सहसा विदधीत न क्रियाम् ..........
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महाराष्ट्र के विदर्भ प्रान्त में एक अति तेजस्वी और परम विद्वान् निर्धन ब्राह्मण के घर जन्मे संस्कृत के महान कवि भारवी रुग्ण होकर अपनी मृत्यु शैय्या पर थे| उनकी युवा पत्नि ने अत्यंत व्यथित होकर पूछा कि आप चले गए तो मुझ निराश्रया का क्या होगा?
महाकवि ने विचलित हुए बिना ही ताड़पत्र पर एक श्लोक लिख दिया और कहा कि इसे बेच कर तुम्हें इतना धन मिल जाएगा कि अपना निर्वाह कर सकोगी| महाकवि भारवी इसके पश्चात स्वर्ग सिधार गए|
उनके गाँव के पास में ही एक हाट लगती थी जहाँ के एक अति समृद्ध वणिकपुत्र का नियम था कि जिस किसी व्यापारी की कोई वस्तु नहीं बिकती उसे वह मुंहमाँगे उचित मूल्य पर क्रय कर लेता था|
भारवी की पत्नि पूरे दिन बैठी रही पर उस ताड़पत्र का कोई क्रेता नहीं आया| सायंकाल जब हाट बंद होने लगी तब वह वणिकपुत्र वहाँ आया और पूछा कि हे माते, आप कौन हो और किस मूल्य पर यहाँ क्या विक्रय करने आई हो?
भारवी की पत्नि ने अपना परिचय देकर वह ताड़पत्र दिखाया और उसका मूल्य दो सहस्त्र रजत मुद्राएँ माँगा| वणिकपुत्र ने सोचा कि इतने महान विद्वान् की विधवा पत्नि एक श्लोक लिखा ताड़पत्र बेच रही है तो अवश्य ही इसमें कोई रहस्य है| उसे इस अत्यधिक मँहगे सौदे से क्षोभ तो बहुत हुआ पर उसने वह ताड़पत्र दो सहस्त्र रजत मुद्राओं में क्रय कर के उस पर लिखा श्लोक अपने शयनकक्ष की चाँदी की चौखट पर स्वर्णाक्षरों में खुदवा दिया ------
"सहसा विदधीत न क्रियाम् अविवेकः परमापदां पदम् |
वृणते हि विमृष्यकारिणाम् गुणलुब्धा स्वयमेव सम्पदः ||"
कुछ दिनों पश्चात उस वणिकपुत्र को अपने व्यापार के क्रम में सिंहल द्वीप (श्रीलंका) जाना पडा| उस समय उसकी पत्नि के पाँव भारी थे| वह एक जलयान में भारत की मुख्य भूमि से सामान ले जाता था जिसे वहाँ बेचकर वहाँ का सामान यहाँ विक्रय करने ले आता था| यही उसका मुख्य व्यापर था| कुछ राजकर्मचारियों और अन्य ईर्ष्यालु व्यापारियों के षड्यंत्र के कारण वहाँ के शासक ने उसे दोषी मानकर चौदह वर्षों के लिए कारागृह में डाल दिया| चौदह वर्ष पश्चात वहाँ के राजा को उसकी निर्दोषता का पता चला तो राजा ने उसका पूरा धन लौटा दिया और उचित क्षतिभरण कर के बापस भेज दिया|
उस जमाने में आज की तरह के द्रुत संचार साधन नहीं होते थे| साढ़े चौदह वर्ष पश्चात एक दिन अर्धरात्रि में वह वणिकपुत्र अपने घर पहुंचा| घर के प्रहरी को संकेत से शांत रहने का आदेश देकर अपनी पत्नी को आश्चर्यचकित करने के उद्देश्य से घर में घुसा और अपने शयनकक्ष की खिड़की से दीपक के मंदे प्रकाश में झाँक कर देखा तो पाया कि उसकी पत्नि एक युवक के साथ सो रही है|
यह दृश्य देखकर वह अत्यंत क्रोधित हुआ और अपनी पत्नि और उस के साथ सोये युवक की ह्त्या करने के उद्देश्य से तलवार निकाली और शयन कक्ष के भीतर घुसा| शयनकक्ष की चौखट के द्वार पर स्वर्णाक्षरों से लिखी महाकवि भारवी की कविता उसे दिखाई दी जिसमें लिखे ---- सहसा विदधीत न क्रियाम् ----- सहसा विदधीत न क्रियाम् ---- शब्द उसके कानों में गूंजने लगे| वह ठिठक कर खड़ा हो गया| द्वार पर हुई आहट से उसकी पत्नि जाग गयी|
विरह की अग्नि में जल रही उसकी पत्नि अपने पति को सामने देखकर प्रसन्नता से पागल हो उठी और साथ में सटकर सोये युवक को चिल्लाकर जगाया ---- उठो पुत्र, उठो, उठकर चरण स्पर्श करो, तुम्हारे जन्म के पश्चात पहली बार तुम्हारे पिताजी घर आये हैं|
वणिकपुत्र को याद आया कि जब वह घर से गया था तब उसकी पत्नि गर्भवती थी| उसकी आँखों में आंसू भर आये और उसने अपनी पत्नि और पुत्र को गले लगा लिया| भारी गले वह अपनी पत्नि और पुत्र को बोला कि आज मैं अपनी पत्नि और पुत्र की ह्त्या करने वाला था पर महाकवि भारवी की जिस कविता को मैंने दो सहस्त्र रजत मुद्राओं में यानि चाँदी के दो हज़ार सिक्कों में खरीदा था, उसने मुझे इस महापाप से बचा लिया| मुझे इस सौदे का क्षोभ था पर लाखों स्वर्ण मुद्राएं तो क्या, मेरा सर्वस्व भी इसके बदले में अति अल्प था|
यही है महाकवि भारवी के मन्त्र की महानता|
आज भी इन शब्दों का उतना ही महत्व है --- सहसा विदधीत न क्रियाम् ----- सहसा विदधीत न क्रियाम् ---- ||
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महाराष्ट्र के विदर्भ प्रान्त में एक अति तेजस्वी और परम विद्वान् निर्धन ब्राह्मण के घर जन्मे संस्कृत के महान कवि भारवी रुग्ण होकर अपनी मृत्यु शैय्या पर थे| उनकी युवा पत्नि ने अत्यंत व्यथित होकर पूछा कि आप चले गए तो मुझ निराश्रया का क्या होगा?
महाकवि ने विचलित हुए बिना ही ताड़पत्र पर एक श्लोक लिख दिया और कहा कि इसे बेच कर तुम्हें इतना धन मिल जाएगा कि अपना निर्वाह कर सकोगी| महाकवि भारवी इसके पश्चात स्वर्ग सिधार गए|
उनके गाँव के पास में ही एक हाट लगती थी जहाँ के एक अति समृद्ध वणिकपुत्र का नियम था कि जिस किसी व्यापारी की कोई वस्तु नहीं बिकती उसे वह मुंहमाँगे उचित मूल्य पर क्रय कर लेता था|
भारवी की पत्नि पूरे दिन बैठी रही पर उस ताड़पत्र का कोई क्रेता नहीं आया| सायंकाल जब हाट बंद होने लगी तब वह वणिकपुत्र वहाँ आया और पूछा कि हे माते, आप कौन हो और किस मूल्य पर यहाँ क्या विक्रय करने आई हो?
भारवी की पत्नि ने अपना परिचय देकर वह ताड़पत्र दिखाया और उसका मूल्य दो सहस्त्र रजत मुद्राएँ माँगा| वणिकपुत्र ने सोचा कि इतने महान विद्वान् की विधवा पत्नि एक श्लोक लिखा ताड़पत्र बेच रही है तो अवश्य ही इसमें कोई रहस्य है| उसे इस अत्यधिक मँहगे सौदे से क्षोभ तो बहुत हुआ पर उसने वह ताड़पत्र दो सहस्त्र रजत मुद्राओं में क्रय कर के उस पर लिखा श्लोक अपने शयनकक्ष की चाँदी की चौखट पर स्वर्णाक्षरों में खुदवा दिया ------
"सहसा विदधीत न क्रियाम् अविवेकः परमापदां पदम् |
वृणते हि विमृष्यकारिणाम् गुणलुब्धा स्वयमेव सम्पदः ||"
कुछ दिनों पश्चात उस वणिकपुत्र को अपने व्यापार के क्रम में सिंहल द्वीप (श्रीलंका) जाना पडा| उस समय उसकी पत्नि के पाँव भारी थे| वह एक जलयान में भारत की मुख्य भूमि से सामान ले जाता था जिसे वहाँ बेचकर वहाँ का सामान यहाँ विक्रय करने ले आता था| यही उसका मुख्य व्यापर था| कुछ राजकर्मचारियों और अन्य ईर्ष्यालु व्यापारियों के षड्यंत्र के कारण वहाँ के शासक ने उसे दोषी मानकर चौदह वर्षों के लिए कारागृह में डाल दिया| चौदह वर्ष पश्चात वहाँ के राजा को उसकी निर्दोषता का पता चला तो राजा ने उसका पूरा धन लौटा दिया और उचित क्षतिभरण कर के बापस भेज दिया|
उस जमाने में आज की तरह के द्रुत संचार साधन नहीं होते थे| साढ़े चौदह वर्ष पश्चात एक दिन अर्धरात्रि में वह वणिकपुत्र अपने घर पहुंचा| घर के प्रहरी को संकेत से शांत रहने का आदेश देकर अपनी पत्नी को आश्चर्यचकित करने के उद्देश्य से घर में घुसा और अपने शयनकक्ष की खिड़की से दीपक के मंदे प्रकाश में झाँक कर देखा तो पाया कि उसकी पत्नि एक युवक के साथ सो रही है|
यह दृश्य देखकर वह अत्यंत क्रोधित हुआ और अपनी पत्नि और उस के साथ सोये युवक की ह्त्या करने के उद्देश्य से तलवार निकाली और शयन कक्ष के भीतर घुसा| शयनकक्ष की चौखट के द्वार पर स्वर्णाक्षरों से लिखी महाकवि भारवी की कविता उसे दिखाई दी जिसमें लिखे ---- सहसा विदधीत न क्रियाम् ----- सहसा विदधीत न क्रियाम् ---- शब्द उसके कानों में गूंजने लगे| वह ठिठक कर खड़ा हो गया| द्वार पर हुई आहट से उसकी पत्नि जाग गयी|
विरह की अग्नि में जल रही उसकी पत्नि अपने पति को सामने देखकर प्रसन्नता से पागल हो उठी और साथ में सटकर सोये युवक को चिल्लाकर जगाया ---- उठो पुत्र, उठो, उठकर चरण स्पर्श करो, तुम्हारे जन्म के पश्चात पहली बार तुम्हारे पिताजी घर आये हैं|
वणिकपुत्र को याद आया कि जब वह घर से गया था तब उसकी पत्नि गर्भवती थी| उसकी आँखों में आंसू भर आये और उसने अपनी पत्नि और पुत्र को गले लगा लिया| भारी गले वह अपनी पत्नि और पुत्र को बोला कि आज मैं अपनी पत्नि और पुत्र की ह्त्या करने वाला था पर महाकवि भारवी की जिस कविता को मैंने दो सहस्त्र रजत मुद्राओं में यानि चाँदी के दो हज़ार सिक्कों में खरीदा था, उसने मुझे इस महापाप से बचा लिया| मुझे इस सौदे का क्षोभ था पर लाखों स्वर्ण मुद्राएं तो क्या, मेरा सर्वस्व भी इसके बदले में अति अल्प था|
यही है महाकवि भारवी के मन्त्र की महानता|
आज भी इन शब्दों का उतना ही महत्व है --- सहसा विदधीत न क्रियाम् ----- सहसा विदधीत न क्रियाम् ---- ||
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