हम अनन्य भाव और पूर्ण भक्ति से ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करें ---
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जो ज्योतिषांज्योति स्वयं ज्योतिर्मय है, जिसकी ज्योति से सारा ब्रह्मांड प्रकाशित है, भगवान के उस विराट रूप का हम ध्यान करें। उसमें अपना पूर्ण समर्पण कर दें, उसके साथ एक हो जाएँ। वहाँ कोई अन्य नहीं है। परमात्मा का वह प्रकाशरूप ही ज्योतिर्मय ब्रह्म है, वही परमशिव है, वही परमेश्वर है, और वही वासुदेव है। उसी का हम ध्यान करें, उसी में समर्पित हों, व उसके साथ एकाकार हों।
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भगवान के लिए परमप्रेम होगा तो सब कुछ वे समझा देते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं --
(१) "दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः॥११:१२॥"
अर्थात् - अगर आकाश में एक साथ हजारों सूर्य उदित हो जायँ, तो भी उन सबका प्रकाश मिलकर उस महात्मा-(विराट् रूप परमात्मा-) के प्रकाश के समान शायद ही हो।
(२) "न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५:६॥"
अर्थात् - उसे न सूर्य प्रकाशित कर सकता है और न चन्द्रमा और न अग्नि। जिसे प्राप्त कर मनुष्य पुन: (संसार को) नहीं लौटते हैं, वह मेरा परम धाम है॥
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श्रुति भगवती कहती है --
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति॥"
(मुंडकोपनिषद व कठोपनिषद)
अति संक्षेप में इसका अर्थ है कि जो कुछ भी प्रकाशमान् है, वह 'उस' ज्योति की आभा से ही प्रतिभासित है।'
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जहाँ कोई अन्य नहीं है, पूर्ण भक्ति और समर्पण से उस का ध्यान -- अनन्य भक्ति है। गीता में भगवान कहते हैं --
(१) "भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप॥११:५४॥"
अर्थात् -- परन्तु हे परन्तप अर्जुन! अनन्य भक्ति के द्वारा मैं तत्त्वत: 'जानने', 'देखने' और 'प्रवेश' करने के लिए (एकी भाव से प्राप्त होने के लिए) भी, शक्य हूँ!॥
(२) अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
अर्थात् -- अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥
(३) "मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
अर्थात् -- अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि॥
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अनन्य भक्ति यानि अनन्य भाव को हम भगवान के गहन ध्यान से ही समझ सकते हैं। यह एक अनुभूति का विषय है। हम शरणागत हों, भक्ति में स्थित हों, कामनाओं व राग-द्वेष से मुक्त हों, और समस्त प्राणियों से मैत्री भाव रखें, यह परमात्मा के ध्यान द्वारा ही संभव है।
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ दिसंबर २०२१