हम सदा सही दिशा में गतिशील रहते हुए असत्य के अंधकार से ऊपर रहें ---
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हम निज जीवन से तो असत्य का अंधकार दूर कर सकते हैं, लेकिन पूरी सृष्टि से नहीं। यह सृष्टि, प्रकाश और अन्धकार के द्वैत का ही एक खेल है। सही दिशा में चलते हुए हमारा कार्य परमात्मा के प्रकाश का विस्तार करना ही है। हम निज जीवन से अंधकार दूर करेंगे तो आसपास का अंधकार भी दूर होगा। अपनी चेतना में हम परमात्मा के प्रकाश (ब्रह्मज्योति) और उन की ध्वनि (अनाहत नाद) के प्रति सदा सजग रहें। किसी भी तरह की हीन भावना न लायें। हमारी सही दिशा हमारा कूटस्थ है। कूटस्थ-चैतन्य यानि ब्राह्मी-स्थिति में सदा प्रयासपूर्वक रहें। उसकी चेतना कभी विस्मृत न हो। कूटस्थ चैतन्य ही हमें परमशिव का बोध करा सकता है। गीता में भगवान कहते हैं --
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।२:७२॥"
अर्थात् - हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है॥
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परमात्मा के प्रकाश का विस्तार करना ही मेरा कर्मयोग है। परमात्मा ही मेरी दिशा और मेरा जीवन हैं। ॐ तत्सत् !! जय गुरु !! ॐ गुरु !!
कृपा शंकर
१ दिसंबर २०२१
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