हम जहाँ हैं, भगवान वहीं है ---
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हम जहाँ भी हैं, हर समय वहीं सारे तीर्थ हैं, वहीं सारे सिद्ध संत-महात्मा हैं, और वहीं परमात्मा हैं। परमात्मा ने हमें जहाँ भी रखा है, वे भी वहीं हैं। वे हमसे दूर जा ही नहीं सकते। वे हमारी सत्यनिष्ठा ही देखते हैं, और हमसे हमारा परमप्रेम ही मांगते हैं। यदि सत्यनिष्ठा नहीं है तो कुछ भी नहीं है। भगवान को प्रेम भी सत्यनिष्ठा से ही संभव है। यह सत्यनिष्ठा और भगवत्-प्राप्ति -- हमारा सत्य-सनातन-धर्म है।
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गीता में बताई हुई ब्राह्मी स्थिति यानि कूटस्थ चैतन्य में हम निरंतर रहें। बिना किसी तनाव के, शिवनेत्र होकर यानि दोनों आँखों की पुतलियों को भ्रूमध्य के समीप लाकर, भ्रूमध्य में प्रणव यानि ॐकार से लिपटी हुई दिव्य ज्योतिर्मय सर्वव्यापी आत्मा का चिंतन करते-करते, एक दिन ध्यान में विद्युत् आभा सदृश्य देदीप्यमान ब्रह्मज्योति प्रकट होती है। यह ब्रहमज्योति -- इस सृष्टि का बीज, और परमात्मा का द्वार है। इसे 'कूटस्थ' कहते हैं। इस अविनाशी ब्रह्मज्योति और उसके साथ सुनाई देने वाले प्रणवनाद में लय रहना 'कूटस्थ चैतन्य' है। यह सर्वव्यापी, निरंतर गतिशील, ज्योति और नाद - 'कूटस्थ ब्रह्म' हैं। इस कूटस्थ चैतन्य में निरंतर सदा प्रयासपूर्वक बने रहें, हमारा यह मनुष्य जीवन धन्य हो जाएगा।
गीता में भगवान कहते हैं --
"ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥१२:३॥"
"संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥१२:४॥"
अर्थात् - परन्तु जो भक्त अक्षर ,अनिर्देश्य, अव्यक्त, सर्वगत, अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल और ध्रुव की उपासना करते हैं॥ इन्द्रिय समुदाय को सम्यक् प्रकार से नियमित करके, सर्वत्र समभाव वाले, भूतमात्र के हित में रत वे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं॥
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१५:१६॥"
अर्थात् - इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं, समस्त भूत क्षर हैं और 'कूटस्थ' अक्षर कहलाता है॥
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कूटस्थ का केंद्र भी परिवर्तनशील ऊर्ध्वगामी है। कूटस्थ चैतन्य में प्रयासपूर्वक निरंतर स्थिति 'योग-साधना' है। सुषुम्ना की ब्रह्मनाड़ी में प्राणों का प्रवेश होने से शनैः शनैः बड़ी शान से एक राजकुमारी की भाँति भगवती कुंडलिनी महाशक्ति हमारे सूक्ष्मदेह में सुषुम्ना की ब्रह्मनाड़ी में जागृत होती है, जो स्वयं जागृत होकर हमें भी जगाती है। सुषुम्ना में कुंडलिनी का श्रद्धापूर्वक संचलन वेदपाठ है। साधना करते करते ब्रह्मनाड़ी में स्थित सभी चक्रों को भेदते हुये, सभी अनंताकाशों व दहराकाश से परे 'परमशिव' में इसका विलीन होना परमसिद्धि है। यही योगसाधना का लक्ष्य है। फिर हम परमशिव के साथ एक होकर स्वयं परमशिव हो जाते हैं। कहीं कोई भेद नहीं रहता।
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परमात्मा की कृपा ही हमें पार लगाती है। परमात्मा अपरिछिन्न हैं। परिछिन्नता का बोध हमें चंचल मन के कारण होता है। मन के शांत होने पर अपरिछिन्नता का पता चलता है। कूटस्थ में ध्यान -श्रीगुरु चरणों का ध्यान है। कूटस्थ में स्थिति - श्रीगुरु चरणों में आश्रय है। कूटस्थ ही पारब्रह्म परमात्मा है। कूटस्थ ज्योति - साक्षात सद्गुरु है। कूटस्थ प्रणवनाद -- गुरु-वाक्य है।
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किसी पूर्वजन्म के पुण्यों के उदय होने से मुझे गीता के स्वाध्याय का यह अवसर मिला है। मेरा जीवन धन्य हुआ। भगवान कहते हैं --
"प्रयाणकाले मनसाऽचलेन, भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्, स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥८:१०॥"
"यदक्षरं वेदविदो वदन्ति, विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति, तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये॥८:११॥"
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥८:१२॥"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥८:१३॥"
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८:१४॥"
"मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः॥८:१५॥"
"आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥८:१६॥"
सब (इन्द्रियों के) द्वारों को संयमित कर मन को हृदय में स्थिर करके और प्राण को मस्तक में स्थापित करके योगधारणा में स्थित हुआ।। जो पुरुष ओऽम् इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है।। हे पार्थ ! जो अनन्यचित्त वाला पुरुष मेरा स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगी के लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ।। परम सिद्धि को प्राप्त हुये महात्माजन मुझे प्राप्त कर अनित्य दुःख के आलयरूप (गृहरूप) पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते हैं।। हे अर्जुन ! ब्रह्म लोक तक के सब लोग पुनरावर्ती स्वभाव वाले हैं। परन्तु, हे कौन्तेय ! मुझे प्राप्त होने पर पुनर्जन्म नहीं होता।।
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नारायण !! और क्या कहूँ? अंतिम ४ बातें ये हैं --
(१) भगवान से प्रेम करो। (२)भगवान से खूब प्रेम करो। (२) भगवान से सदा प्रेम करो। और (४) प्रेम करते-करते आत्माराम (आत्मा में रमण करने वाला) हो जाओ।
आप सब पुण्यात्माओं को नमन जिन्होंने इस आलेख को पढ़ा है। मैं तो इसे लिखते लिखते ही भगवान में स्थित हो गया हूँ। भगवान मुझमें हैं, और मैं भगवान में हूँ॥
ॐ नमो नारायण !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१२ फरवरी २०२२
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पुनश्च: ----- शिवभाव में स्थित होकर कूटस्थ सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम भगवान नारायण का सदा ध्यान करें। इसे कभी न भूलें।