Wednesday, 29 March 2017

तारक मन्त्र "राम" और प्रणवाक्षर "ॐ" दोनों एक ही हैं .....

तारक मन्त्र "राम" और प्रणवाक्षर "ॐ" दोनों एक ही हैं .....
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जिस प्रकार एक विशाल वृक्ष के बीज में उसकी शाखाएँ, पत्तियाँ और जड़ें निहित हैं वैसे ही एक अकेले "राम" नाम के भीतर यह समस्त सृष्टि समाहित है|
"राम" शब्द के भीतर ही "ॐ" मन्त्र भी निहित है| जैसे "ॐ" मंत्र का ध्यान और मनन करने से इस सृष्टि में कुछ भी दुःस्प्राप्य नहीं है और मोक्ष की प्राप्ति होती है वैसे ही परम सिद्ध तारक मन्त्र "राम" भी सर्वस्व और मोक्ष प्रदान करता है
सब गुरुओं के गुरु भगवान शिव हैं| वे स्वयं इस तारक मन्त्र की दीक्षा देते हैं|
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संस्कृत व्याकरण के अनुसार "ॐ" और :"राम" दोनों एक हैं|
राम = र् + आ + म् + अ |
= र् + अ + अ + म् + अ ||
हरेक स्वरवर्ण पुल्लिंग होने के कारण स्वतंत्र होता है, और हर व्यंजनवर्ण स्त्रीलिंग होने के कारण परतंत्र होता है| पाणिनी व्याकरण के "आद्यन्त विपर्यश्च" सूत्र के अनुसार अगर किसी शब्द के "र" वर्ण के सामने तथा वर्ण के पीछे "अ" आता है तो उसका "अ" वर्ण "उ" में बदल जाता है| विश्लेषण करने पर "राम" शब्द का अ सामने आता है|
अ + र् + अ + अ + म् |
इसलिए अ + र् + अ = उ |
अ + उ + ओ |
ओ + म् = ओम् या ॐ ||
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इसिलिय्र राम तारकमन्त्र है और हर दृष्टी से महामन्त्र है| भगवान शिव स्वयं इसका ध्यान करते हैं|
ॐ ॐ ॐ राम् ||

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साभार : एक परम संत की परम कृपा से, जिनके चरणों में कोटि कोटि प्रणाम |

सर्वप्रथम और सर्वश्रेष्ठ धर्माचरण ......

सर्वप्रथम और सर्वश्रेष्ठ धर्माचरण ......
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अपने हर कार्य को पूरा मन लगाकर आत्मगौरव व स्वाभिमान के साथ पूर्णता से करने का पूरा प्रयास ..... सर्वप्रथम और सर्वश्रेष्ठ धर्माचरण है|
यदि हमारे में यह भाव आ जाए कि हम जो भी कार्य कर रहे हैं वह परमात्मा के लिए और परमात्मा की प्रसन्नता के लिए ही कर रहे हैं, तो यह सर्वप्रथम और सर्वश्रेष्ठ धर्माचरण होगा| इस भाव से किये गए कार्य से हमें पूर्ण संतुष्टि मिलेगी|
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एक सामान्य व्यक्ति को हम धर्मशास्त्रों की बड़ी बड़ी बातें नहीं समझा सकते| फिर धर्म की रक्षा और पुनर्स्थापना कैसे कि जाए? जिस व्यक्ति के कार्य में पूर्णता है, वह सबसे बड़ा धार्मिक है| अतः सभी को स्वाभिमान के साथ अपना हर कार्य पूर्णता से करने की प्रेरणा दी जानी चाहिए|


ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

श्रीमाँ का पांडिचेरी आगमन ....

29 March 2016

आज से एक सौ दो वर्ष पूर्व २९ मार्च १९१४ को एक महान ऐतिहासिक घटना हुई थी जिससे सम्पूर्ण विश्व में एक आध्यात्मिक क्रांति का सूत्रपात हुआ| इसी दिन श्रीमाँ ने पोंडिचेरी आकर श्री अरविन्द से भेंट की| यह एक महान ऐतिहासिक घटना थी जिसका पूरे विश्व की आध्यात्मिक चेतना पर प्रभाव पड़ा| भारत की स्वतंत्रता पर भी इसका प्रभाव पडा और भारत की स्वतंत्रता सुनिश्चित हुई|

श्री अरविन्द ने आश्रम का व सम्बन्धित सारा कार्य श्रीमाँ को सौंप दिया व स्वयं गहन साधना में चले गए| बाहर की दुनियाँ से उनका संपर्क सिर्फ श्रीमाँ के माध्यम से ही रहा| उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण का साक्षात्कार किया और भारत की स्वतंत्रता का वरदान माँगा| भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें वरदान दिया कि तुम्हारे जन्मदिवस (15 अगस्त) को ही भारत स्वतंत्र होगा| उनका उत्तरपाड़ा में दिया भाषण एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है जिसे प्रत्येक भारतीय को पढना चाहिए|

भारत के भविष्य की रूपरेखा भी वे बना कर चले गए| यह कब होगा इसका समय तो उन्होंने नहीं बताया पर यह सुनिश्चित कर के चले गए कि एक अतिमानुषी चेतना का अवतरण होगा जो भारत का रूपान्तरण कर देगी| भारत की अखण्डता की भी भविष्यवाणी उन्होंने की है|

वे इतनी गहन साधना कर सके और इतना महान साहित्य रचा जिसमें अंग्रेजी भाषा का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य -- सावित्री -- भी है, श्रीमाँ के सक्रिय सहयोग के बिना सम्भव नहीं हो सकता था|
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श्रीमाँ की उससे अगले दिन की डायरी का यह लेखन है ----
“It matters little that there are thousands of beings plunged in the densest ignorance, He whom we saw yesterday is on earth; his presence is enough to prove that a day will come when darkness shall be transformed into light, and Thy reign shall be indeed established upon earth.”
- The Mother
30 March 1914.

हिन्दु नवसंवत्सर पर जागृत हो रही हिन्दू चेतना ......

28/03/2017
हिन्दु नवसंवत्सर पर जागृत हो रही हिन्दू चेतना ...
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आज जो हिंदुत्व की चेतना मैनें अपनी स्वयं की आँखों से युवाओं में देखी और अनुभूत की है, वह आज तक कभी इस जीवन में नहीं देखी थी| आज तो पूरा झुंझुनू (राजस्थान) नगर ही भगवा हो गया था, और सभी की साँसे थम सी गयी थीं जब नाथ सम्प्रदाय के अति लोकप्रिय युवा संत योगी विकासनाथ के नेतृत्व में नवसंवत्सर की दो किलोमीटर लम्बी शोभायात्रा सेठ मोतीलाल कॉलेज स्टेडियम से निकली और पाँच किलोमीटर चल कर केशव आदर्श विद्या मंदिर के खेल मैदान पर विसर्जित हुई|
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शोभायात्रा में आगे आगे पाँच सफ़ेद घोड़ों पर पाँच सशस्त्र युवा भगवा बाने में भगवा ध्वज के साथ चल रहे थे| उनके पीछे अनेक खुले वाहनों में श्वेत वस्त्रों में केसरिया साफा बांधे भगवा ध्वज फहराते हुए सशस्त्र युवा "जय श्रीराम" के नारों से आकाश गूंजा रहे थे| उनके पीछे एक वाहन में अपने भव्य और दिव्य रूप में युवा योगी विकासनाथ बिराजे हुए थे| उनके पीछे लगभग एक हज़ार पाँच सौ से अधिक युवा, मोटर साइकिलों/स्कूटरों पर सवार हो सिर पर भगवा पट्टी बांधे भगवा ध्वजों के साथ "जय श्रीराम" के गगनभेदी नारे लगाते हुए चल रहे थे| रास्ते में हर मोड़ पर पूरी शोभायात्रा पर पुष्पवर्षा हो रही थी| पूरे मार्ग को अनेक स्थानों पर वंदनवारों से सजाया गया था| अनेक युवा पैदल चलते हुए शस्त्र-संचालन की कला का प्रदर्शन कर रहे थे|
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कल २७ मार्च को सायं काल से देर रात्री तक केशव आदर्श विद्या मंदिर में अखिल भारतीय स्तर का हिंदी कवि सम्मलेन हुआ था नवसंवत्सर के उपलक्ष में|
कल २९ मार्च से नवसंवत्सर के उपलक्ष में ही मुनि आश्रम सभागार में वाणीभूषण पंडित प्रभुशरण तिवारी जी अगले सात दिनों तक मध्याह्न में अपनी ओजस्वी वाणी में रामकथा करेंगे|
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३० मार्च को तृतीया के दिन गणगौर की सवारी निकलेगी और गणगौर का मेला भरेगा| अष्टमी के दिन मंशामाता की पहाडी पर मंशामाता मंदिर में मेला भरेगा|
रामनवमी के दिन राम जी की शोभायात्रा चुणा चौक से निकलेगी जिसमें अनेक युवा अपनी शस्त्र कलाओं का प्रदर्शन करेंगे|
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अंग्रेजी नववर्ष तो लोग मद्यपान कर के नाच-गाकर मनाते हैं पर हिन्दू नववर्ष का आरम्भ ही माँ दुर्गा और भगवान श्रीराम की आराधना के साथ होता है| हिंदु नववर्ष .... शौर्य और भक्ति को जगाता है, वहीं अंग्रेजी नववर्ष .... विलासिता और अहंकार को| यही अंतर है|


जय माँ, जय श्रीराम ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

28/03/2017

सहसा विदधीत न क्रियाम् ..........

सहसा विदधीत न क्रियाम् ..........
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महाराष्ट्र के विदर्भ प्रान्त में एक अति तेजस्वी और परम विद्वान् निर्धन ब्राह्मण के घर जन्मे संस्कृत के महान कवि भारवी रुग्ण होकर अपनी मृत्यु शैय्या पर थे| उनकी युवा पत्नि ने अत्यंत व्यथित होकर पूछा कि आप चले गए तो मुझ निराश्रया का क्या होगा?

महाकवि ने विचलित हुए बिना ही ताड़पत्र पर एक श्लोक लिख दिया और कहा कि इसे बेच कर तुम्हें इतना धन मिल जाएगा कि अपना निर्वाह कर सकोगी| महाकवि भारवी इसके पश्चात स्वर्ग सिधार गए|

उनके गाँव के पास में ही एक हाट लगती थी जहाँ के एक अति समृद्ध वणिकपुत्र का नियम था कि जिस किसी व्यापारी की कोई वस्तु नहीं बिकती उसे वह मुंहमाँगे उचित मूल्य पर क्रय कर लेता था|
भारवी की पत्नि पूरे दिन बैठी रही पर उस ताड़पत्र का कोई क्रेता नहीं आया| सायंकाल जब हाट बंद होने लगी तब वह वणिकपुत्र वहाँ आया और पूछा कि हे माते, आप कौन हो और किस मूल्य पर यहाँ क्या विक्रय करने आई हो?
भारवी की पत्नि ने अपना परिचय देकर वह ताड़पत्र दिखाया और उसका मूल्य दो सहस्त्र रजत मुद्राएँ माँगा| वणिकपुत्र ने सोचा कि इतने महान विद्वान् की विधवा पत्नि एक श्लोक लिखा ताड़पत्र बेच रही है तो अवश्य ही इसमें कोई रहस्य है| उसे इस अत्यधिक मँहगे सौदे से क्षोभ तो बहुत हुआ पर उसने वह ताड़पत्र दो सहस्त्र रजत मुद्राओं में क्रय कर के उस पर लिखा श्लोक अपने शयनकक्ष की चाँदी की चौखट पर स्वर्णाक्षरों में खुदवा दिया ------
"सहसा विदधीत न क्रियाम् अविवेकः परमापदां पदम् |
वृणते हि विमृष्यकारिणाम् गुणलुब्धा स्वयमेव सम्पदः ||"

कुछ दिनों पश्चात उस वणिकपुत्र को अपने व्यापार के क्रम में सिंहल द्वीप (श्रीलंका) जाना पडा| उस समय उसकी पत्नि के पाँव भारी थे| वह एक जलयान में भारत की मुख्य भूमि से सामान ले जाता था जिसे वहाँ बेचकर वहाँ का सामान यहाँ विक्रय करने ले आता था| यही उसका मुख्य व्यापर था| कुछ राजकर्मचारियों और अन्य ईर्ष्यालु व्यापारियों के षड्यंत्र के कारण वहाँ के शासक ने उसे दोषी मानकर चौदह वर्षों के लिए कारागृह में डाल दिया| चौदह वर्ष पश्चात वहाँ के राजा को उसकी निर्दोषता का पता चला तो राजा ने उसका पूरा धन लौटा दिया और उचित क्षतिभरण कर के बापस भेज दिया|

उस जमाने में आज की तरह के द्रुत संचार साधन नहीं होते थे| साढ़े चौदह वर्ष पश्चात एक दिन अर्धरात्रि में वह वणिकपुत्र अपने घर पहुंचा| घर के प्रहरी को संकेत से शांत रहने का आदेश देकर अपनी पत्नी को आश्चर्यचकित करने के उद्देश्य से घर में घुसा और अपने शयनकक्ष की खिड़की से दीपक के मंदे प्रकाश में झाँक कर देखा तो पाया कि उसकी पत्नि एक युवक के साथ सो रही है|

यह दृश्य देखकर वह अत्यंत क्रोधित हुआ और अपनी पत्नि और उस के साथ सोये युवक की ह्त्या करने के उद्देश्य से तलवार निकाली और शयन कक्ष के भीतर घुसा| शयनकक्ष की चौखट के द्वार पर स्वर्णाक्षरों से लिखी महाकवि भारवी की कविता उसे दिखाई दी जिसमें लिखे ---- सहसा विदधीत न क्रियाम् ----- सहसा विदधीत न क्रियाम् ---- शब्द उसके कानों में गूंजने लगे| वह ठिठक कर खड़ा हो गया| द्वार पर हुई आहट से उसकी पत्नि जाग गयी|

विरह की अग्नि में जल रही उसकी पत्नि अपने पति को सामने देखकर प्रसन्नता से पागल हो उठी और साथ में सटकर सोये युवक को चिल्लाकर जगाया ---- उठो पुत्र, उठो, उठकर चरण स्पर्श करो, तुम्हारे जन्म के पश्चात पहली बार तुम्हारे पिताजी घर आये हैं|

वणिकपुत्र को याद आया कि जब वह घर से गया था तब उसकी पत्नि गर्भवती थी| उसकी आँखों में आंसू भर आये और उसने अपनी पत्नि और पुत्र को गले लगा लिया| भारी गले वह अपनी पत्नि और पुत्र को बोला कि आज मैं अपनी पत्नि और पुत्र की ह्त्या करने वाला था पर महाकवि भारवी की जिस कविता को मैंने दो सहस्त्र रजत मुद्राओं में यानि चाँदी के दो हज़ार सिक्कों में खरीदा था, उसने मुझे इस महापाप से बचा लिया| मुझे इस सौदे का क्षोभ था पर लाखों स्वर्ण मुद्राएं तो क्या, मेरा सर्वस्व भी इसके बदले में अति अल्प था|

यही है महाकवि भारवी के मन्त्र की महानता|
आज भी इन शब्दों का उतना ही महत्व है --- सहसा विदधीत न क्रियाम् ----- सहसा विदधीत न क्रियाम् ---- ||

अंग्रेजों से भारत की स्वतन्त्रता में सबसे बड़ा योगदान वीर सावरकर का था ....

विनायक दामोदर सावरकर पर कुछ दिनों पूर्व घटिया मानसिकता के लोगों ने एक आक्षेप किया है जिसकी मैं भर्त्सना करता हूँ|

भारत की अंग्रेजों से आज़ादी में सबसे बड़ा योगदान अगर किसी व्यक्ति का था तो वह थे वीर सावरकर| उन्होंने व उनके परिवार ने जितने अमानवीय कष्ट सहे उतने अन्य किसी ने भी नहीं सहे|

तीर्थयात्रा की तरह सभी को अंडमान की सेल्युलर जेल में वह कोठरी देखने जाना चाहिए जहां उन्हें दो-दो आजीवन कारावास की सजा देकर रखा गया था| अन्य सब कोठरियों के सिर्फ एक ही दरवाज़ा है, पर उनकी कोठरी के दो दरवाज़े हैं|

जेल में जो अति अमानवीय यंत्रणा उन्होंने सही उसका अंदाज़ वह जेल अपनी आँखों से देखने के बाद ही आप लगा सकते हैं| जेल में ही उनको पता चला कि उनके भाई भी वहीं बन्दी थे| सारी यातनाएँ उन्होंने एक परम तपस्वी की तरह भारत माता की स्वतंत्रता हेतु एक तपस्या के रूप में सहन कीं| उनका पूरा जीवन ही एक कठोर तपस्या थी| पता नहीं हम में से कितने लोगों के कर्म उन्होंने अपने ऊपर लेकर काटे|

उनकी भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पर लिखी पुस्तक भारत के क्रांतिकारियों की प्रेरणा स्त्रोत थी| नेताजी सुभाष बोस को विदेश जाकर स्वतंत्रता हेतु संघर्ष करने की प्रेरणा उन्होंने ही दी थी|

उनका मानना था कि भारतीयों के पास न तो अस्त्र-शस्त्र हैं और न उन्हें चलाना आता है| अतः उन्होंने पूरे भारत में घूमकर हज़ारों युवकों को सेना में भर्ती कराया ताकि वे अंग्रेजों से उनके ही अस्त्र चलाना सीखें और समय आने पर उनका मुँह अंग्रेजों की ओर कर दें| इसका प्रभाव पड़ा और द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात भारतीय सैनिकों ने अँगरेज़ अधिकारियों को सलाम करना और उनके आदेश मानने से मना कर दिया| मुंबई में नौसेना का विद्रोह हुआ| इन सब घटनाओं से डर कर अँगरेज़ भारत छोड़ने को बाध्य हुए|

कुटिल अँगरेज़ भारत की सता अपने मानस पुत्रों को देकर चले गए| भारत को आज़ादी चरखा चलाने से नहीं अपितु भारतीय सैनिकों द्वारा अंग्रेज अधिकारियों के विरुद्ध विद्रोह के कारण मिली| जाते जाते अँगरेज़ भारत का जितना अधिक अहित कर सकते थे उतना कर के चले गए|

वीर सावरकर के अति मानवीय गुण स्पष्ट बताते हैं कि वे एक जीवन्मुक्त महापुरुष थे जिन्होनें भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिए ही स्वेच्छा से जन्म लिया था| उनकी तपस्या का सबसे बड़ा योगदान था भारत की आज़ादी में| अब अंग्रेजों के मानस पुत्र ही उन पर आक्षेप लगा रहे हैं जो निंदनीय है|

धर्म की रक्षा धर्म के पालन से होगी, एक-दूसरे की निंदा व आलोचना से नहीं .....

धर्म की रक्षा धर्म के पालन से होगी, एक-दूसरे की निंदा व आलोचना से नहीं .....
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आजकल यह एक प्रचलन सा हो गया है कि धर्म की बात आते ही कोई तो धर्माचार्यों को गाली देना शुरू कर देता है, कोई समाज के नेताओं को, कोई प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को| खुद यह नहीं देखते कि उनका स्वयं का योगदान क्या है| वर्तमान परिस्थितियों में हम सर्वश्रेष्ठ क्या कर सकते हैं, यह निश्चय कर के ही कुछ करना चाहिए| धर्म की रक्षा स्वयं के आचरण से ही होगी, अन्य कोई उपाय नहीं है|
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(१) हम जो भी कार्य करें वह अपनी क्षमतानुसार पूरे मनोयोग से और सर्वश्रेष्ठ करें| यह भाव रखें कि हम ईश्वर की प्रसन्नता के लिए, ईश्वर के लिए ही यह कार्य कर रहे है, न कि किसी मनुष्य को प्रसन्न करने के लिए| ईश्वर ने ही हमें कार्य करने का यह अवसर दिया है| धीरे धीरे परमात्मा को कर्ता बनाकर उसके उपकरण मात्र बन जाओ|
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(२) किसी की अनावश्यक आलोचना या निंदा न करें|
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(३) जीवन से ईर्ष्या-द्वेष और अहंकार को मिटाने का प्रयास करते रहें|
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(४) रात्रि को सोने से पूर्व नाम-स्मरण, जप, ध्यान आदि कर के ही सोयें|
प्रातःकाल उठते ही परमात्मा का स्मरण करें| पूरे दिन परमात्मा की स्मृति निरंतर प्रयास करके बनाए रखें|
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(५) पराये धन और पराई स्त्री/पुरुष कि कामना न करें|
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(६) अच्छा साहित्य पढ़ें, अच्छे लोगों के साथ रहें, और कुसंगति से दूर रहे|
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(७) स्वास्थ्यवर्धक अच्छा सात्विक भोजन लें| शराब और जूए से दूर रहें| पर्याप्त मात्रा में विश्राम करें| आयु के अनुसार शारीरिक व्यायाम कर के स्वस्थ रहें|
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उपरोक्त सब बिन्दुओं पर गंभीरता से विचार कर के और उस पर आचरण कर के ही हम धर्म की रक्षा कर पायेंगे, अन्यथा नहीं| धर्माचरण बहुत आवश्यक है क्योंकि विश्व की ही नहीं, अपने देश की भी कई आसुरी शक्तियाँ अपने राष्ट्र को ही तोड़ना चाहती हैं| धर्माचरण ही हमें बचा पायेगा| भगवान की भक्ति के प्रचार-प्रसार से ही जातिवाद टूटेगा, देशभक्ति जागृत होगी और कभी गृहयुद्ध की सी स्थिति नहीं आएगी| अपने राष्ट्र, अपनी संस्कृति, अपने राष्ट्रधर्म और स्वाभिमान की रक्षा करें|
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जय जननी जय भारत ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ मार्च २०१६

नव सम्वत्सर की शुभ कामनाएँ और अभिनन्दन ....

नव सम्वत्सर विक्रम संवत २०७४ की शुभ कामनाएँ और अभिनन्दन|

हमारे जीवन का हर क्षण नववर्ष हो| आत्म-चैतन्य की अनुभूति में हम देश-काल से परे (beyond time and space) होते हैं| वहाँ न कोई भूत है और न भविष्य, सिर्फ वर्तमान का ही अस्तित्व है| पर लौकिक जगत में नवसंवत्सर का दिन साधना की दृष्टी से अति शुभ है| आज से वासंतीय नवरात्रों का प्रारम्भ हो रहा है और रामनवमी भी शीघ्र आने ही वाली है| आज से नौ दिनों में हमारा जीवन राममय हो, हमारे निज जीवन में राम का प्राकट्य हो, यह हमारा आज का शुभ संकल्प है|
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जगन्माता ..... महाकाली के रूप में हमारे चैतन्य में व्याप्त अशुभ संस्कारों का नाश करे, महालक्ष्मी के रूप में सारे शुभ संस्कार दे और महासरस्वती के रूप में आत्मज्ञान दे| आज यह हमारी प्रार्थना है|
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इस लौकिक जीवन का अधिकाँश काल व्यतीत हो चुका है, जीवन का संध्याकाल है और बहुत कम समय बचा है| लोग निंदा करें या स्तुति, धन आये या जाए, यह शरीर रहे या न रहे, पर इस बचे हुए शेष जीवन में हमें परमात्मा को प्राप्त करना ही है|
 

मन में शुभ संकल्प और दृढ़ निश्चय होगा तो परमात्मा की परम कृपा भी होगी और स्वतः मार्गदर्शन भी प्राप्त होगा|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||