Tuesday, 31 December 2024

भगवान ही अद्वैत और द्वैत, बंधन और मुक्ति, सत् और असत्, ज्ञान और अज्ञान, व इनसे परे की अनुभूति करने वाले हैं, हम नहीं ---

भगवान से हमारी पृथकता का बोध मुख्यतः हमारे लोभ व अहंकार के कारण है, जिनसे पूरी तरह मुक्त होकर, शरणागति व समर्पण के द्वारा सर्वप्रथम हम भगवान को प्राप्त करें। भगवत्-प्राप्ति ही ज्ञान है, यही कर्म है, और यही संन्यास है। कल कृष्ण यजुर्वेद के श्वेताश्वर उपनिषद के जिस महा चिन्मय "हंसवती ऋक मंत्र" की चर्चा की थी, वह हमें मुक्ति का मार्ग दिखाता है। गुरुकृपा कहो या हरिः कृपा कहो, से ही इसका रहस्य मुझे समझ में आया था। साधना के लिए संस्कृत भाषा में इसका उच्चारण "हं सः" है, बंगला भाषा में "होंग सौ" और अङ्ग्रेज़ी में "Hong-Sau" है। साधना के लिए संस्कृत भाषा का ही प्रयोग करेंगे। गुरु की आज्ञा से मैं इसका उच्चारण "हं सः" ही करता हूँ।

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इस साधना को ही हिन्दी में "अजपा-जप" और "हंसः योग" कहते हैं। यह भगवत्-प्राप्ति का मार्ग है। आप कितना भी जप करते हों, कितनी भी भक्ति करते हों, लेकिन अंततः इस मार्ग पर आना ही पड़ेगा।
रामचरितमानस के उत्तर कांड में इसका वर्णन इस प्रकार से है ---
"सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा॥
आत्म अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा॥
भावार्थ -- 'सोऽहमस्मि' (वह ब्रह्म मैं हूँ) यह जो अखंड (तैलधारावत कभी न टूटने वाली) वृत्ति है, वही (उस ज्ञानदीपक की) परम प्रचंड दीपशिखा (लौ) है। (इस प्रकार) जब आत्मानुभव के सुख का सुंदर प्रकाश फैलता है, तब संसार के मूल भेद रूपी भ्रम का नाश हो जाता है॥
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इसे हंसानुसंधान भी कहते हैं। ब्रह्म-ज्योति के दर्शन भी इसी से होते हैं, और नादानुसंधान भी इसी से समझ में आता है। इसकी महिमा अनंत है। यह सारी राजयोग की साधनाओं का मूल है। निष्ठावान साधकों को इसे सिखाने की व्यवस्था स्वयं भगवान करते हैं। इस लेख को मैं लंबा नहीं करना चाहता इसलिए यहीं विराम दे रहा हूँ। साधना के विषय में फिर कभी चर्चा करेंगे। मुझे इसी जीवन में एक-दो नहीं, सैंकड़ों साधक मिले हैं जो यह साधना करते हैं। लाखों साधक इसकी साधना नित्य करते हैं। जिसमें भी ब्रह्म-जिज्ञासा या वेदान्त-वासना है, वह इस मार्ग पर निश्चित ही आयेगा। आगे से ब्रह्म विद्या की ही चर्चा करेंगे।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२९ दिसंबर २०२४

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