अपनी चेतना को परमात्मा से जोड़िए, जीवात्मा से नहीं; हम जीव नहीं शिव हैं
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अर्धोन्मीलित नयनों में जब भगवान स्वयं प्रत्यक्ष रूप से कूटस्थ हमारे समक्ष हैं, तब उन्हें इधर-उधर ढूँढ़ने की क्या आवश्यकता है? उन्हें अपनी पलकों में बंदी बना लीजिये। कूटस्थ-चैतन्य में वे ही परमशिव हैं, वे ही विष्णु हैं, और वे ही सर्वव्यापक ज्योतिर्मय ब्रह्म हैं। जो वे हैं, वही हम हैं। कहीं कोई अंतर नहीं है। हम भगवान से पृथक नहीं हो सकते, उनके साथ एक हैं। हमारे माध्यम से भगवान स्वयं को व्यक्त कर रहे हैं।
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ध्यान के आसन पर हम स्थिर होकर सुख से बैठे हैं। जितना स्थान इस आसन ने घेर रखा है वह हमारा सिंहासन है। ऊपर का सारा ब्रह्मांड -- जहाँ तक हमारी कल्पना जाती है, हम स्वयं हैं, यह भौतिक शरीर नहीं। ऊपर का सारा आकाश और उससे भी परे जो कुछ है, वह अनंतता और पूर्णता हम स्वयं हैं। यह सृष्टि हमारे ही विचारों का घनीभूत रूप है।
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इस देह के मेरुदंड में सूक्ष्म रूप से सभी देवी-देवता बिराजमान हैं। मेरुदंड की सुषुम्ना नाड़ी में भगवती कुंडलिनी विचरण कर रही हैं। वे ही प्राण तत्व हैं। जब तक वे इस देह में विचरण कर रही हैं, तब तक यह देह जीवंत है। जिस क्षण वे इस देह को त्याग देंगी, उसी क्षण यह देह मृत हो जाएगी; और जीवात्मा को उस समय के भावों के अनुरूप तुरंत दूसरी देह मिल जाएगी।
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अपनी चेतना को परमात्मा से जोड़िए, जीवात्मा से नहीं। हम जीव नहीं शिव हैं। कमर को बिलकुल सीधी रखें। साँसे दोनों नासिकाओं से चल रही हों। दृष्टि भ्रूमध्य में स्थिर हो, और चेतना ब्रह्मांड के उच्चतम बिन्दु पर हो। अब ब्रह्मरंध्र के मार्ग से अपनी चेतना को इस देह से बाहर ले आइये, और जितना ऊपर उठ सकते हैं, उतना ऊपर उठ जाइए। और ऊपर उठिये, और ऊपर उठिये, लाखों करोड़ों प्रकाश-वर्ष ऊपर उठ जाइए। उठते रहो, उठते रहो। अंत में एक आलोकमय जगत है जहाँ दूध के समान सफ़ेद ही सफ़ेद प्रकाश है। वह क्षीर-सागर है, जहाँ भगवान विष्णु का निवास है। जो विष्णु हैं, वे ही शिव हैं; जो शिव हैं, वे ही विष्णु हैं। जैसे हमारे भाव होते हैं, उसी के अनुरूप वे हमें प्रतीत होते हैं। वहाँ एक पंचकोणीय नक्षत्र के दर्शन होते हैं। उसका भी भेदन कर हम स्वयं परमशिव के साथ एक हो जाते हैं।
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जब भी भगवान का आदेश हो तब इस शरीर में बापस लौट आइये, लेकिन अपने परमशिव रूप में ही रहें। आप जीव नहीं शिव हो। निरंतर एक सफ़ेद प्रकाश -- एक ज्योति हमारे समक्ष रहेगी, उसमें और कोई नहीं, स्वयं पुरुषोत्तम हैं। वे ही आप स्वयं हो। निरंतर उन्हीं की चेतना में रहो। जब मृत्यु आती है तब उसे स्वीकार कीजिये। जो नारकीय जीवन हम जी रहे हैं, उससे तो अच्छा है कि हम परमात्मा का स्मरण करते करते यह देह ही छोड़ दें। जब तक जीवन है, उसमें परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति हो।
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१ नवंबर २०२२
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जैसा भगवान ने चाहा वह उन्होने लिखवा दिया। कोई प्रश्न है तो प्रत्यक्ष परमात्मा से पूछिए, वे निश्चित रूप से उत्तर देंगे। मैं न तो कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करूंगा और न किसी प्रश्न का उत्तर दूंगा। यह आपके और परमात्मा के मध्य का मामला है। मैं बीच में कहीं भी नहीं हूँ।
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