एक बड़े से बड़ा ब्रह्मज्ञान -- कृष्ण यजुर्वेद में श्वेताश्वतर उपनिषद के छठे अध्याय के पंद्रहवें -- इस महाचिन्मय हंसवती ऋक मंत्र में है। इस की एक विधि है जिसका संधान गुरु प्रदत्त विधि से उन्हीं के आदेशानुसार करना पड़ता है। "हंस" शब्द का अर्थ परमात्मा के लिए व्यवहृत हुआ है। परमात्मा को अपना स्वरूप जानने पर ही जीव -- मृत्यु का अतिक्रम कर पाता है। इसका अन्य कोई उपाय नहीं है।
"एको हंसो भुवनस्यास्य मध्ये स एवाग्निः सलिले संनिविष्टः।
इस सम्पूर्ण विश्व के अन्तर में 'एक' 'हंसस्वरूपी आत्मसत्ता' है एवं 'वह' अग्निस्वरूप' है जो जल की अतल गहराई में स्थित है। 'उसका' ज्ञान प्राप्त करके व्यक्ति मृत्यु की पकड़ से परे चला जाता है तथा इस महद्-गति के लिए दूसरा कोई मार्ग नहीं है। (अस्य भुवनस्य मध्ये एकः हंसः। सः एव सलिले संनिविष्टः अग्निः। तम् एव विदित्वा मृत्युम् अत्येति अयनाय अन्यः पन्थाः न विद्यते॥)
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यह ब्रह्मविद्या का सार है। लेकिन यह व्यावहारिक रूप से स्वयं पर अवतृत होता है हरिःकृपा से ही। मुझे इसका ज्ञान पिछले ४५ वरसों से था, लेकिन इसकी प्रत्यक्ष अनुभूतियाँ अभी होनी आरंभ हुई हैं। पीछे की अनुभूतियाँ अब भूतकाल की हो गयी हैं, जिनका कोई महत्व नहीं रहा है। वर्तमान ही परमात्मा है। अब तो स्थिति स्पष्ट है। इससे जुड़ी अन्य ब्रह्म विद्याएँ भी स्पष्ट हो रही हैं।
अब तो सब कुछ सत्यनिष्ठा से किए गये स्वयं के समर्पण पर निर्भर है। जितना गहरा और अधिक समर्पण होगा उतनी ही अधिक परमात्मा की अभिव्यक्ति भी निज जीवन में होगी।
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भगवती की भी असीम कृपा है। जीवन में जो भी होगा वह शुभ ही शुभ होगा। अब परमात्मा दूर नहीं है, उन्हीं के हृदय में मैं, और मेरे हृदय में उनका निवास है।
सभी के हृदयों में उन का प्राकट्य हो। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ दिसंबर २०२४
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