परमात्मा के महासागर में अब तो और भी गहरी डुबकी लगानी पड़ेगी ---
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कल ८ नवंबर २०२२ को हुए चन्द्र-ग्रहण का नकारात्मक प्रभाव मेरे मन पर बहुत अधिक पड़ा है, लेकिन मैं इसे सदाशिव की परम कृपा मानता हूँ। इस से स्वयं की कमियों का ही पता चला है। इन्हें दूर करने के लिए मुझे आध्यात्मिक साधना की अवधि और गहराई दोनों को ही बढ़ाना होगा। मेरा मन इस समय आनंदमय होकर अत्यधिक प्रसन्नता से नृत्य कर रहा है। भगवान की कितनी बड़ी कृपा है! उन्होंने समाधान पहिले बता दिया, और समस्या बाद में दी। नारायण! नारायण!
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परमात्मा का महासागर उल्टा है। यह नीचे की ओर नहीं, ऊर्ध्व में ऊपर की ओर उल्टा लटका हुआ है। इसमें डुबकी लगाने के लिए अपनी चेतना को ऊपर ही ऊपर की ओर उठाना पड़ता है। जितना ऊपर हमारी चेतना का उत्थान होता है, हमारी डुबकी भी उतनी ही गहरी होती है। गीता के १५वें अध्याय "पुरुषोत्तम योग" में भगवान ने करुणावश अपनी परमकृपा कर के इसे बहुत अच्छी तरह से समझाया है -
"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५:१॥"
"अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥१५:२॥"
"न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥१५:३॥"
"ततः पदं तत्परिमार्गितव्य यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५:४॥"
"निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥१५:५॥"
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५:६॥"
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सच्चिदानंद परमशिव भी अब और छिप नहीं सकते। मेरी दृष्टि की सीमा में ही हैं। उनकी कृपा ही कृपा है, आनन्द ही आनन्द है। आज नहीं तो कल ही सही, वे मेरे साथ एक होंगे। गीता के उपरोक्त श्लोकों को समझते हुए, तदानुसार आचरण कर, जीवात्मा इसी जन्म में मुक्त हो सकती है। भगवान का वचन है -- "यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥"
सभी का कल्याण हो। सभी को परमपद प्राप्त हो। सबसे पहिले भगवान को प्राप्त करो, फिर जो भी करना है वह सब वे ही करेंगे। हम तो निमित्त मात्र है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ नवम्बर २०२२
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