भगवान को जो जैसे भजते हैं, भगवान उन पर वैसा ही अनुग्रह करते हैं। भगवान को जो तत्त्व रूप से जान लेता है, वह कभी भी कर्मों से नहीं बँधता। वह कर्मफलों से मुक्त, और भगवान का ही एक दूसरा रूप है। अब प्रश्न यह उठता है -- क्या हमारे कर्म -- कामना और संकल्प से मुक्त हो सकते हैं? क्या हम फल की आसक्ति का त्याग कर सकते हैं? यदि हाँ तो कैसे?
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इसका उत्तर भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के एक मंत्र में दिया है। वह मंत्र सम्पूर्ण वेदान्त दर्शन का सार है।
उस मंत्र का भाव यदि जीवन में उतर जाये तो हमें ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। उस प्रसिद्ध मंत्र को हमने भोजन-मंत्र बना दिया है। न तो हम इसका अर्थ जानते हैं और न जानने का प्रयास करते हैं। भोजन से पूर्व उसको बोल देना एक औपचारिकता मात्र बन गई है।
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आज प्रातः उठते ही मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने जलते हुए कोयलों से भरी हुई एक परात मेरे सिर पर रख दी है। उस अत्यंत पीड़ादायक दाहक अग्नि को मैंने अपने सामने रखा और स्वयं उसमें बैठ कर भस्म हो रहा हूँ। मैं स्वयं ही स्वयं को भस्म कर रहा हूँ, जो पीड़ादायक नहीं, बल्कि सच्चिदानंद की अनुभूति है।
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यहाँ भस्म करने वाला पुरोहित भी ब्रह्म है, जो भस्म हो रहा है वह शाकल्य हवि भी ब्रह्म है, जिसमें भस्म हो रहा है वह अग्नि भी ब्रह्म है, वह श्रुवा, सारी आहुतियाँ व सारे मंत्र भी ब्रह्म हैं, और यज्ञ के जिस देवता को ये आहुतियाँ दी जा रही हैं, वह देवता भी ब्रह्म है। अंततः सार रूप में यह शाश्वत सर्वव्यापी आत्मा ही ब्रह्म है।
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इस मंत्र में सम्पूर्ण वेदान्त का सार है, जिसे भगवान की महती अनुकंपा से ही समझा जा सकता है। चाहें तो आप भी इसे समझ सकते हैं, थोड़ा प्रयास कीजिये। भगवान की विशेष कृपा आप पर निश्चित रूप से होगी। यज्ञ के देवता जिन्हें आहुति दी जा रही है, अग्नि, शाकल्य, और यज्ञकर्ता -- ये सभी ब्रह्म हैं। हमारा प्रत्येक कर्म एक यज्ञ है, इसलिये अज्ञान से उत्पन्न आत्मविषयक संशय को ज्ञानरूपी खड़ग से काटकर भगवान को अर्पित कर दीजिये।
गीता का वह महा चिन्मय शाश्वत मंत्र है --
"ॐ ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥४:२४॥"
अर्थात् -- अर्पण (अर्थात् अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है; ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है, वह भी ब्रह्म ही है। इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है॥
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जीवन का हर पल एक यज्ञ है, और हमारी हर साँस एक आहुति है। भगवान ने यहाँ ज्ञान-यज्ञ की श्रेष्ठता को प्रतिपादित किया है। भगवान कहते हैं कि "सारी सृष्टि को अपने आत्मरूप में, और आत्मरूप को सम्पूर्ण सृष्टि में देखें।"
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यहाँ भगवान ने अनायास ही अपना एक बहुत बड़ा रहस्य अनावृत कर दिया है। यह भगवान को पाने का राजमार्ग है। भगवान कहते हैं कि जैसे प्रज्जवलित अग्नि -- ईन्धन को भस्मसात् कर देती है, वैसे ही, हे अर्जुन ! यह ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्मसात् कर देती है॥
भगवान में हमारी पूर्ण श्रद्धा हो। श्रद्धावान व्यक्ति को ही भगवान मिलते है। अज्ञानी, श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष नष्ट हो जाते हैं।
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जिसका सम्पूर्ण कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद हो गया है और ज्ञान के द्वारा जिसके सम्पूर्ण संशयोंका नाश हो गया है, ऐसे स्वरूप-परायण मनुष्यको कर्म नहीं बाँधते। कर्मयोग के बारे में बहुत अधिक भ्रांतियाँ हैं। आगे से जब भी समय मिलेगा तब ब्रह्मज्ञान के साथ साथ कर्मयोग पर भी चर्चा करेंगे।
आप सब में भगवान वासुदेव को नमन !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० दिसंबर २०२४