भगवान की दृष्टि में हम वह ही हैं जो हम अपने मन में चिंतन करते हैं ---
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साधु सावधान !! निरंतर वासनात्मक विषयों के चिंतन से हम भगवान की दृष्टि में तो गिरते ही हैं, संसार की दृष्टि में भी मिथ्याचारी दंभी बन जाते हैं। एक बहुत बड़े खतरे की ओर आपका ध्यान खींचना चाहता हूँ। यह वास्तव में एक बड़ा भयावह खतरा है, अतः इसे बड़े ध्यान से पढ़ें।
भगवान कहते हैं --
"कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
अर्थात् - जो मूढ बुद्धि पुरुष कर्मेन्द्रियों का निग्रह कर इन्द्रियों के भोगों का मन से स्मरण (चिन्तन) करता रहता है वह मिथ्याचारी (दम्भी) कहा जाता है॥
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यदि कोई साधक भक्त अपनी सम्पूर्ण इंद्रियों को हठपूर्वक रोककर मन ही मन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता है, तो भगवान की दृष्टि में वह साधक मूढ़, पाखंडी, और मिथ्याचारी है। शरीर से अनैतिक और अपराध पूर्ण कर्म करने की अपेक्षा मन से उनका चिन्तन करते रहना अधिक हानिकारक है। मन जिस विचार को एक बार पकड़ लेता है, उसे बार बार दोहराता है। एक ही विचार के निरन्तर चिन्तन से मन में उसका दृढ़ वासनात्मक संस्कार और स्वभाव बन जाता है। फिर वैसा ही उसका कर्म हो जाता है। जो व्यक्ति बाह्य रूप से नैतिक और आदर्शवादी होने का प्रदर्शन करते हुये मन में निम्न स्तर की वृत्तियों में रहता है, भगवान की दृष्टि में वह ढोंगी है।
भगवान कहते हैं --
"यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥३:७॥"
अर्थात् -- परन्तु हे अर्जुन जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ कर्मेंन्द्रियों से कर्मयोग का आचरण करता है वह श्रेष्ठ है॥
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और अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है। भगवान ने आप सब को विवेक दिया है। अपने विवेक के प्रकाश में सब काम कीजिये।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ
कृपा शंकर
३१ दिसंबर २०२४
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