगा।

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अब पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच युद्ध लगभग आरंभ हो गया है, जो कभी भी भयानक रूप ले सकता है। अफगानिस्तान ने डूरंड रेखा को मानने से मना कर दिया था और पाकिस्तान के सारे अफ़गान बहुल क्षेत्रों पर अपना दावा ठोक रखा है। अब तालीबानी लड़ाके पूरे पाकिस्तान को ही अपने अधिकार में लेना चाहते हैं।
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यदि अमेरिका का ईरान से युद्ध हुआ तो ईरान के विरुद्ध अमेरिका की ओर से भाड़े पर पाकिस्तान की भाड़े की सेना लड़ेगी। पाकिस्तानी फौज को अमेरिका इसके लिए अग्रिम धन दे चुका है। पाकिस्तान ईरान को धोखा देगा।
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भविष्य में चीन और भारत के मध्य भी एक निर्णायक युद्ध निश्चित रूप से होगा। चीन भारत को धोखा दे रहा है, और चुपचाप भारत पर आक्रमण की तैयारियां कर रहा है। चीन कभी सफल नहीं होगा। उसकी सेना सबसे अधिक भ्रष्ट, अक्षम और बेईमान सेना है। आने वाले दिनों में इस तरह के अनेक घटनाक्रम होंगे। गूगल समाचार (विदेश) पर जाकर "अफगानिस्तान पाकिस्तान युद्ध" टाइप कर के सर्च करें। पाक-अफ़गान युद्ध के सारे समाचार मिल जायेंगे।
विश्व की कोई भी समाचार संस्था निष्पक्ष नहीं है। सब अपने मालिकों के हित देखती हैं और उन्हीं के निर्देशों पर चलती हैं।
२७ दिसंबर २०२४

एक बड़े से बड़ा ब्रह्मज्ञान --

 एक बड़े से बड़ा ब्रह्मज्ञान -- कृष्ण यजुर्वेद में श्वेताश्वतर उपनिषद के छठे अध्याय के पंद्रहवें -- इस महाचिन्मय हंसवती ऋक मंत्र में है। इस की एक विधि है जिसका संधान गुरु प्रदत्त विधि से उन्हीं के आदेशानुसार करना पड़ता है। "हंस" शब्द का अर्थ परमात्मा के लिए व्यवहृत हुआ है। परमात्मा को अपना स्वरूप जानने पर ही जीव -- मृत्यु का अतिक्रम कर पाता है। इसका अन्य कोई उपाय नहीं है।

"एको हंसो भुवनस्यास्य मध्ये स एवाग्निः सलिले संनिविष्टः।
तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥" (श्वेताश्वतरोपनिषद्-६/१५)
इस सम्पूर्ण विश्व के अन्तर में 'एक' 'हंसस्वरूपी आत्मसत्ता' है एवं 'वह' अग्निस्वरूप' है जो जल की अतल गहराई में स्थित है। 'उसका' ज्ञान प्राप्त करके व्यक्ति मृत्यु की पकड़ से परे चला जाता है तथा इस महद्-गति के लिए दूसरा कोई मार्ग नहीं है। (अस्य भुवनस्य मध्ये एकः हंसः। सः एव सलिले संनिविष्टः अग्निः। तम् एव विदित्वा मृत्युम् अत्येति अयनाय अन्यः पन्थाः न विद्यते॥)
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यह ब्रह्मविद्या का सार है। लेकिन यह व्यावहारिक रूप से स्वयं पर अवतृत होता है हरिःकृपा से ही। मुझे इसका ज्ञान पिछले ४५ वरसों से था, लेकिन इसकी प्रत्यक्ष अनुभूतियाँ अभी होनी आरंभ हुई हैं। पीछे की अनुभूतियाँ अब भूतकाल की हो गयी हैं, जिनका कोई महत्व नहीं रहा है। वर्तमान ही परमात्मा है। अब तो स्थिति स्पष्ट है। इससे जुड़ी अन्य ब्रह्म विद्याएँ भी स्पष्ट हो रही हैं।
अब तो सब कुछ सत्यनिष्ठा से किए गये स्वयं के समर्पण पर निर्भर है। जितना गहरा और अधिक समर्पण होगा उतनी ही अधिक परमात्मा की अभिव्यक्ति भी निज जीवन में होगी।
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भगवती की भी असीम कृपा है। जीवन में जो भी होगा वह शुभ ही शुभ होगा। अब परमात्मा दूर नहीं है, उन्हीं के हृदय में मैं, और मेरे हृदय में उनका निवास है।
सभी के हृदयों में उन का प्राकट्य हो। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ दिसंबर २०२४

भगवान ही अद्वैत और द्वैत, बंधन और मुक्ति, सत् और असत्, ज्ञान और अज्ञान, व इनसे परे की अनुभूति करने वाले हैं, हम नहीं ---

भगवान से हमारी पृथकता का बोध मुख्यतः हमारे लोभ व अहंकार के कारण है, जिनसे पूरी तरह मुक्त होकर, शरणागति व समर्पण के द्वारा सर्वप्रथम हम भगवान को प्राप्त करें। भगवत्-प्राप्ति ही ज्ञान है, यही कर्म है, और यही संन्यास है। कल कृष्ण यजुर्वेद के श्वेताश्वर उपनिषद के जिस महा चिन्मय "हंसवती ऋक मंत्र" की चर्चा की थी, वह हमें मुक्ति का मार्ग दिखाता है। गुरुकृपा कहो या हरिः कृपा कहो, से ही इसका रहस्य मुझे समझ में आया था। साधना के लिए संस्कृत भाषा में इसका उच्चारण "हं सः" है, बंगला भाषा में "होंग सौ" और अङ्ग्रेज़ी में "Hong-Sau" है। साधना के लिए संस्कृत भाषा का ही प्रयोग करेंगे। गुरु की आज्ञा से मैं इसका उच्चारण "हं सः" ही करता हूँ।

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इस साधना को ही हिन्दी में "अजपा-जप" और "हंसः योग" कहते हैं। यह भगवत्-प्राप्ति का मार्ग है। आप कितना भी जप करते हों, कितनी भी भक्ति करते हों, लेकिन अंततः इस मार्ग पर आना ही पड़ेगा।
रामचरितमानस के उत्तर कांड में इसका वर्णन इस प्रकार से है ---
"सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा॥
आत्म अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा॥
भावार्थ -- 'सोऽहमस्मि' (वह ब्रह्म मैं हूँ) यह जो अखंड (तैलधारावत कभी न टूटने वाली) वृत्ति है, वही (उस ज्ञानदीपक की) परम प्रचंड दीपशिखा (लौ) है। (इस प्रकार) जब आत्मानुभव के सुख का सुंदर प्रकाश फैलता है, तब संसार के मूल भेद रूपी भ्रम का नाश हो जाता है॥
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इसे हंसानुसंधान भी कहते हैं। ब्रह्म-ज्योति के दर्शन भी इसी से होते हैं, और नादानुसंधान भी इसी से समझ में आता है। इसकी महिमा अनंत है। यह सारी राजयोग की साधनाओं का मूल है। निष्ठावान साधकों को इसे सिखाने की व्यवस्था स्वयं भगवान करते हैं। इस लेख को मैं लंबा नहीं करना चाहता इसलिए यहीं विराम दे रहा हूँ। साधना के विषय में फिर कभी चर्चा करेंगे। मुझे इसी जीवन में एक-दो नहीं, सैंकड़ों साधक मिले हैं जो यह साधना करते हैं। लाखों साधक इसकी साधना नित्य करते हैं। जिसमें भी ब्रह्म-जिज्ञासा या वेदान्त-वासना है, वह इस मार्ग पर निश्चित ही आयेगा। आगे से ब्रह्म विद्या की ही चर्चा करेंगे।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२९ दिसंबर २०२४

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ---

भगवान को जो जैसे भजते हैं, भगवान उन पर वैसा ही अनुग्रह करते हैं। भगवान को जो तत्त्व रूप से जान लेता है, वह कभी भी कर्मों से नहीं बँधता। वह कर्मफलों से मुक्त, और भगवान का ही एक दूसरा रूप है। अब प्रश्न यह उठता है -- क्या हमारे कर्म -- कामना और संकल्प से मुक्त हो सकते हैं? क्या हम फल की आसक्ति का त्याग कर सकते हैं? यदि हाँ तो कैसे?

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इसका उत्तर भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के एक मंत्र में दिया है। वह मंत्र सम्पूर्ण वेदान्त दर्शन का सार है। उस मंत्र का भाव यदि जीवन में उतर जाये तो हमें ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। उस प्रसिद्ध मंत्र को हमने भोजन-मंत्र बना दिया है। न तो हम इसका अर्थ जानते हैं और न जानने का प्रयास करते हैं। भोजन से पूर्व उसको बोल देना एक औपचारिकता मात्र बन गई है।
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आज प्रातः उठते ही मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने जलते हुए कोयलों से भरी हुई एक परात मेरे सिर पर रख दी है। उस अत्यंत पीड़ादायक दाहक अग्नि को मैंने अपने सामने रखा और स्वयं उसमें बैठ कर भस्म हो रहा हूँ। मैं स्वयं ही स्वयं को भस्म कर रहा हूँ, जो पीड़ादायक नहीं, बल्कि सच्चिदानंद की अनुभूति है।
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यहाँ भस्म करने वाला पुरोहित भी ब्रह्म है, जो भस्म हो रहा है वह शाकल्य हवि भी ब्रह्म है, जिसमें भस्म हो रहा है वह अग्नि भी ब्रह्म है, वह श्रुवा, सारी आहुतियाँ व सारे मंत्र भी ब्रह्म हैं, और यज्ञ के जिस देवता को ये आहुतियाँ दी जा रही हैं, वह देवता भी ब्रह्म है। अंततः सार रूप में यह शाश्वत सर्वव्यापी आत्मा ही ब्रह्म है।
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इस मंत्र में सम्पूर्ण वेदान्त का सार है, जिसे भगवान की महती अनुकंपा से ही समझा जा सकता है। चाहें तो आप भी इसे समझ सकते हैं, थोड़ा प्रयास कीजिये। भगवान की विशेष कृपा आप पर निश्चित रूप से होगी। यज्ञ के देवता जिन्हें आहुति दी जा रही है, अग्नि, शाकल्य, और यज्ञकर्ता -- ये सभी ब्रह्म हैं। हमारा प्रत्येक कर्म एक यज्ञ है, इसलिये अज्ञान से उत्पन्न आत्मविषयक संशय को ज्ञानरूपी खड़ग से काटकर भगवान को अर्पित कर दीजिये।
गीता का वह महा चिन्मय शाश्वत मंत्र है --
"ॐ ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥४:२४॥"
अर्थात् -- अर्पण (अर्थात् अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है; ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है, वह भी ब्रह्म ही है। इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है​॥
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जीवन का हर पल एक यज्ञ है, और हमारी हर साँस एक आहुति है। भगवान ने यहाँ ज्ञान-यज्ञ की श्रेष्ठता को प्रतिपादित किया है। भगवान कहते हैं कि "सारी सृष्टि को अपने आत्मरूप में, और आत्मरूप को सम्पूर्ण सृष्टि में देखें।"
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यहाँ भगवान ने अनायास ही अपना एक बहुत बड़ा रहस्य अनावृत कर दिया है। यह भगवान को पाने का राजमार्ग है। भगवान कहते हैं कि जैसे प्रज्जवलित अग्नि -- ईन्धन को भस्मसात् कर देती है, वैसे ही, हे अर्जुन ! यह ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्मसात् कर देती है॥
भगवान में हमारी पूर्ण श्रद्धा हो। श्रद्धावान व्यक्ति को ही भगवान मिलते है। अज्ञानी, श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष नष्ट हो जाते हैं।
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जिसका सम्पूर्ण कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद हो गया है और ज्ञान के द्वारा जिसके सम्पूर्ण संशयोंका नाश हो गया है, ऐसे स्वरूप-परायण मनुष्यको कर्म नहीं बाँधते। कर्मयोग के बारे में बहुत अधिक भ्रांतियाँ हैं। आगे से जब भी समय मिलेगा तब ब्रह्मज्ञान के साथ साथ कर्मयोग पर भी चर्चा करेंगे।
आप सब में भगवान वासुदेव को नमन !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० दिसंबर २०२४

"निशाचर-रात्रि" (ग्रेगोरियन आंग्ल नववर्ष) की अभी से शुभ कामनाएँ ---

मेरी तो प्रतिदिन होली, और प्रतिरात्री दीपावली होती है। लेकिन निशाचर-रात्री प्रायः शुभ नहीं होती, बच कर रहें। इस रात्रि को निशाचर लोग मदिरापान, अभक्ष्य भोजन, फूहड़ नाच गाना, और अमर्यादित आचरण करते हैं। "निशा" रात को कहते हैं, और "चर" का अर्थ होता है चलना-फिरना या खाना। जो लोग रात को अभक्ष्य आहार लेते हैं, या रात को अनावश्यक घूम-फिर कर आवारागर्दी करते हैं, वे निशाचर हैं। रात्रि को या तो पुलिस ही गश्त लगाती है, या चोर-डाकू व तामसिक लोग ही घूमते-फिरते हैं। जिस रात भगवान का भजन नहीं होता, वह राक्षस-रात्रि है, और जिस रात भगवान का भजन हो जाए वह देव-रात्रि है।

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३१ दिसंबर की रात को विश्व के अधिकांश लोग निशाचर बन जाते हैं, और आंग्ल नववर्ष का आगमन बहुत अधिक तामसिक होता है। उस समय भगवान का भजन-कीर्तन, या ध्यान करें। लगभग १०-१२ वर्षों पूर्व एक बार इस रात्रि को श्मशान भूमि में एक विरक्त महात्मा के साथ भगवान के ध्यान, कीर्तन आदि में मनाया था। अब कहीं जाने का साहस नहीं है।
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३१ दिसंबर की मध्य रात्रि से ईसाई ग्रेगोरियन कलेंडर के अनुसार नववर्ष आरंभ हो जाएगा। मेरी व्यक्तिगत मान्यताएँ चाहे कुछ भी हों, मैं इस नववर्ष की उपेक्षा नहीं कर सकता, क्योंकि सारे विश्व में -- पूर्व साम्यवादी देशों, व मुस्लिम देशों आदि में भी इसी दिन की मध्य रात्रि से ही नववर्ष मनाया जाता है।
अपनी निजी मान्यताओं के कारण मैं तो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन भगवती दुर्गा की उपासना के साथ घट-स्थापना और उपवास कर के भक्तिभाव से भारतीय नववर्ष मनाता हूँ।
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मंगलमय शुभ कामनाएँ। ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर
३० दिसंबर २०२४

भगवान की दृष्टि में हम वह ही हैं जो हम अपने मन में चिंतन करते हैं ---

 भगवान की दृष्टि में हम वह ही हैं जो हम अपने मन में चिंतन करते हैं ---

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साधु सावधान !! निरंतर वासनात्मक विषयों के चिंतन से हम भगवान की दृष्टि में तो गिरते ही हैं, संसार की दृष्टि में भी मिथ्याचारी दंभी बन जाते हैं। एक बहुत बड़े खतरे की ओर आपका ध्यान खींचना चाहता हूँ। यह वास्तव में एक बड़ा भयावह खतरा है, अतः इसे बड़े ध्यान से पढ़ें।
भगवान कहते हैं --
"कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥३:६॥"
अर्थात् - जो मूढ बुद्धि पुरुष कर्मेन्द्रियों का निग्रह कर इन्द्रियों के भोगों का मन से स्मरण (चिन्तन) करता रहता है वह मिथ्याचारी (दम्भी) कहा जाता है॥
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यदि कोई साधक भक्त अपनी सम्पूर्ण इंद्रियों को हठपूर्वक रोककर मन ही मन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता है, तो भगवान की दृष्टि में वह साधक मूढ़, पाखंडी, और मिथ्याचारी है। शरीर से अनैतिक और अपराध पूर्ण कर्म करने की अपेक्षा मन से उनका चिन्तन करते रहना अधिक हानिकारक है। मन जिस विचार को एक बार पकड़ लेता है, उसे बार बार दोहराता है। एक ही विचार के निरन्तर चिन्तन से मन में उसका दृढ़ वासनात्मक संस्कार और स्वभाव बन जाता है। फिर वैसा ही उसका कर्म हो जाता है। जो व्यक्ति बाह्य रूप से नैतिक और आदर्शवादी होने का प्रदर्शन करते हुये मन में निम्न स्तर की वृत्तियों में रहता है, भगवान की दृष्टि में वह ढोंगी है।
भगवान कहते हैं --
"यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥३:७॥"
अर्थात् -- परन्तु हे अर्जुन जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ कर्मेंन्द्रियों से कर्मयोग का आचरण करता है वह श्रेष्ठ है॥
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और अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है। भगवान ने आप सब को विवेक दिया है। अपने विवेक के प्रकाश में सब काम कीजिये।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ
कृपा शंकर
३१ दिसंबर २०२४

हम चाहे कितने भी ग्रन्थ पढ़ लें, कितने भी प्रवचन और उपदेश सुन लें, इनसे सिर्फ प्रेरणा मिल सकती है, भगवान नहीं ---

हम चाहे कितने भी ग्रन्थ पढ़ लें, कितने भी प्रवचन और उपदेश सुन लें, इनसे सिर्फ प्रेरणा मिल सकती है, भगवान नहीं। भगवान से प्रेम और उनका गहनतम ध्यान, और उस की निरंतरता -- बस ये ही प्रभु तक पहुंचा सकते है।

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भारत का पुनरोदय अपने परम ज्योतिर्मय मूल स्वरूप में हो। भारत की प्राचीन 'शिक्षा' और 'कृषि' व्यवस्था पुनः स्थापित हो। सब तरह का विजातीय प्रभाव भारत से समाप्त हो। किसी भी तरह के असत्य का अंधकार भारत में न रहे। इसके लिए सूक्ष्म दैवीय शक्तियों का आवाहन, और परमशिव से निरंतर प्रार्थना करता हूँ।
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आज ३१ दिसंबर की निशाचर-निशा है। निशाचरों वाले काम न करें, और सब तरह की बुराइयों से बच कर रहें। आनंद हमारा स्वभाव है, जिसका स्त्रोत परमात्मा है। परमात्मा का स्मरण, चिंतन, मनन, निदिध्यासन, ध्यान और भजन करें। आप आनंद से भर जाएँगे। जो क्रियायोग साधना करते हैं वे रात्रि में यथासंभव अधिकाधिक समय तक भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण का ध्यान करें। जो भगवती श्रीविद्या के उपासक हैं, वे अधिकाधिक समय तक महात्रिपुरसुंदरी श्रीललिता की उपासना करें। अपने अपने इष्ट देवी-देवताओं की खूब उपासना करें। सब तरह की बुराइयों से रक्षा होगी, और आपका परम कल्याण होगा।
ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ दिसंबर २०२४

प्रतिकूलताओं में अनुकूलता ---

भगवान की कृपा ही हमारी अनुकूलता है। हमें उनका स्मरण हो रहा है -- यह उनकी बहुत बड़ी कृपा है, अन्यथा किसी भी साधक के लिए साधना हेतु परिस्थितियाँ कभी भी अनुकूल नहीं होतीं। प्रतिकूलताओं में ही सारी आध्यात्मिक साधनाओं का आरंभ करना पड़ता है। मन में भरी हुई अति सूक्ष्म वासनाएँ -- सबसे बड़ी बाधाएँ हैं, जो कभी पकड़ में नहीं आतीं। ये सूक्ष्म वासनाएँ ही चित्त की वृत्तियाँ हैं।

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हमारे चंचल प्राणों की चंचलता समाप्त होने पर हमारा मन भी शांत हो जाता है। मन के शांत होने पर परिस्थितियाँ भी अनुकूल हो जाती हैं। अन्यथा परिस्थितियाँ कभी भी अनुकूल नहीं होतीं।
प्राण स्वयं को स्थूल रूप से श्वास-प्रश्वास के रूप में व्यक्त करता है। इसीलिए हम ध्यान साधना का आरंभ साँसों पर ध्यान के द्वारा करते हैं। मंत्र जप भी प्राण शक्ति के द्वारा ही संभव हो सकता है। यथासंभव अधिकाधिक अभ्यास और वैराग्य के द्वारा भगवान का चिंतन निरंतर करते रहना चाहिए।
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पात्रतानुसार आगे का मार्ग-दर्शन स्वयं भगवान किसी न किसी रूप में करेंगे। यह उन का आश्वासन है। भगवान हमारा सिर्फ प्रेमभाव (भक्ति) ही देखते हैं। बिना प्रेम के हम एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ दिसंबर २०२३