हमारा स्वधर्म/परमधर्म क्या है? हमारे जीवन की सार्थकता क्या है? ---
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सार रूप में कहें तो "आत्म-साक्षात्कार" (Self-Realization) ही हमारा स्वधर्म है, और यही हमारा परमधर्म है। निज-जीवन में ईश्वर की यथासंभव पूर्ण अभिव्यक्ति ही आत्म-साक्षात्कार है। सृष्टि के जो भी सर्वश्रेष्ठ गुण हैं, वे हमारे में हों। हम परमात्मा के प्रकाश को स्वयं में व्यक्त करें, और उसे सर्वत्र फैलाएँ। जो हमारे पास है, वही हम दूसरों को दे सकते हैं। हम स्वयं प्रकाशमय होंगे तभी दूसरों को वह प्रकाश दे सकेंगे। प्रकाश तो स्वयं फैलेगा, लेकिन हमें तो स्वयं को प्रकाशमय होना ही होगा। निमित्त मात्र होकर, भगवान को ही कर्ता बनाकर, सर्वात्मभाव से हम एकत्व की साधना करें। साध्य और साधक तो स्वयं भगवान ही हैं। सारा मार्गदर्शन उपनिषदों व श्रीमद्भगवद्गीता आदि ग्रंथो में है।
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भगवान हमें गुणातीत होने की शिक्षा देते हैं, जिसके लिए वे हमें निर्द्वन्द्व, नित्यसत्त्वस्थ, निर्योगक्षेम, व आत्मवान् होने को कहते हैं --
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२:४५॥"
अर्थात् - हे अर्जुन, वेदों का विषय तीन गुणों से सम्बन्धित (संसार से) है, तुम त्रिगुणातीत, निर्द्वन्द्व, नित्य सत्त्व (शुद्धता) में स्थित, योगक्षेम से रहित और आत्मवान् बनो॥
अपने भाष्य में आचार्य शंकर कहते हैं कि जो विवेक-बुद्धि से रहित हैं, उन कामपरायण पुरुषों के लिए वेद त्रैगुण्यविषयक हैं, अर्थात् तीनों गुणों के कार्यरूप संसार को ही प्रकाशित करनेवाले हैं। परंतु हे अर्जुन, तूँ असंसारी हो, निष्कामी हो, तथा निर्द्वन्द्व हो। सुख-दुःख के हेतु जो परस्पर विरोधी {युग्म} पदार्थ हैं, उनका नाम द्वन्द्व है, उनसे रहित हो। नित्य-सत्त्वस्थ हो, अर्थात् सदा सत्त्वगुण के आश्रित हो। तथा निर्योगक्षेम हो -- अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करने का नाम योग है, और प्राप्त वस्तु के रक्षण का नाम क्षेम है। योग-क्षेम को प्रधान मानने वाले की कल्याणमार्ग में प्रवृत्ति होनी अत्यन्त कठिन है, अतः तूँ योगक्षेम को न चाहनेवाला हो। तथा आत्मवान् हो, अर्थात् आत्म-विषयों में प्रमादरहित हो। तुझ स्वधर्मानुष्ठान में लगे हुए के लिये यह उपदेश है।
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् - जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है, और सब को मुझ में देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
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"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥९:३४॥"
अर्थात् - "(तुम) मुझमें स्थिर मन वाले बनो; मेरे भक्त और मेरे पूजन करने वाले बनो; मुझे नमस्कार करो; इस प्रकार मत्परायण (अर्थात् मैं ही जिसका परम लक्ष्य हूँ ऐसे) होकर आत्मा को मुझ से युक्त करके तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
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"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥१८:६५॥"
अर्थात् - तुम मच्चित, मद्भक्त और मेरे पूजक (मद्याजी) बनो और मुझे नमस्कार करो; (इस प्रकार) तुम मुझे ही प्राप्त होगे; यह मैं तुम्हे सत्य वचन देता हूँ,(क्योंकि) तुम मेरे प्रिय हो॥
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"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
अर्थात् - सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥
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यह जीवन हमें निज जीवन में भगवान को प्राप्त करने और उनके प्रकाश को सर्वत्र फैलाने के लिए ही मिला है, उसको सार्थक करे। आप सभी महान आत्माओं को नमन॥
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२३ नवंबर २०२१
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