"ॐ विश्वरूपमहाग्नये स्वाहा। इदं ते न मम॥" ---
.
पूर्ण भक्ति यानि अपने सम्पूर्ण प्रेम के साथ कूटस्थ में भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए उनकी विश्वरूपमहाग्नि में अपनी सभी वासनाओं को भस्म कर दें। सम्पूर्ण विश्व -- भगवान विष्णु का रूप है। उसमें स्वयं का पूर्ण समर्पण कर दें। हम यह देह नहीं, सम्पूर्ण विश्वरूप में व्यक्त भगवान विष्णु के साथ एक हैं। हम सिर्फ निमित्त मात्र हैं, हमारा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है। एकमात्र अस्तित्व उन्हीं का है। बंद आँखों के अंधकार के पीछे जो प्रकाश है, उसके सूर्य-मण्डल में उन्हीं पुरुषोत्तम की छवि निरंतर हो। हमारी चेतना सदा आज्ञाचक्र से ऊपर ही रहे। कोई वासना यदि बचती भी है तो वह वेदान्त-वासना ही हो। अन्य कोई वासना न रहे।
.
सूक्ष्म देह के मेरुदंड में स्थित सभी चक्र -- सहस्त्रारचक्र के ही प्रतिबिंब हैं। उनका प्रकाश भी सहस्त्रार में प्रज्ज्वलित विश्वरूपमहाग्नि के कारण है। सुषुम्ना की ब्रह्मनाड़ी में हर चक्र से अपनी चेतना को उठाते हुए कूटस्थ में जल रही अग्नि में मानसिक रूप से उसकी आहुती दे दें। ॐ स्वाहा॥ परमात्मा का यह विश्वरूप ही हमारा वास्तविक स्वरूप है। परमात्मा की छवि ही हमारी छवि है। हमारा कार्य परमात्मा के प्रकाश का विस्तार करना ही है। हमारी स्वयं की चेतना का विस्तार ही उनके प्रकाश का विस्तार है।
.
ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
११ फरवरी २०२२
No comments:
Post a Comment