Thursday 25 November 2021

श्रद्धा और विश्वास ---

 

श्रद्धा और विश्वास ---
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हमारे कूटस्थ में स्वयं परमात्मा और सभी देवताओं का निवास है। समस्त ज्ञान और सारी सिद्धियाँ भी यहीं हैं। आवश्यकता चेतना के स्तर को ऊंचा उठाने की है। समस्त ज्ञान, समस्त उपलब्धियाँ, और पूर्णता कहीं बाहर नहीं हैं। ये सब हमारी चेतना में ही हैं। चेतना के स्तर को ऊंचा उठाओ, सारी उपलब्धियाँ स्वयं को अनावृत कर हमारे साथ एक हो जायेंगी।
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ज्ञान का एकमात्र स्त्रोत परमात्मा है। पुस्तकों से कोई ज्ञान नहीं मिलता। ज्ञान परमात्मा की कृपा से ही मिलता है। पुस्तकों से तो सूचना मात्र ही मिलती है। परमात्मा से जुड़ने के पश्चात सारा आवश्यक ज्ञान स्वतः ही प्राप्त हो जाता है। परमात्मा के लिए थोड़ी सी भी तड़प व प्यास ह्रदय में है तो उसे निरंतर बढाते रहें। पूर्ण तृप्ति व आनंद सिर्फ परमात्मा में ही है।
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वेदान्त के दृष्टिकोण से ध्यान-भाव को भी तज कर केवल ध्येय-स्वरूप में सर्वदा स्थित रहना चाहिए। यह एक बहुत गहरे रहस्य की बात है जो गुरुकृपा से ही समझ में आ सकती है।
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जीवन में हमें जो कुछ भी मिलता है वह हमारी श्रद्धा और विश्वास से ही मिलता है। बिना श्रद्धा और विश्वास के कुछ भी नहीं मिलता। हम जो भी कर्मकांड करते हैं, जो भी साधना या उपासना करते हैं, उनकी सफलता हमारी श्रद्धा और विश्वास पर ही निर्भर है। बिना श्रद्धा और विश्वास के कभी सफलता नहीं मिलती। भगवान की भक्ति भी पूर्ण श्रद्धा और विश्वास से करें, तभी सफलता मिलेगी।
"भवानी शङ्करौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्॥"
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सदा अपनी चेतना को आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य उत्तरा-सुषुम्ना में रखने का अभ्यास करें। वहीं अपने इष्ट-देव/देवी के बीजमंत्र का मानसिक जप करते हुए ध्यान करें। जब वह बीजमंत्र स्वतः ही सुनाई देने लगे तब उसे खूब सुनें। कमर सदा सीधी रखें। साधनाकाल में सत्यनिष्ठा से सात्विक आचरण और मर्यादित जीवन का ध्यान रखें, अन्यथा लाभ के सथान पर हानि होगी। श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करें, सारे संदेह दूर होंगे। सब पर भगवान की कृपा अवश्य होगी।
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !!
कृपा शंकर
२५ नवंबर २०२१

जीवन और मृत्यु दोनों में भगवान हमारे साथ हैं ---

 

जीवन और मृत्यु दोनों में भगवान हमारे साथ हैं ---
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कल मध्यरात्रि में दो बजे के आसपास तबीयत अचानक ही बहुत अधिक खराब हो गई। चार-पाँच बार बहुत पतले दस्त लगे, और ऐसा लगा कि उल्टी भी होगी, जिसके साथ इस शरीर का अंत समय भी आ सकता है। शरीर बहुत अधिक कमजोर हो गया, लेकिन किसी भी तरह की कोई घबराहट नहीं थी। ऐसे समय में मुझे लगा कि भगवान मेरे साथ ही हैं। मैंने किसी भी तरह की कोई प्रार्थना नहीं की। भगवान से यही कहा कि जीवन और मृत्यु दोनों में तुम मेरे साथ हो। जहाँ तुम हो वहीं मैं हूँ, और सदा तुम्हारे साथ ही रहूँगा। यही शरीर रहे या न रहे, इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। अपरिछिन्न भाव से मैं सदा तुम्हारे साथ एक हूँ।
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दवाओं के डिब्बे में ढूँढने से एक दवा भी मिल गई, जिसे लेते ही नींद आ गई और आँखें दिन में देरी से खुलीं। लेकिन एक बात तो स्पष्ट हो गई कि भगवान सदा हमारे साथ एक हैं, वे हमारे से पृथक नहीं हो सकते।
ॐ तत्सत् !!
२५ नवंबर २०२१

श्रद्धा और विश्वास ---

 

श्रद्धा और विश्वास ---
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हमारे कूटस्थ में स्वयं परमात्मा और सभी देवताओं का निवास है। समस्त ज्ञान और सारी सिद्धियाँ भी यहीं हैं। आवश्यकता चेतना के स्तर को ऊंचा उठाने की है। समस्त ज्ञान, समस्त उपलब्धियाँ, और पूर्णता कहीं बाहर नहीं हैं। ये सब हमारी चेतना में ही हैं। चेतना के स्तर को ऊंचा उठाओ, सारी उपलब्धियाँ स्वयं को अनावृत कर हमारे साथ एक हो जायेंगी।
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ज्ञान का एकमात्र स्त्रोत परमात्मा है। पुस्तकों से कोई ज्ञान नहीं मिलता। ज्ञान परमात्मा की कृपा से ही मिलता है। पुस्तकों से तो सूचना मात्र ही मिलती है। परमात्मा से जुड़ने के पश्चात सारा आवश्यक ज्ञान स्वतः ही प्राप्त हो जाता है। परमात्मा के लिए थोड़ी सी भी तड़प व प्यास ह्रदय में है तो उसे निरंतर बढाते रहें। पूर्ण तृप्ति व आनंद सिर्फ परमात्मा में ही है।
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वेदान्त के दृष्टिकोण से ध्यान-भाव को भी तज कर केवल ध्येय-स्वरूप में सर्वदा स्थित रहना चाहिए। यह एक बहुत गहरे रहस्य की बात है जो गुरुकृपा से ही समझ में आ सकती है।
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जीवन में हमें जो कुछ भी मिलता है वह हमारी श्रद्धा और विश्वास से ही मिलता है। बिना श्रद्धा और विश्वास के कुछ भी नहीं मिलता। हम जो भी कर्मकांड करते हैं, जो भी साधना या उपासना करते हैं, उनकी सफलता हमारी श्रद्धा और विश्वास पर ही निर्भर है। बिना श्रद्धा और विश्वास के कभी सफलता नहीं मिलती। भगवान की भक्ति भी पूर्ण श्रद्धा और विश्वास से करें, तभी सफलता मिलेगी।
"भवानी शङ्करौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्॥"
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सदा अपनी चेतना को आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य उत्तरा-सुषुम्ना में रखने का अभ्यास करें। वहीं अपने इष्ट-देव/देवी के बीजमंत्र का मानसिक जप करते हुए ध्यान करें। जब वह बीजमंत्र स्वतः ही सुनाई देने लगे तब उसे खूब सुनें। कमर सदा सीधी रखें। साधनाकाल में सत्यनिष्ठा से सात्विक आचरण और मर्यादित जीवन का ध्यान रखें, अन्यथा लाभ के सथान पर हानि होगी। श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय करें, सारे संदेह दूर होंगे। सब पर भगवान की कृपा अवश्य होगी।
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !!
कृपा शंकर
२५ नवंबर २०२१

भगवान हमारे अंतर में व्यक्त होते हैं, कहीं बाहर नहीं ---

 

भगवान -- परमप्रेम और दिव्य आनंद की एक अनुभूति हैं, कोई आकाश से उतर कर आने वाले व्यक्ति नहीं। एक बार उन की अनुभूति हो जाये तो पूरी सत्यनिष्ठा से उन की चेतना में स्वयं का लय कर दो। भगवान हमारे अंतर में व्यक्त होते हैं, कहीं बाहर नहीं।
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यह भगवान की ज़िम्मेदारी है कि वे हमें अपना बोध करायें, और हमें तृप्त कर दें। जैसे एक पिता अपने पुत्र के बिना नहीं रह सकता, वैसे ही वे भी हमारे बिना नहीं रह सकते, और हमारे प्रेम के लिए तरसते हैं। उनसे प्रेम हो जाये तो वे और नहीं छिप सकते, उन्हें हमारे अंतर में प्रकट होना ही पड़ता है।
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हे प्रभु, यह अब आपकी ज़िम्मेदारी है कि मुझे अपने दृष्टिपथ में रखो। जैसे एक पुत्र का अपने पिता के प्रेम पर पूरा अधिकार होता है, वैसे ही आपके पूर्णप्रेम पर मेरा पूर्ण जन्मसिद्ध अधिकार है। मैंने तो नहीं कहा था कि मुझे इस तरह इस संसार-सागर में भटकाओ। जब आपने भटका ही दिया है तो इस भटकाव से मुक्त करने का दायित्व अब आपका ही बनता है। बिना किसी विलंब के मुझे तुरंत इसी समय अपने साथ एक करो। 
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२४ नवंबर २०२१

हिन्दुत्व पर हो रहे प्रहार और भारत की पीड़ा ---

 

हिन्दुत्व पर हो रहे प्रहार और भारत की पीड़ा --- (संशोधित व पुनर्प्रस्तुत लेख)
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(१) हिन्दुत्व क्या है? --- जीवन में पूर्णता का सतत प्रयास, अपनी श्रेष्ठतम सम्भावनाओं की अभिव्यक्ति, परम तत्व की खोज, दिव्य अहैतुकी परमप्रेम, करुणा और परमात्मा को समर्पण -- हिन्दुत्व है। हिन्दुत्व ही भारत की अस्मिता, संस्कृति और पहिचान है। श्रीअरविंद के अनुसार सनातन हिन्दू धर्म ही भारत है, और भारत ही सनातन हिन्दू धर्म है। अनगिनत युगों में मिले संस्कारों से यहाँ की संस्कृति का जन्म हुआ है। इस संस्कृति का आधार ही सनातन धर्म है। यदि यह संस्कृति और धर्म नष्ट हो गए तो यह राष्ट्र भारत भी नष्ट हो जाएगा। भारत नष्ट हुआ तो यह सृष्टि भी नष्ट हो जाएगी।
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परमात्मा की सर्वाधिक और सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति भारत में ही हुई है। भारत एक प्रकाश-स्तम्भ की तरह सम्पूर्ण सृष्टि का मार्गदर्शन कर रहा है। भारत नहीं रहा तो मनुष्य जाति ही आपस में लड़कर नष्ट हो जाएगी। जीवन के सारे सद्गुण और जो भी सर्वश्रेष्ठ है, वह भारत की ही देन है।
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(२) भारत की पीड़ा --- धर्म-निरपेक्षता, सर्वधर्म समभाव और आधुनिकता आदि नामों से हमारी अस्मिता पर मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं। एक षड़यंत्र के अंतर्गत भारत की शिक्षा और कृषि व्यवस्था को नष्ट कर दिया गया है। हमारे में हीन भावना भरने के लिए झूठा इतिहास पढ़ाया जा रहा है। पशुधन को कत्लखानों में कत्ल कर के विदेशों में भेजा जा रहा है। बाजार में मिलने वाला दूध असली नहीं है। विदेशों से आयातित दूध के पाउडर को घोलकर थैलियों में बंद कर असली दूध के नाम से बेचा जा रहा है। संस्कृति के नाम पर फूहड़ नाच गाने परोसे जा रहे हैं। हमारी कोई नाचने गाने वालों की संस्कृति नहीं है। हमारी संस्कृति -- ऋषि-मुनियों, महाप्रतापी धर्मरक्षक वीर राजाओं, ईश्वर के अवतारों, वेद वेदांगों, दर्शनशास्त्रों, धर्मग्रंथों और संस्कृत साहित्य की है। जो कुछ भी भारतीय है, उसे हेय दृष्टी से देखा जा रहा है। विदेशी मूल्य थोपे जा रहे हैं। देश को निरंतर खोखला, निर्वीर्य और धर्महीन बनाया जा रहा है।
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परोपकार, सब के सुखी व निरोगी होने और कल्याण की कामना हिन्दू संस्कृति में ही है, अन्यत्र नहीं। अन्य मतावलम्बी सिर्फ अपने मत के अनुयाइयों के कल्याण की ही कामना करते हैं, उससे परे नहीं। औरों के लिए तो उनके मतानुसार अनंत काल तक नर्क की ज्वाला ही है। उनका ईश्वर भी मात्र उनके मतावलंबियों पर ही दयालू है। उनके ईश्वर की परिकल्पना भी एक ऐसे व्यक्ति की है जो अति भयंकर और डरावना है, जो उनके मतावलम्बियों को तो सुख ही सुख देगा और दूसरों को अनंत काल तक नर्क की अग्नि में तड़फा तड़फा कर आनंदित होगा। पर-पीड़ा से आनंदित होने वाले ईश्वर से भय करना व अन्य मतावलंबियों को भयभीत और आतंकित करना ही उनकी संस्कृति है।
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समुत्कर्ष, अभ्युदय और नि:श्रेयस की भावना -- सनातन हिदू धर्म का आधार हैं। अन्य संस्कृतियाँ इंद्रीय-सुख और दूसरों के शोषण की कामना पर ही आधारित हैं। मैंने विश्व के अनेक देशों की यात्राएँ की हैं, और वहाँ के जीवन को प्रत्यक्ष देखा है। मैं जो कुछ भी लिख रहा हूँ, वह अपने अनुभव से लिख रहा हूँ।
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धर्मनिरपेक्षतावादियों, सर्वधर्मसमभाववादियों और अल्पसन्ख्यकवादियों से मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि आपकी धर्मनिरपेक्षता, सर्वधर्मसमभाववाद और अल्पसंख्यकवाद तभी तक है जब तक भारत में हिन्दू बहुमत है। हिन्दुओं के अल्पमत में आते ही भारत भारत नहीं रहेगा, और हम सब का वही हाल होगा जो पाकिस्तान और बंगलादेश के हिन्दुओं का हुआ है। यह अनुसंधान का विषय है कि वहाँ के देवालय, मन्दिर और वहाँ के हिन्दू कहाँ गए? क्या उनको धरती निगल गई, या आसमान खा गया? आपके सारे के सारे उपदेश और सीख क्या हिन्दुओं के लिए ही है? यह भी अनुसंधान का विषय है कि भारत के भी हजारों देवालय और मंदिर कहाँ गए? यहाँ की तो संस्कृति ही देवालयों और मंदिरों की संस्कृति थी।
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हम विनाश के कगार पर खड़े हैं। सनातन धर्म ही भारत का भविष्य है। सनातन धर्म ही भारत की राजनीति हो सकती है। भारत का भविष्य ही विश्व का भविष्य है। भारत की संस्कृति और हिन्दूत्व का नाश ही विश्व के विनाश का कारण होगा। क्या पता उस विनाश का साक्षी होना ही हमारी नियति हो ---
"हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर,
बैठ शिला की शीतल छाँह
एक पुरुष, भीगे नयनों से
देख रहा था प्रलय प्रवाह |
नीचे जल था ऊपर हिम था,
एक तरल था एक सघन,
एक तत्व की ही प्रधानता
कहो उसे जड़ या चेतन |
दूर दूर तक विस्तृत था हिम
स्तब्ध उसी के हृदय समान,
नीरवता-सी शिला-चरण से
टकराता फिरता पवमान | (कामायनी)
हो सकता है कि उस व्यक्ति की पीड़ा ही हमारी पीड़ा हो, और उसकी नियति ही हमारी भी नियति हो।
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मेरे ह्रदय की यह पीड़ा समस्त भारत की पीड़ा है, जिसे मैंने व्यक्त किया है। मुझे पता है की मुझे क्या करना है, और वह करने का प्रयास भी कर रहा हूँ। मुझे किसी को और कुछ भी नहीं कहना है। यह मेरे ह्रदय की भावनाओं की एक अभिव्यक्ति मात्र है। किसी से मुझे कुछ भी नहीं लेना देना है। सिर्फ एक प्रार्थना मात्र है आप सब से कि अपने देश भारत के धर्म और संस्कृति की रक्षा करें।
वन्दे मातरम्। भारत माता कीजय।
वन्दे मातरम्।
सुजलां सुफलां मलय़जशीतलाम्,
शस्यश्यामलां मातरम्। वन्दे मातरम् ।।१।।
शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीम्,
फुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,
सुहासिनीं सुमधुरभाषिणीम्,
सुखदां वरदां मातरम् । वन्दे मातरम् ।।२।।
कोटि-कोटि कण्ठ कल-कल निनाद कराले,
कोटि-कोटि भुजैर्धृत खरकरवाले,
के बॉले माँ तुमि अबले,
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीम्,
रिपुदलवारिणीं मातरम्। वन्दे मातरम् ।।३।।
तुमि विद्या तुमि धर्म,
तुमि हृदि तुमि मर्म,
त्वं हि प्राणाः शरीरे,
बाहुते तुमि माँ शक्ति,
हृदय़े तुमि माँ भक्ति,
तोमारेई प्रतिमा गड़ि मन्दिरे-मन्दिरे। वन्दे मातरम् ।।४।।
त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी,
कमला कमलदलविहारिणी,
वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्,
नमामि कमलां अमलां अतुलाम्,
सुजलां सुफलां मातरम्। वन्दे मातरम् ।।५।।
श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषिताम्,
धरणीं भरणीं मातरम्। वन्दे मातरम् ।।६।। (वंदे मातरम्)
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२४ नवंबर २०२१

हमारा स्वधर्म/परमधर्म क्या है? हमारे जीवन की सार्थकता क्या है? ---

 

हमारा स्वधर्म/परमधर्म क्या है? हमारे जीवन की सार्थकता क्या है? ---
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सार रूप में कहें तो "आत्म-साक्षात्कार" (Self-Realization) ही हमारा स्वधर्म है, और यही हमारा परमधर्म है। निज-जीवन में ईश्वर की यथासंभव पूर्ण अभिव्यक्ति ही आत्म-साक्षात्कार है। सृष्टि के जो भी सर्वश्रेष्ठ गुण हैं, वे हमारे में हों। हम परमात्मा के प्रकाश को स्वयं में व्यक्त करें, और उसे सर्वत्र फैलाएँ। जो हमारे पास है, वही हम दूसरों को दे सकते हैं। हम स्वयं प्रकाशमय होंगे तभी दूसरों को वह प्रकाश दे सकेंगे। प्रकाश तो स्वयं फैलेगा, लेकिन हमें तो स्वयं को प्रकाशमय होना ही होगा। निमित्त मात्र होकर, भगवान को ही कर्ता बनाकर, सर्वात्मभाव से हम एकत्व की साधना करें। साध्य और साधक तो स्वयं भगवान ही हैं। सारा मार्गदर्शन उपनिषदों व श्रीमद्भगवद्गीता आदि ग्रंथो में है।
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भगवान हमें गुणातीत होने की शिक्षा देते हैं, जिसके लिए वे हमें निर्द्वन्द्व, नित्यसत्त्वस्थ, निर्योगक्षेम, व आत्मवान् होने को कहते हैं --
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२:४५॥"
अर्थात् - हे अर्जुन, वेदों का विषय तीन गुणों से सम्बन्धित (संसार से) है, तुम त्रिगुणातीत, निर्द्वन्द्व, नित्य सत्त्व (शुद्धता) में स्थित, योगक्षेम से रहित और आत्मवान् बनो॥
अपने भाष्य में आचार्य शंकर कहते हैं कि जो विवेक-बुद्धि से रहित हैं, उन कामपरायण पुरुषों के लिए वेद त्रैगुण्यविषयक हैं, अर्थात् तीनों गुणों के कार्यरूप संसार को ही प्रकाशित करनेवाले हैं। परंतु हे अर्जुन, तूँ असंसारी हो, निष्कामी हो, तथा निर्द्वन्द्व हो। सुख-दुःख के हेतु जो परस्पर विरोधी {युग्म} पदार्थ हैं, उनका नाम द्वन्द्व है, उनसे रहित हो। नित्य-सत्त्वस्थ हो, अर्थात् सदा सत्त्वगुण के आश्रित हो। तथा निर्योगक्षेम हो -- अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करने का नाम योग है, और प्राप्त वस्तु के रक्षण का नाम क्षेम है। योग-क्षेम को प्रधान मानने वाले की कल्याणमार्ग में प्रवृत्ति होनी अत्यन्त कठिन है, अतः तूँ योगक्षेम को न चाहनेवाला हो। तथा आत्मवान् हो, अर्थात् आत्म-विषयों में प्रमादरहित हो। तुझ स्वधर्मानुष्ठान में लगे हुए के लिये यह उपदेश है।
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् - जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है, और सब को मुझ में देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
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"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥९:३४॥"
अर्थात् - "(तुम) मुझमें स्थिर मन वाले बनो; मेरे भक्त और मेरे पूजन करने वाले बनो; मुझे नमस्कार करो; इस प्रकार मत्परायण (अर्थात् मैं ही जिसका परम लक्ष्य हूँ ऐसे) होकर आत्मा को मुझ से युक्त करके तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
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"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥१८:६५॥"
अर्थात् - तुम मच्चित, मद्भक्त और मेरे पूजक (मद्याजी) बनो और मुझे नमस्कार करो; (इस प्रकार) तुम मुझे ही प्राप्त होगे; यह मैं तुम्हे सत्य वचन देता हूँ,(क्योंकि) तुम मेरे प्रिय हो॥
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"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
अर्थात् - सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥
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यह जीवन हमें निज जीवन में भगवान को प्राप्त करने और उनके प्रकाश को सर्वत्र फैलाने के लिए ही मिला है, उसको सार्थक करे। आप सभी महान आत्माओं को नमन॥
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२३ नवंबर २०२१