Sunday, 5 December 2021

हम अनन्य भाव और पूर्ण भक्ति से ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करें ---

हम अनन्य भाव और पूर्ण भक्ति से ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करें ---
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जो ज्योतिषांज्योति स्वयं ज्योतिर्मय है, जिसकी ज्योति से सारा ब्रह्मांड प्रकाशित है, भगवान के उस विराट रूप का हम ध्यान करें। उसमें अपना पूर्ण समर्पण कर दें, उसके साथ एक हो जाएँ। वहाँ कोई अन्य नहीं है। परमात्मा का वह प्रकाशरूप ही ज्योतिर्मय ब्रह्म है, वही परमशिव है, वही परमेश्वर है, और वही वासुदेव है। उसी का हम ध्यान करें, उसी में समर्पित हों, व उसके साथ एकाकार हों।
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भगवान के लिए परमप्रेम होगा तो सब कुछ वे समझा देते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं --
(१) "दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः॥११:१२॥"
अर्थात् - अगर आकाश में एक साथ हजारों सूर्य उदित हो जायँ, तो भी उन सबका प्रकाश मिलकर उस महात्मा-(विराट् रूप परमात्मा-) के प्रकाश के समान शायद ही हो।
(२) "न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५:६॥"
अर्थात् - उसे न सूर्य प्रकाशित कर सकता है और न चन्द्रमा और न अग्नि। जिसे प्राप्त कर मनुष्य पुन: (संसार को) नहीं लौटते हैं, वह मेरा परम धाम है॥
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श्रुति भगवती कहती है --
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति॥"
(मुंडकोपनिषद व कठोपनिषद)
अति संक्षेप में इसका अर्थ है कि जो कुछ भी प्रकाशमान् है, वह 'उस' ज्योति की आभा से ही प्रतिभासित है।'
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जहाँ कोई अन्य नहीं है, पूर्ण भक्ति और समर्पण से उस का ध्यान -- अनन्य भक्ति है। गीता में भगवान कहते हैं --
(१) "भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप॥११:५४॥"
अर्थात् -- परन्तु हे परन्तप अर्जुन! अनन्य भक्ति के द्वारा मैं तत्त्वत: 'जानने', 'देखने' और 'प्रवेश' करने के लिए (एकी भाव से प्राप्त होने के लिए) भी, शक्य हूँ!॥
(२) अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
अर्थात् -- अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥
(३) "मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
अर्थात् -- अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि॥
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अनन्य भक्ति यानि अनन्य भाव को हम भगवान के गहन ध्यान से ही समझ सकते हैं। यह एक अनुभूति का विषय है। हम शरणागत हों, भक्ति में स्थित हों, कामनाओं व राग-द्वेष से मुक्त हों, और समस्त प्राणियों से मैत्री भाव रखें, यह परमात्मा के ध्यान द्वारा ही संभव है।
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर

२ दिसंबर २०२१ 

पढ़ो कम, और ध्यान अधिक करो ---

 पढ़ो कम, और ध्यान अधिक करो ---

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शास्त्रों के स्वाध्याय से हमें सिर्फ प्रेरणा और मार्गदर्शन ही मिल सकता है, वास्तविक आध्यात्मिक ज्ञान तो प्रत्यक्षानुभूति से ही मिल सकता है। प्रवचनों को सुनकर ज्ञान का आभास तो हो सकता है, लेकिन ज्ञान की प्राप्ति नहीं। ज्ञान की प्राप्ति के लिए सत्य का अनुभव स्वयं को ही करना होगा। मनोरंजन नहीं, मनोनिग्रह हो। इसलिए थोड़ी देर पढ़ो पर ध्यान अधिक करो। यदि एक घंटे पढ़ते हो तो आठ घंटे भगवान का ध्यान करो।
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जो इस मार्ग पर नए हैं, वे पहले खूब भक्ति के साथ खूब जप करें। जप करते करते भगवान की कृपा से समझ में आ जाएगा कि ध्यान कैसे करें। भगवान बड़े कृपालू हैं, वे कोई कोई न कोई व्यवस्था समझाने की कर देंगे। पर प्रयास तो स्वयं को ही करना पड़ेगा।
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आवश्यकता सिर्फ भक्ति और सत्यनिष्ठा की है। यदि भक्ति और सत्यनिष्ठा नहीं है तो आप एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाएंगे। आप सभी को मंगलमय शुभ कामना और सादर सप्रेम नमन !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१ दिसंबर २०२१

हम सदा सही दिशा में गतिशील रहते हुए असत्य के अंधकार से ऊपर रहें ---

हम सदा सही दिशा में गतिशील रहते हुए असत्य के अंधकार से ऊपर रहें ---
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हम निज जीवन से तो असत्य का अंधकार दूर कर सकते हैं, लेकिन पूरी सृष्टि से नहीं। यह सृष्टि, प्रकाश और अन्धकार के द्वैत का ही एक खेल है। सही दिशा में चलते हुए हमारा कार्य परमात्मा के प्रकाश का विस्तार करना ही है। हम निज जीवन से अंधकार दूर करेंगे तो आसपास का अंधकार भी दूर होगा। अपनी चेतना में हम परमात्मा के प्रकाश (ब्रह्मज्योति) और उन की ध्वनि (अनाहत नाद) के प्रति सदा सजग रहें। किसी भी तरह की हीन भावना न लायें। हमारी सही दिशा हमारा कूटस्थ है। कूटस्थ-चैतन्य यानि ब्राह्मी-स्थिति में सदा प्रयासपूर्वक रहें। उसकी चेतना कभी विस्मृत न हो। कूटस्थ चैतन्य ही हमें परमशिव का बोध करा सकता है। गीता में भगवान कहते हैं --
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।२:७२॥"
अर्थात् - हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है॥
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परमात्मा के प्रकाश का विस्तार करना ही मेरा कर्मयोग है। परमात्मा ही मेरी दिशा और मेरा जीवन हैं। ॐ तत्सत् !! जय गुरु !! ॐ गुरु !!
कृपा शंकर

१ दिसंबर २०२१ 

गुरु चरणों में मिला आश्रय बना रहे ---

गुरु चरणों में मिला आश्रय बना रहे ---
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इस देह रूपी विमान के चालक स्वयं परमात्मा हैं, और यह विमान भी वे स्वयं ही हैं। उनसे पृथकता का बोध उनकी माया है। वे ही गुरु रूप ब्रह्म हैं। अपने ज्योतिर्मय चरण-कमलों के दर्शन वे मुझे सहस्त्रार-चक्र में देते हैं, और सदा ब्रह्मरंध्र पर ही ध्यान लगवाते हैं। इस देह से बाहर परमशिव की अनुभूतियाँ उन्हीं की कृपा से होती हैं। अच्छा-बुरा जो कुछ भी मैं हूँ, वह उनकी कृपा का ही फल है। वे ही परमशिव हैं, और वे ही वासुदेव भगवान नारायण हैं। उनकी कृपा ही मेरा अस्तित्व है। उनकी कृपा से ही मैं यह सब लिख पा रहा हूँ।
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मुझे और कुछ भी नहीं लिखना है, उन्हीं की इच्छा पूर्ण हो, और उन्हीं का अस्तित्व बना रहे। उनकी कृपा भी सभी प्राणियों पर बनी रहे। मुझे सदा अपने चरणों की सेवा में ही लगाए रखें। सभी प्राणियों में व सारी सृष्टि में वे ही व्याप्त हैं। उनके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है। वे ही सर्वस्व हैं। हरिः ॐ तत्सत्॥
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"ॐ वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
कृपा शंकर

१ दिसंबर २०२१ 

अपने हृदय को पूछिये और हृदय जो भी कहता है वह कीजिये ---

अपने हृदय को पूछिये और हृदय जो भी कहता है वह कीजिये। हृदय कभी झूठ नहीं बोल सकता क्योंकि हृदय में भगवान का निवास है।

भगवान की भक्ति के लिए इधर-उधर भागदौड़ करने से कोई लाभ नहीं है। सब गुरुओं के गुरु भगवान श्रीकृष्ण हैं, उनसे बड़ा कोई गुरु नहीं है। हृदय में उनका ध्यान कीजिये और नित्य गीता पाठ कीजिये। गीता पाठ में यदि कठिनाई आती है तो नित्य नियमित रामचरितमानस का पाठ कीजिये। यदि वह भी नहीं होता है तो नित्य नियमित रूप से हनुमान चालीसा या द्वादशाक्षरी भागवत मंत्र का जप तो कर ही सकते हैं। वह भी नहीं होता तो निरंतर रामनाम का जप कीजिये। उससे अधिक सरल और प्रभावी साधन कोई दूसरा नहीं है।
सभी को शुभ कामनाएँ और नमन!
३० नोवेंबर २०२१

अब चिंतन-धारा (विचार-धारा) में बहुत बड़े परिवर्तन हो गये हैं ---

 अब चिंतन-धारा (विचार-धारा) में बहुत बड़े परिवर्तन हो गये हैं ---

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(१) पहले स्वयं को व्यक्त करने की एक आकांक्षा थी, जिसकी पूर्ति के लिए परमात्मा ने फेसबुक आदि सोशियल मीडिया प्रदान कीं, जिन से मन अब पूरी तरह भर गया है| अब स्वयं को परमात्मा की अनंतता में व उस से भी परे व्यक्त होने की एक अति तीब्र अभीप्सा गहनतर होती जा रही है| सारी आध्यात्मिक साधनाओं का एकमात्र उद्देश्य ही स्वयं में परमात्मा को, व परमात्मा में स्वयं को व्यक्त करना है|
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(२) यह सृष्टि परमात्मा की है, मेरी नहीं| मेरा एकमात्र संबंध भी परमात्मा से ही रह गया है| उन के अतिरिक्त अब न तो कोई सुनने वाला है और न कोई रक्षा करने वाला| अतः अब कोई भी निंदा-स्तुति, आलोचना-प्रशंसा, शिकायत-अनुशंसा, --- परमात्मा से ही करेंगे, किसी अन्य से नहीं|
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(३) मृत्यु का अब कोई भय नहीं रहा है| मृत्यु मुझ से यह शरीर ही छीन सकती है और कुछ नहीं| मैं यह शरीर नहीं, एक शाश्वत आत्मा हूँ, जिसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता| इस शरीर की मृत्यु के पश्चात न तो किसी स्वर्ग की कामना है, और न ही किसी नर्क का भय| मेरी गति अति सूक्ष्म जगत के उन्हीं हिरण्यमय लोकों में होगी, जहाँ मेरे पूर्व जन्मों के गुरु, परमात्मा के साथ एक हैं| मैं उन से पृथक नहीं रह सकता|
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(४) मैं एक नित्य-मुक्त शाश्वत आत्मा हूँ जिस की इस शरीर से मुक्त होने के पश्चात किसी भी तरह की कोई दुर्गति नहीं होगी, क्योंकि पूर्वजन्मों के गुरु मेरी रक्षा कर रहे हैं| मैं उन्हीं के साथ परमात्मा के हृदय में हूँ, और वहीं रहूँगा|
जब यह शरीर शांत हो जाये तब किसी भी तरह के कर्मकांड इस देह के लिए करने की आवश्यकता मेरे परिजनों को नहीं है| इस को भस्म कर के किसी पवित्र नदी में प्रवाहित कर दें ताकि कोई प्रदूषण न हों, और कुछ भी नहीं| पता नहीं अब तक कितने शरीरों में जन्म और मृत्यु हुई है| यह चक्र, प्रकृति का एक नियम है| मैं यह भी नहीं चाहता कि कोई मुझे याद करे| याद ही करना है तो परमात्मा को करें|
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(५) परमात्मा की आरोग्यकारी उपस्थिती सभी प्राणियों की देह, मन व आत्मा में प्रकट हो| सभी का कल्याण हो, और सभी सुखी रहें|
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गीता में अर्जुन द्वारा की गई यह स्तुति मेरे जीवन का अटूट अंग है ---
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||११:३९||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||११:४०||"
भावार्थ जो मैं समझता हूँ :---
आप ही यम (मूलाधार चक्र), वरुण (स्वाधिष्ठान चक्र), अग्नि (मणिपुर चक्र), वायु (अनाहत चक्र), शशांक (विशुद्धिचक्र), प्रजापति (आज्ञाचक्र), और प्रपितामह (सहस्त्रार चक्र) हैं| आपको हजारों बार नमस्कार है| पुनश्च: आपको "क्रिया" (क्रियायोग के अभ्यास और आवृतियों) के द्वारा अनेकों बार नमस्कार (मैं नहीं, आप ही हैं, यानि कर्ता मैं नहीं आप ही हैं) हो|
(यह अतिशय श्रद्धा, भक्ति और अभीप्सा का भाव है)
आप को आगे से और पीछे से (इन साँसों से जो दोनों नासिका छिद्रों से प्रवाहित हो रहे हैं) भी नमस्कार है (ये साँसें आप ही हो, ये साँसें मैं नहीं, आप ही ले रहे हो)| सर्वत्र स्थित हुए आप को सब दिशाओं में (सर्वव्यापकता में) नमस्कार है| आप अनन्तवीर्य (अनंत सामर्थ्यशाली) और अमित विक्रम (अपार पराक्रम वाले) हैं, जो सारे जगत में, और सारे जगत को व्याप्त किये हुए सर्वरूप हैं| आपसे अतिरिक्त कुछ भी नहीं है|
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यह मैं और मेरा होने का भाव मिथ्या है| जो भी हैं, वह आप ही हैं| जो मैं हूँ वह भी आप ही हैं| हे प्रभु , आप को बारंबार नमन है !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ दिसंबर २०२०

गीता में अर्जुन द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति जो मेरे जीवन का अटूट भाग है ---

गीता में अर्जुन द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति जो मेरे जीवन का अटूट भाग है ---
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"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||११:३९||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||११:४०||"
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भावार्थ जैसा मैं समझता हूँ :---
आप ही यम (मूलाधार चक्र), वरुण (स्वाधिष्ठान चक्र), अग्नि (मणिपुर चक्र), वायु (अनाहत चक्र), शशांक (विशुद्धि चक्र), प्रजापति (आज्ञा चक्र), और प्रपितामह (सहस्त्रार चक्र) हैं| आपको हजारों बार नमस्कार है|
पुनश्च: आपको "क्रिया" (क्रियायोग के अभ्यास और आवृतियों) के द्वारा अनेकों बार नमस्कार (मैं नहीं, आप ही हैं, यानि कर्ता मैं नहीं आप ही हैं) हो|
(यह अतिशय श्रद्धा, भक्ति और अभीप्सा का भाव है)
आप को आगे से और पीछे से (इन साँसों से जो दोनों नासिका छिद्रों से प्रवाहित हो रहे हैं) भी नमस्कार है (ये साँसें आप ही हो, ये साँसें मैं नहीं, आप ही ले रहे हो)| सर्वत्र स्थित हुए आप को सब दिशाओं में (सर्वव्यापकता में) नमस्कार है| आप अनन्तवीर्य (अनंत सामर्थ्यशाली) और अमित विक्रम (अपार पराक्रम वाले) हैं, जो सारे जगत में, और सारे जगत को व्याप्त किये हुए सर्वरूप हैं| आपसे अतिरिक्त कुछ भी नहीं है|
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यह मैं और मेरा होने का भाव मिथ्या है| जो भी हैं, वह आप ही हैं| जो मैं हूँ वह भी आप ही हैं| हे प्रभु , आप को बारंबार नमन है !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ दिसंबर २०२०