Tuesday, 31 December 2024

हे अनंत, हे विराट, हे परमात्मा, तुम अब और अधिक छिप नहीं सकते ---

 हे अनंत, हे विराट, हे परमात्मा, तुम अब और अधिक छिप नहीं सकते ---

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तुम्हें इसी क्षण प्रकट होना ही पड़ेगा| तुमने हमें जहाँ भी रखा है वहीं तुम्हें आना ही पड़ेगा| अब शीघ्रातिशीघ्र स्वयं को प्रकट करो| तुम्हारे बिना अब और अधिक जीना संभव नहीं है| हमें प्रत्यक्ष साक्षात्कार चाहिए, कोई दार्शनिक अवधारणा या ज्ञान नहीं| अपनी माया के आवरण से बाहर आओ और विक्षेप उत्पन्न मत करो| अंततः हो तो तुम भक्त-वत्सल ही| अपनी संतानों की करुण पुकार सुनकर तुम को आना ही पड़ेगा|
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तुम्हीं साधक हो, तुम्हीं साधना हो और तुम्ही साध्य हो| तुम ही तुम हो, मैं नहीं| हे सच्चिदानंद, तुम्हें प्रणाम ! अब विलंब मत करो|
अन्यथा शरणं नास्ति, त्वमेव शरणं मम| तस्मात्कारुण्यभावेन, रक्षस्व परमेश्वर||
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ब्रह्मानंदं परम सुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं| द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम्||
एकं नित्यं विमलंचलं सर्वधीसाक्षीभूतम्| भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि||
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वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च ।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व ।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वंसर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ॥
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बाहर चाहे कितना भी अंधकार हो, मेरी चेतना में तो परम ज्योतिर्मय परमात्मा ही स्वयं हैं| आज की पूरी रात्रि ही नहीं, अवशिष्ट जीवन का हर पल उन्हीं को समर्पित है| उनके सिवाय अन्य कोई है ही नहीं, मैं भी नहीं|
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति| तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति||६:३०||
अर्थात् "जो पुरुष, मुझे सर्वत्र देखता है, और सब को मुझ में देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता, और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता||"
सारा जड़ और चेतन वे ही हैं| उनके सिवाय कोई अन्य है ही नहीं| यह मैं और मेरापन -- एक मिथ्या अहंकार है|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! हरिः ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !! .
हम जहाँ हैं, वहीं भगवान हैं, वहीं सारे तीर्थ हैं, वहीं सारे संत-महात्मा हैं, कहीं भी किसी के भी पीछे-पीछे नहीं भागना है| भगवान हैं, यहीं हैं, इसी समय हैं, और सर्वदा हैं| वे ही इन नासिकाओं से सांस ले रहे हैं, वे ही इस हृदय में धड़क रहे हैं, वे ही इन आँखों से देख रहे हैं, और इस शरीर-महाराज और मन, बुद्धि व चित्त के सारे कार्य वे ही संपादित कर रहे हैं| उनके सिवाय अन्य किसी का कोई अस्तित्व नहीं है| बाहर की भागदौड़ एक मृगतृष्णा है, बाहर कुछ भी नहीं मिलने वाला| परमात्मा की अनुभूति निज कूटस्थ-चैतन्य में ही होगी|
बाहर बहुत भयंकर ठंड का प्रकोप चल रहा है| विगत रात्री में तापमान -४ डिग्री सेल्सियस तक गिर गया था| अभी भी बर्फीली हवायें चल रही हैं| ऐसे मौसम में न तो कहीं जाना है और न किसी से मिलना-जुलना है| घर पर ही कुछ व्यायाम करेंगे और भगवान का यथासंभव अधिकाधिक ध्यान करेंगे| सभी को शुभ कामनायें व नमन !
हम चाहे कितने भी ग्रन्थ पढ़ लें, कितने भी प्रवचन और उपदेश सुन लें, कितने भी साधुओं का संग करते रहें, कितना भी दान-पुण्य करें; इनसे परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती| इनसे हम पुण्यवान तो होंगे, कुछ अच्छे कर्म भी हमारे खाते में जुड़ेंगे; और कुछ नहीं|

वीतरागता यानि राग-द्वेष रूपी द्वन्द्वों और अहंकार से मुक्त होना हमारी पहली आवश्यकता है| इसके लिए भगवान कहते हैं

"संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः| योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति||५:६||"
अर्थात् हे महाबाहो ! योग के बिना संन्यास प्राप्त होना कठिन है; योगयुक्त मननशील पुरुष परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त होता है|| (Without concentration, O Mighty Man, renunciation is difficult. But the sage who is always meditating on the Divine, before long shall attain the Absolute..)

सत्यनिष्ठा से भक्ति, समर्पण और ध्यान-साधना तो स्वयं को ही करनी होगी| भूख लगने पर भोजन स्वयं को ही करना पड़ता है| आज व कल इन दो दिनों में गीता के पांचवें अध्याय का स्वाध्याय और भगवान का खूब ध्यान करें|

ॐ नमः शम्भवाय च, मयोभवाय च, नमः शंकराय च, मयस्कराय च, नमः शिवाय च, शिवतराय च|| ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||कृपा शंकर ३१ दिसंबर २०२०

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