Sunday 5 December 2021

अब चिंतन-धारा (विचार-धारा) में बहुत बड़े परिवर्तन हो गये हैं ---

 अब चिंतन-धारा (विचार-धारा) में बहुत बड़े परिवर्तन हो गये हैं ---

--------------------------------------------------------
(१) पहले स्वयं को व्यक्त करने की एक आकांक्षा थी, जिसकी पूर्ति के लिए परमात्मा ने फेसबुक आदि सोशियल मीडिया प्रदान कीं, जिन से मन अब पूरी तरह भर गया है| अब स्वयं को परमात्मा की अनंतता में व उस से भी परे व्यक्त होने की एक अति तीब्र अभीप्सा गहनतर होती जा रही है| सारी आध्यात्मिक साधनाओं का एकमात्र उद्देश्य ही स्वयं में परमात्मा को, व परमात्मा में स्वयं को व्यक्त करना है|
.
(२) यह सृष्टि परमात्मा की है, मेरी नहीं| मेरा एकमात्र संबंध भी परमात्मा से ही रह गया है| उन के अतिरिक्त अब न तो कोई सुनने वाला है और न कोई रक्षा करने वाला| अतः अब कोई भी निंदा-स्तुति, आलोचना-प्रशंसा, शिकायत-अनुशंसा, --- परमात्मा से ही करेंगे, किसी अन्य से नहीं|
.
(३) मृत्यु का अब कोई भय नहीं रहा है| मृत्यु मुझ से यह शरीर ही छीन सकती है और कुछ नहीं| मैं यह शरीर नहीं, एक शाश्वत आत्मा हूँ, जिसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता| इस शरीर की मृत्यु के पश्चात न तो किसी स्वर्ग की कामना है, और न ही किसी नर्क का भय| मेरी गति अति सूक्ष्म जगत के उन्हीं हिरण्यमय लोकों में होगी, जहाँ मेरे पूर्व जन्मों के गुरु, परमात्मा के साथ एक हैं| मैं उन से पृथक नहीं रह सकता|
.
(४) मैं एक नित्य-मुक्त शाश्वत आत्मा हूँ जिस की इस शरीर से मुक्त होने के पश्चात किसी भी तरह की कोई दुर्गति नहीं होगी, क्योंकि पूर्वजन्मों के गुरु मेरी रक्षा कर रहे हैं| मैं उन्हीं के साथ परमात्मा के हृदय में हूँ, और वहीं रहूँगा|
जब यह शरीर शांत हो जाये तब किसी भी तरह के कर्मकांड इस देह के लिए करने की आवश्यकता मेरे परिजनों को नहीं है| इस को भस्म कर के किसी पवित्र नदी में प्रवाहित कर दें ताकि कोई प्रदूषण न हों, और कुछ भी नहीं| पता नहीं अब तक कितने शरीरों में जन्म और मृत्यु हुई है| यह चक्र, प्रकृति का एक नियम है| मैं यह भी नहीं चाहता कि कोई मुझे याद करे| याद ही करना है तो परमात्मा को करें|
.
(५) परमात्मा की आरोग्यकारी उपस्थिती सभी प्राणियों की देह, मन व आत्मा में प्रकट हो| सभी का कल्याण हो, और सभी सुखी रहें|
.
गीता में अर्जुन द्वारा की गई यह स्तुति मेरे जीवन का अटूट अंग है ---
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||११:३९||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||११:४०||"
भावार्थ जो मैं समझता हूँ :---
आप ही यम (मूलाधार चक्र), वरुण (स्वाधिष्ठान चक्र), अग्नि (मणिपुर चक्र), वायु (अनाहत चक्र), शशांक (विशुद्धिचक्र), प्रजापति (आज्ञाचक्र), और प्रपितामह (सहस्त्रार चक्र) हैं| आपको हजारों बार नमस्कार है| पुनश्च: आपको "क्रिया" (क्रियायोग के अभ्यास और आवृतियों) के द्वारा अनेकों बार नमस्कार (मैं नहीं, आप ही हैं, यानि कर्ता मैं नहीं आप ही हैं) हो|
(यह अतिशय श्रद्धा, भक्ति और अभीप्सा का भाव है)
आप को आगे से और पीछे से (इन साँसों से जो दोनों नासिका छिद्रों से प्रवाहित हो रहे हैं) भी नमस्कार है (ये साँसें आप ही हो, ये साँसें मैं नहीं, आप ही ले रहे हो)| सर्वत्र स्थित हुए आप को सब दिशाओं में (सर्वव्यापकता में) नमस्कार है| आप अनन्तवीर्य (अनंत सामर्थ्यशाली) और अमित विक्रम (अपार पराक्रम वाले) हैं, जो सारे जगत में, और सारे जगत को व्याप्त किये हुए सर्वरूप हैं| आपसे अतिरिक्त कुछ भी नहीं है|
.
यह मैं और मेरा होने का भाव मिथ्या है| जो भी हैं, वह आप ही हैं| जो मैं हूँ वह भी आप ही हैं| हे प्रभु , आप को बारंबार नमन है !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ दिसंबर २०२०

No comments:

Post a Comment