भगवान ने हमारी रचना क्यों की? वे हम से क्या चाहते हैं? यह सारा प्रपंच क्यों?
सृष्टिकर्ता को हम कैसे जान सकते हैं? क्या यह संभव है? कर्ता हम हैं या प्रकृति?
ये दुःख/सुख, अभाव/प्रचूरता, घृणा/प्रेम, राग/द्वेष, और भय/लोभ/अहंकार आदि क्यों? इस जीवन का क्या उद्देश्य है?
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उपरोक्त सारे प्रश्न शाश्वत हैं? इन पर भारत में जितनी चर्चा हुई है, उतनी तो अन्यत्र कहीं भी नहीं हुई हैं। उपनिषदों में इन सब के उत्तर मिल भी सकते हैं, और नहीं भी। आज हम इस संसार में हैं, कुछ समय पश्चात चले जाएँगे। संसारी व्यक्तियों से प्रश्न करो तो सबका उत्तर रटा-रटाया होता है, किसी का मौलिक उत्तर नहीं होता।
कोई कहता है गुरु करो। गुरु ही सब बात बताएगा। कोई कहता है हमारी विचारधारा में आ जाओ, तो ठीक है, तुम्हें ये ये लाभ मिलेंगे, अन्यथा नर्क की शाश्वत अग्नि मिलेगी। यहाँ यह भी भय पर आधारित एक व्यापार है।
श्रीमद्भगवद्गीता में और अन्य शास्त्रों में जिसे तमोगुण बताया है, लगता है वह तमोगुण ही इस संसार को चला रहा है। कहीं कहीं रजोगुण है। सतोगुण तो कहीं दिखाई ही नहीं देता।
फिर श्रीमद्भगवद्गीता के सांख्य योग में भगवान हमें तीनों गुणों से परे जाने को क्यों कहते हैं? --
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२:४५॥"
यहाँ भगवान हमें निस्त्रेगुण्य होने को कहते हैं, लेकिन साथ में चार शर्तें भी लगा देते हैं कि पहले निर्द्वंद्व, नित्यसत्वस्थ, निर्योगक्षेम, और आत्मवान बनो। फिर आगे की बात करो।
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ये सब बातें एक सामान्य मनुष्य के वश की बात नहीं है। यह संसार ऐसे ही चलता रहेगा, जैसा अब तक चलता आया है। थक-हार कर हम आत्म-संतुष्टि के लिए तरह तरह की बातें कहते हैं, जैसे --
"उमा दारु जोषित की नाईं। सबहि नचावत रामु गोसाईं॥"
यह कोई उत्तर नहीं है। प्रश्न यहाँ बना रहता है कि "क्यों?"
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१ जनवरी २०२४
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