विराट पुरुष की आराधना ---
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मैं मूर्तिपूजा का समर्थक हूँ। भगवान का विग्रह होना चाहिए। "विग्रह" प्राणमय यानि जीवंत होता है। "प्रतिमा" शब्द गलत है, प्रतिमा प्राणहीन होती है। सही शब्द है -- "विग्रह" या "मूर्ति", क्योंकि वे प्राणमय होते हैं, उनमें प्राण होता है।
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(मैं वही कहूँगा जिस का मैं अनुभव कर रहा हूँ, कोई रटी-रटाई बात या दूसरों को प्रसन्न करने के लिए नहीं कह रहा। मुझे पता है कि जो मैं कहने जा रहा हूँ, इसके लिए लोग मुझे गालियाँ भी देंगे, मेरी हंसी भी उड़ायेंगे, और उनका वश चले
तो मुझे सूली पर भी चढ़ा देंगे, क्योंकि इस से उनके अहंकार को तृप्ति मिलती है। लेकिन जब तक मुझ पर ईश्वर की कृपा है, मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।)
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श्वेताश्वतरोपनिषद् के तीसरे अध्याय का चौथा मंत्र कहता है --
"वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।
तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥"
अर्थात् -- मैं उस परम पुरुष को जान गया हूँ जो सूर्य के समान देदीप्यमान है और समस्त अन्धकार से परे है। जो उसे अनुभूति द्वारा जान जाता है वह मृत्यु से मुक्त हो जाता है। जन्म-मृत्यु के चक्र से छुटकारे का कोई अन्य मार्ग नहीं है।
(तमसः परस्तात् आदित्यवर्णम् एतत् महान्तं पुरुषम् अहं वेद। तमेव विदित्वा अतिमृत्युम् एति अयनाय अन्यः पन्थाः न विद्यते॥)
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अयोध्या के प्रख्यात वैदिक विद्वान डॉ देवीसहाय पाण्डेय ने "परमपुरुष परमात्मा का स्वरूप" शीर्षक के अंतर्गत अपने एक लेख में इसका पद्यानुवाद भी किया है -
"मुझे उस परम पुरुष का ज्ञान
जो कि आदित्यवर्ण द्युतिमान।
तमस से दूर भास्वरित रूप
परम ज्योतिर्मय परम अनूप।
नहीं कोई उसका उपमान।।
प्रभामय रूप यही अम्लान
सदा सर्वोपरि परम महान।
नहीं है तम का तनिक विधान।।
जिसे होगा यह रूप प्रतीत
मृत्यु को वही सकेगा जीत।
नहीं है अन्य पन्थ - सन्धान।।"
अर्थात् - मैं इस अत्यंत महान, अनुपम, आदित्य- वर्ण विराट पुरुष को जानता हूँ। वह अंधकार से परे है। उसे जान लेने पर मृत्यु पर विजय मिल जाती है। आश्रय प्राप्ति हेतु अथवा मोक्ष हेतु अन्य कोई उपाय नहीं है।
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अभी प्रश्न उठता है कि उस विराट पुरुष को कैसे जानें? कैसे उसका ध्यान करें?
गुरु के उपदेश व आदेश के अनुसार भ्रूमध्य पर ध्यान करते करते एक दिन एक ब्रह्मज्योति मेरे ध्यान में प्रकट हुई, जो सारे ब्रह्मांड में व्याप्त हो गई। सारा ब्रह्मांड, सारी सृष्टि उसमें समाहित हो गई। उस दिन के अनुभव से मुझे ज्ञात हुआ कि मैं यह भौतिक देह नहीं, बल्कि परमात्मा की अनंतता हूँ। यह अनंतता ही मेरा शरीर है। सारी आकाश-गंगाएँ, अपने ग्रहों-उपग्रहों सहित सारे नक्षत्र, मेरी ही विराट देह के भाग हैं। मुझे उस विराट-पुरुष की ही आराधना करनी है, और उस विराट-पुरुष में ही स्वयं को समर्पित करना है। अब तो उसी का ध्यान मुझसे होता है। इससे अधिक समझने की बौद्धिक क्षमता मुझ में नहीं है। मेरी आस्था है कि यही उस विराट-पुरुष का विग्रह है जिसका मुझे सदा ध्यान करना चाहिए, उसी की उपासना करनी चाहिए, और उसी में स्थित रहना चाहिए। बाहर की मूर्तियाँ प्रतीकात्मक हैं। उनकी भी पूजा होनी चाहिए। वास्तविक विग्रह यानि वास्तविक मूर्ति तो परमात्मा की यह अनंत विराटता ही है।
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हंसः योग (अजपा-जप) (हंसवति ऋक) करते रहो। कुंभक की अवधि में विराट-पुरुष का और भी गहरा ध्यान करो। फिर अनाहत नाद के रूप में प्रणव की ध्वनि के साथ निदिध्यासन करते रहो। अपनी चेतना को भौतिक देह से जितने अधिक समय तक हो सके बाहर ही रखो। बीच बीच में अपने भौतिक शरीर को भी देख लो और यह भाव करो की में यह भौतिक शरीर नहीं, विराट पुरुष हूँ।
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घनीभूत प्राण-ऊर्जा (कुंडलिनी) जागृत हो जाये तो उसे बार-बार परमशिव को अर्पित करते रहो। इस विराटता से परे का अस्तित्व "परमशिव" है। पूर्ण रूपेण परमशिव को समर्पित होकर उनसे एकाकार होना ही हमारी उपासना का लक्ष्य होना चाहिए। मन परमात्मा में मग्न हो जाये। सारा ब्रह्मांड, सारी सृष्टि, सारी अनंतता, मेरी देह है, जिस के माध्यम से स्वयं परमात्मा साँसें ले रहे हैं। मैं नहीं हूँ, मेरा कोई अस्तित्व नहीं है, सब कुछ परमात्मा ही है। मैं तो निमित्त मात्र हूँ, यह निमित्त भी परमात्मा ही है। पृथकता का बोध एक भ्रम है।
"ॐ नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शन्कराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च॥ ॐ नमः शिवाय !!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०२ नवंबर २०२२