Saturday, 14 September 2024

भूमा ही सुख है, अल्प में सुख नहीं है ---

 अन्तःकरण पर कभी कभी हमारा कोई अधिकार नहीं रहता। कूटस्थ में सर्वव्यापी पुरुषोत्तम की चेतना में सब कुछ खो जाता है। सांस लेते हैं तो सारी सृष्टि हमारे साथ सांस लेती है। ध्यान करते हैं तब सारी सृष्टि हमारे साथ ध्यान करती है। कोई भी या कुछ भी हमारे से पृथक नहीं रहता। क्या इसे ही 'अपरोक्षानुभूति' कहते है?

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हमारा स्वधर्म है -- परमात्मा की अभीप्सा, परमात्मा से परमप्रेम और परमात्मा को पूर्ण समर्पण।
हम इस नश्वर भौतिक देह, अन्तःकरण, इंद्रियों और उनकी तन्मात्राओं से परे शाश्वत आत्मा हैं। अपने स्वधर्म का पालन निरंतर हम करते रहें। विश्व में जो कुछ भी हो रहा है उससे विचलित न हों, और कूटस्थ-चैतन्य/ब्राह्मी-स्थिति में निरंतर रहने कि साधना करते रहें। जीवन में जो बड़ी-बड़ी भूलें कीं, उन्हें तो अब सुधारा नहीं जा सकता। उन्हें भूल जाना ही ठीक है।
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"मुझे पतझड़ों की कहानियाँ, न सुना सुना के उदास कर
वो नही मिला तो मलाल क्या, जो गुज़र गया सो गुज़र गया
उसे याद करके ना दिल दुखा, जो गुज़र गया सो गुज़र गया
तू खिज़ाँ का फूल है मुस्कुरा, जो गुज़र गया सो गुज़र गया" (बद्र)
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मैं तो एक फूल हूँ, मुरझा गया तो मलाल क्यों
तुम तो एक महक हो, जिसे हवाओं में समाना है (अज्ञात)
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हम परमात्मा के उद्यान के एक अप्रतिम पुष्प हैं, जो अपने स्वामी की विराटता के साथ एक है। सामने परमात्मा की ज्योतिर्मय अनंतता है। उससे भी परे स्वयं सच्चिदानंद परमशिव हैं। जब उपास्य परमशिव अपनी भव्यतम अभिव्यक्ति में स्वयं समक्ष हैं, तब कैसी उदासी और कैसी अप्रसन्नता?
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"तपस्वी! क्यों इतने हो क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग?
आह! तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग!
जिसे तुम समझे हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल;
ईश का वह रहस्य वरदान, कभी मत इसको जाओ भूल।
विषमता की पीड़ा से व्यस्त हो रहा स्पंदित विश्व महान;
यही दु:ख सुख विकास का सत्य यही 'भूमा' का मधुमय दान। (प्रसाद)
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वास्तव में 'भूमा' का आंशिक बोध ही अब तक के इस जीवन की उच्चतम उपलब्धि है। 'भूमा' के साथ अभेद ही इस जीवन की पूर्णता होगी। हमारी व्यथा का कारण भी 'भूमा' के साथ पूरी तरह एक न हो पाना ही है। 'भूमा' से कम कुछ भी हमें सुखी नहीं कर सकता।
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ब्रह्मविद्या के प्रथम आचार्य भगवान सनतकुमार ने अपने प्रिय शिष्य देवर्षि नारद को 'भूमा' का साक्षात्कार करा कर ही देवर्षि बना दिया था।
श्रुति भगवती कहती है --
"यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति भूमैव सुखं भूमा त्वेव विजिज्ञासितव्य इति भूमानं भगवो विजिज्ञास इति॥" (छान्दोग्योपनिषद्‌ ७/२३/१)
अर्थात - ‘जो भूमा (महान् निरतिशय) है, वही सुख है, अल्प में सुख नहीं है। भूमा ही सुख है और भूमा को ही विशेष रूप से जानने की चेष्टा करनी चाहिये।
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‘अल्प’ और ‘भूमा’ क्या है, इसको बतलाती हुई श्रुति भगवती फिर कहती है --
"यत्र नान्यत्पश्यति नान्यच्छृणोति नान्यद्विजानाति स भूमाऽथ यत्रान्यत्पश्यत्यन्यच्छृणोत्यन्यद्विजानाति तदल्पं यो वै भूमा तदमृतमथ यदल्पं तन्मर्त्यम्॥" (छान्दोग्योपनिषद्‌ ७/२३/२)
अर्थात -- ‘जहाँ अन्य को नहीं देखता, अन्य को नहीं सुनता, अन्य को नहीं जानता, वह भूमा है और जहाँ अन्य को देखता है, अन्य को सुनता है, अन्य को जानता है, वह अल्प है। जो भूमा है, वही अमृत है और जो अल्प है, वह मरणशील (नश्वर) है।’
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यह ब्रह्मज्ञान है जिसे पाना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। यही आत्म-साक्षात्कार है, यही परमात्मा की प्राप्ति है। इसे पाकर ही हम कह सकते है --
शिवोहं शिवोहं / अहं ब्रह्मास्मि !! ॐ ॐ ॐ !!
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मैं शिव हूँ, ये नश्वर भौतिक, सूक्ष्म, और कारण शरीर नहीं। मैं यह अन्तःकरण (मन बुद्धि चित्त अहंकार) भी नहीं हूँ। न ही मैं ये इंद्रियाँ और उनकी तन्मात्राएँ हूँ। मैं अनंत, विराट, असीम, पूर्णत्व, और परमशिव हूँ।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ सितंबर २०२३

जीवन में हम एक-दूसरे के रूप में स्वयं से ही मिलते रहते हैं ---

 >>> जीवन में हम एक-दूसरे के रूप में स्वयं से ही मिलते रहते हैं। हम सब में जो व्यक्त है, वही परमात्मा है।  हम उन के साथ एक हैं।

>>> परमात्मा का ध्यान और उससे प्राप्त आनंद सर्वोच्च सत्संग है।

>>> सूक्ष्म देह में मेरुदंडस्थ सुषुम्ना नाड़ी ही पूजा की वेदी और मंडप है, जहाँ भगवान वासुदेव स्वयं बिराजमान हैं।
>>> सहस्त्रार-चक्र में दिखाई दे रही ज्योति "विष्णुपद" है। इसका ध्यान -- गुरु-चरणों का ध्यान है। इसमें स्थिति -- श्रीगुरुचरणों में आश्रय है।
>>> कुंडलिनी महाशक्ति का सहस्त्रार और ब्रह्मरंध्र से भी ऊपर उठकर अनंत महाकाश से परे परमशिव से स्थायी मिलन जीवनमुक्ति और मोक्ष है। यही अपने सच्चिदानंद रूप में स्थित हो जाना है।
>>> जब यह दृढ़ अनुभूति हो जाये कि मैं यह भौतिक शरीर नहीं, एक शाश्वत आत्मा हूँ, उसी समय हमारा स्वयं का पिंडदान हो जाता है। मूलाधारस्थ कुंडलिनी "पिंड" है। गुरु-प्रदत्त विधि से बार-बार कुंडलिनी महाशक्ति को मूलाधार-चक्र से उठाकर सहस्त्रार में भगवान विष्णु के चरण-कमलों (विष्णुपद) में अर्पित करना यथार्थ "पिंडदान" है। इसे श्रद्धा के साथ करना स्वयं का श्राद्ध है।
>>> अपने सच्चिदानंद रूप में स्थित हो जाना मोक्ष है। परब्रह्म ही जीव और जगत् के सभी रूपों में व्यक्त है। वही जीवरूप में भोक्ता है और वही जगत रूप में भोग्य।
>>> आत्मा शाश्वत है। जीवात्मा अपने संचित व प्रारब्ध कर्मफलों को भोगने के लिए बार-बार पुनर्जन्म लेती है। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ति है। जब तक ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती तब तक संचित और प्रारब्ध कर्मफलों से कोई मुक्ति नहीं है। ये सनातन नियम हैं जो इस सृष्टि को चला रहे हैं। यह हमारा सनातन धर्म है।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१४ सितंबर २०२३